Sunday, September 15, 2024

हिस्टीरिया और मानसिक स्वास्थ्य

 


तकरीबन दो साल पहले उत्तराखण्ड में बागेश्वर गाँव के एक स्कूल में कुछ छात्राएँ और छात्र अचानक से चीखने–चिल्लाने लगे, फिर बेहोश हो गये। कभी किसी विशेष आयोजन पर महिलाएँ अचानक झूमने लगती हैं, रोने–चिल्लाने लगती हैं। कभी बोला जाता है कि फलाँ औरत में माता आ गयी है। अक्सर लोग अन्धविश्वास में पड़कर इसको भूत–प्रेत का साया, डायन या चुड़ैल का साया मानने लगते हैं और पण्डित–मौलवियों से झाड़–फूँक कराने लग जाते हैं, जबकि ये सारे मामले हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के अन्तर्गत आते हैं। हिस्टीरिया की तरह ‘मास हिस्टीरिया’ भी एक मानसिक बीमारी है, जिसकी शिकार भी सबसे अधिक महिलाएँ ही होती हैं, लेकिन पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं।

जब एक समूह में अचानक से घबराहट और भय की स्थिति बन जाती है, एक व्यक्ति दूसरे को देखकर उसी तरह का व्यवहार करने लगता हैं, तो इस तरह के मामले मास हिस्टीरिया कहलाते हैं। असल में इन घटनाओं का भूत–प्रेत से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल्कि ये एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसके पीछे अवचेतन मन का तनाव मुख्य कारण होता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े–लिखे लोगों में इस तरह की घटनाएँ अधिक देखने को मिलती हैं। खासतौर पर उन जगहों पर जहाँ धार्मिक आस्था जरूरत से ज्यादा होती है। हमारे सामाजिक ताने–बाने की वजह से महिलाओं की मानसिक स्थिति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है इसलिए महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा इस तरह की समस्या अधिक होती है।

हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के उपचार के लिए आज भी लोग जादू–टोना पर अधिक विश्वास करते हैं। इससे रोगी की मानसिक स्थिति और खराब हो जाती है। गाँव में मानसिक रोगों को कोई वास्तविक मानता ही नहीं है। मानसिक समस्याओं को सिर्फ भूत–प्रेत, जादू–टोना से ही जोड़कर देखा जाता है। कई बार झाड़–फूंक करने वाले इलाज के नाम पर बीमार लोगों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं। उन्हें मारना, बाल नोंचना और रस्सी से पेड़ में बाँधने–– जैसे व्यवहार अक्सर देखने को मिलते हैं, जिसमें बीमार इनसान के परिवार वाले भी अन्धविश्वास के चलते इस हिंसा में साथ देते हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को प्रभावित कर सकती है? जो मेडिकल साइंस वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति के शरीर और मन की जाँच करता है, वह भी महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है क्या?

चिकित्सा जगत में सदियों से महिलाओं के शरीर और दिमाग से जुड़ी समस्याओं को महत्व देने और उन्हें शामिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। स्त्री स्वास्थ्य को लेकर हमारे समाज में बहुत कम बातें होती हैं, यदि होती भी हैं तो गर्भावस्था तक ही सारी बहस को समेट दिया जाता है। महिलाओं से सम्बन्धित शारीरिक और मानसिक बीमारियों को हमारे समाज में कभी गम्भीरता से नहीं लिया गया है, यही कारण है कि आज भी महिलाओं के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और उनकी पीड़ा और दर्द को लेकर बहुत से पूर्वाग्रह और भ्रांतियाँ बनी हुई हैं।

महिलाओं से सम्बन्धित एक ऐसी ही बीमारी है–– हिस्टीरिया (जिसको अब कन्वर्शन डिसऑर्डर के नाम से जाना जाता है)। हिस्टीरिया एक मानसिक बीमारी है जो अत्यधिक चिन्ता से पैदा होती है। इसमें मानसिक परेशानियाँ, शारीरिक लक्षणों का रूप ले लेती हैं। जैसे– बेहोश हो जाना, साँस न आना, शरीर में दर्द और ऐंठन, आँखों की रोशनी चले जाना, कान से कुछ सुनाई न देना आदि। इसमें रोगी का अपने कार्यों और भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रह जाता। अचरज की बात यह है कि मरीज सचमुच ऐसी समस्या से जूझ रहा होता है लेकिन डॉक्टर द्वारा जाँच किये जाने के बाद चिकित्सीय तौर पर उस बीमारी की कोई पुष्टि नहीं होती।

इसमें आमतौर पर व्यक्ति बेहोश हो जाता है, लेकिन यह कोई मिर्गी अथवा शारीरिक बीमारी से सम्बन्धित दौरा नहीं होता, बल्कि एक मानसिक दौरा होता है, जिसमें रोगी का अवचेतन मन सक्रिय होता है। आमतौर पर इसको महिलाओं की बीमारी माना जाता है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है, क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा है जहाँ पितृसत्तात्मक सोच का बोलबाला है, इसलिए महिलाएँ इससे अधिक पीड़ित होती हैं, परन्तु पुरुष भी हिस्टीरिया के शिकार हो सकते हैं। हमारे समाज में महिलाएँ सबसे अधिक उपेक्षित होती हैं, घर के जरूरी कामों में उनकी राय नहीं पूछी जाती, महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मरीज में इस तरह का पैटर्न देखा जाता है। यह देखने में थोड़ा नाटकीय जरूर लगता है, लेकिन रोगी व्यक्ति यह सब कुछ जानबूझ कर नहीं कर रहा होता है। यह बीमारी लम्बे समय से दिमाग पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के परिणाम स्वरूप होती है।

हिस्टीरिया के इतिहास के बारे में अध्ययन से पता चलता है कि यह ग्रीक शब्द हिस्टीरिया से निकला है, जिसका अर्थ होता है गर्भाशय (यूटेरस)। पाँचवी सदी ईसा पूर्व, हिप्पोक्रेट्स और प्लेटो जैसे दार्शनिकों के अनुसार गर्भाशय एक स्वतंत्र, घूमता हुआ अंग है और महिला के शरीर में इसके घूमने से हिस्टीरिया होता है। दार्शनिक प्लेटो और अन्य चिकित्सकों द्वारा इस “रोमिंग यूटेरी” सिद्धान्त को ‘हिस्टेरिकल सफोकेशन’ कहा गया, यानी महिलाओं के पास होने वाला गर्भाशय ही महिलाओं की समस्या का कारण है। क्योंकि गर्भ केवल महिलाओं के पास होता है, इसलिए हिस्टीरिया केवल महिलाओं को होने वाली बीमारी कही गयी। इसका कारण उन्होंने महिलाओं की अधूरी यौन इच्छा को बताया।

उस दौरान यह भी मान्यता थी कि यदि महिला का गर्भाशय सेक्स अथवा प्रजनन क्रियाओं से दूर रहता है तो उसके बीमार होने का खतरा बना रहता है या फिर वह अपनी स्थिति बदल लेता है और घूम जाता है। विशेष रूप से कुँवारी, विधवा, एकल, बाँझ महिलाओं में गर्भाशय के घूमने का खतरा अधिक बना रहता है क्योंकि यह सन्तुष्ट नहीं होता और गहरा धुँआ पैदा करता है और शरीर में चारों और घूमता है, जिससे चिन्ता, घुटन की भावना जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। आमतौर पर यह मान्यता भी थी कि सुगन्धित खुशबू को योनि अथवा नाक के पास ले जाकर रखने से वह अपनी जगह पर वापस आ जाता है।

इस तरह अतीत में महिलाओं के शरीर का वैज्ञानिक परीक्षण किये बगैर केवल पूर्वानुमानों के आधार पर उनके गर्भाशय को मुख्य कारण मानकर उनका इलाज किया जाता रहा, जिसने उनके स्वास्थ्य पर गलत असर डाला। उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी तरह की मान्यताएँ समाज में प्रचलित रहीं। तब भी हिस्टीरिया के बारे में कुछ वैज्ञानिकों की यही समझ बनी हुई थी कि “जिनकी महावारी बिगड़ जाती है या विधवाएँ या जिनके बच्चे न हों उन्हें हिस्टीरिया होने की सम्भावना ज्यादा होती है।”

सिगमंड फ्रायड जैसे प्रसिद्ध मनोचिकित्सक तक भी महिला विरोधी तर्कों से खुद को बचा नहीं पाये। मेडिकल साइंस का महिलाओं के प्रति यह नजरिया समाज में गहरे से जड़ जमा चुकी पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है। यही कारण है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इतने शोध और अनुसन्धान होने के बावजूद महिलाओं की समस्या दूर नहीं हुई।

उन्नीसवी सदी के अन्त तक इस सोच में कुछ बदलाव नजर आने लगा। उसके बाद 1980 में, ‘अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन’ द्वारा प्रकाशित ‘डायग्नोस्टिक एण्ड स्टैटिस्टिकल मैन्युअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर (डीएसएम)” की मानसिक रोगों की सूची से ‘हिस्टीरिया’ को हटा दिया गया। इसके बाद इसके लिए ‘कन्वर्जन डिसऑर्डर’ शब्द लाया गया जिसके अन्तर्गत कई तरह के डिसऑर्डर आते हैं और इसको पूर्णत: मानसिक बीमारी का दर्जा दिया गया, जिसका महिला या पुरुष होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु इसके बाद भी बहुत कम लोग इस बदलाव के बारे में जानते हैं और अधिकतर लोगों में यह हिस्टीरिया के नाम से ही प्रचलित है।

यह बीमारी महिलाओं के यौन स्वास्थ्य या प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी कोई समस्या नहीं है। लेकिन इस बात को समझने में चिकित्सा क्षेत्र को कई सौ साल लग गये। हिस्टीरिया का इतिहास बताता है कि जब डॉक्टरों को महिला शरीर से जुड़ी कोई बीमारी समझ नहीं आती थी तो वे इसे हिस्टीरिया का नाम दे देते थे, इससे उन्हें महिला शरीर को समझने से छुट्टी मिल जाती थी और साथ–ही–साथ समाज में महिला डॉक्टरों की जरूरत से भी ध्यान हट जाता था। अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एक समय यह बीमारी इतनी अधिक हो गयी थी कि जाँच करने पर डॉक्टर हर दूसरी महिला को हिस्टीरिया से ग्रसित बताते थे। महिलाओं को उस समय बुखार के बाद दूसरे नम्बर पर होने वाली बीमारी हिस्टीरिया थी। किसी भी असुविधा, दर्द या मानसिक तकलीफ की शिकायत करने वाली महिला को ‘हिस्टेरिकल’ घोषित कर दिया जाता और उन्हें इलाज से वंचित कर दिया जाता। अगर इलाज होता भी, वह इस मानसिकता के साथ किया जाता कि महिलाओं की बनावट में ही कुछ दोष है जिसके कारण ये तकलीफें उत्पन्न होती हैं और इसलिए इसका कोई समाधान नहीं हो सकता, साथ ही यह कहा जाता कि इसके लिए एक तरह से महिलाएँ खुद ही दोषी हैं।

महिलाओं के बारे में एक और सोच जो उस समय व्याप्त थी कि महिलाएँ अपनी तकलीफों को बढ़ा–चढ़ा कर बताती हैं, क्योंकि महिलाएँ बहुत कमजोर और नाजुक होती हैं इसलिए उनमें दर्द सहने की क्षमता भी कम होती है। कई बार तो इलाज की माँग करने वाली महिलाओं को मानसिक रूप से असन्तुलित घोषित करके पागलखाने भेज दिया जाता था या फिर यह मानते हुए कि हिस्टीरिया की सारी समस्याएँ महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, हिस्टेरेक्टॉमी सर्जरी के जरिये उनका गर्भाशय ही हटा दिया जाता था। डॉक्टरों के लिए उस समय महिलाओं का इलाज करते समय गर्भाशय ही वह अंग था जो महिलाओं के कमजोर शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान को समझने में मदद कर सकता था। महिला शरीर और मन के बारे में इससे अधिक जानकारी तब डॉक्टरों को नहीं थी, और न ही उनमें जानने की उत्सुकता थी।

आज इक्कीसवी शताब्दी में भी जब चिकित्सा विज्ञान इतना अधिक उन्नत है तब भी महिलाओं के दर्द और पीड़ा को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। आज भी यह सोच ज्यों की त्यों हमारे समाज में प्रचलित है कि महिला अपने दर्द को बढ़ा–चढ़ा कर दिखाती है। छोटी बातों को भी बड़ा करके बताती है, अपनी बीमारी के प्रति ज्यादा वहमी होती है। महिलाओं के दर्द को कम आँकने का एक प्रमुख कारण लैंगिक रूढ़िवादिता है। यह रूढ़िवादी सोच कहती है कि दर्द की स्थिति में पुरुष ‘शान्त और स्थिर’ रहते हैं जबकि महिलाएँ ज्यादा ‘हो–हल्ला’ मचाती हैं।

सोशल मीडिया पर कई महिलाएँ अपनी आपबीती बयान करती हैं जिसमें वे बताती हैं कि वे असहनीय पेट दर्द की शिकायत ले कर अस्पताल गयीं और डॉक्टर ने उन्हें बिना पर्याप्त जाँच के केवल दर्द की कुछ प्राथमिक दवाइयाँ दे कर घर भेज दिया। बहुत से मामलों में बिना कोई जाँच कराये ही पेट दर्द को स्त्री सम्बन्धी समस्या बताकर उसी का उपचार शुरू कर दिया जाता है। कभी–कभी तो बहुत अधिक दर्द में डॉक्टरों के पास गयी महिलाओं को एंटी–एंग्जायटी दवाइयाँ भी दे दी जाती हैं। कई ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ माहवारी के दौरान भयानक दर्द की शिकायत ले कर वे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकती रहती हैं, लेकिन लगभग सभी जगह उनके दर्द को सामान्य बता कर, कुछ दर्द की दवाइयाँ और दर्द सहना सीखने की सलाह दे कर मामले को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। यह लगभग हर महिला के साथ होता है। और इस तरह हमारे समाज में उनकी दर्द को सहन करने की सोशल कंडीशनिंग की जाती है। यहाँ तक कि अब तो अलग–अलग रील्स या शॉर्ट वीडियो के माध्यम से उनकी पीड़ा का मजाक तक बनाया जाता है। पीरियड में दर्द को आम मानने के कारण एण्डोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिला में रोग की पहचान में ही कई बार सालों लग जाते हैं। कई सालों तक हर महीने भयानक दर्द झेलने के बाद उन्हें पता चलता है कि उन्हें एण्डोमेट्रियोसिस की बीमारी थी जो इतने सालों तक इलाज नहीं मिलने के कारण काफी ज्यादा बढ़ गयी है।

एण्डोमेट्रियोसिस महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी एक दर्दनाक समस्या है जो 15 से 49 साल के आयुवर्ग (प्रजनन आयु) की महिलाओं में देखी जाती है। एण्डोमेट्रियोसिस की वजह से पीरिएड्स के समय ऐंठन, पेट के निचले हिस्से में दर्द या फिर सूजन की समस्या होती है। एक स्टडी के अनुसार, भारत में लगभग 4.3 करोड़ महिलाएँ एण्डोमेट्रियोसिस की इस बीमारी से पीड़ित हैं।

आँकडे़ बताते हैं कि मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में महिला रोगी को पुरुष की अपेक्षा कम तवज्जो मिलती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इलाज के लिए अधिक इन्तजार करना पड़ता है। उन्हें कैंसर या हार्ट अटैक है या नहीं, ये पता लगाने के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। तब तक ये बीमारियाँ महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी होती हैं और महिलाएँ दर्द में तड़पती रहती हैं और यह स्वीकार ही नहीं कर पातीं कि उनको ऐसे नहीं जीना चाहिए। बल्कि वे इसी को अपनी नियति मान लेती हैं।

महिलाओं पर क्लिनिकल परीक्षण आज भी बहुत कम होते हैं, दर्द निवारक दवाओं का 80 प्रतिशत परीक्षण पुरुषों पर किया जाता है। शोधकर्ता महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को यह कहकर छुपाते हैं कि वे महिलाओं को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते और साथ ही गलत परीक्षण से महिला के गर्भाशय को नुकसान हो सकता है, जिसके कारण गर्भधारण में समस्या पैदा हो सकती है। ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को मेडिकल प्रयोगों और शोधों से दूर रखने से ऐसी दवाओं का आविष्कार हुआ है जो महिलाओं के लिए कम सुरक्षित या कम प्रभावी होती हैं।

द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के किये गये शोध में पाया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर 45 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 39 फीसद महिलाओं को कार्डियक अरेस्ट होने पर सीपीआर (कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन–– बेहोशी होने और धड़कन बन्द हो जाने पर रोगी को साँस लेने में मदद करने वाली प्रक्रिया) दिया गया। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक सालों तक जीती तो हैं लेकिन स्वस्थ जीवन नहीं जीती हैं।

आज हमारे समाज में बलात्कार और यौन हिंसा की बढ़ती घटनाओं के कारण महिलाओं में डिप्रेशन, एंग्जायटी और स्ट्रेस डिसॉर्डर और यहाँ तक कि आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसी मानसिक समस्याएँ बढ़ रही हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक उनके पास इलाज के लिए आने वाली उन महिलाओं की संख्या में 30–40 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है, जिन्हें अतीत में बलात्कार और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा। इन विशेषज्ञों के अनुसार जिन महिलाओं के साथ यौन हिंसा हुई है, उनमें रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा, डिप्रेशन और एंग्जायटी होने का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। महिलाओं के इस मानसिक स्वास्थ्य के मुददे पर विचार करते समय हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का उन पर गहरा मानसिक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य पुरुषों से अलग होता है और वे पुरुषों की तुलना में सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसॉर्डर से अधिक पीड़ित हो सकती हैं।

घरेलू हिंसाहिंसा का एक ऐसा क्षेत्र है जो पीड़ित महिलाओं को बिना किसी मानसिक नुकसान का आभास दिलाये, उसके मानसिक स्वास्थ्य को पूरी तरह से तहस–नहस कर के रख देता है। जिन महिलाओं ने घरेलू हिंसा का अनुभव किया है, वे पोस्ट–ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसआर्डर (पीटीएसडी), अवसाद, चिन्ता और आत्महत्या से मौत के विचारों सहित कई मानसिक परेशानियों से पीड़ित होती हैं। लेकिन गृहस्थी और परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी के बीच महिलाएँ इन परेशानियों को नजरअन्दाज करते हुए इसे जीवन का एक सामान्य अंग मान लेती हैं। इन सबके प्रति महिलाओं को जागरूक होना पड़ेगा और समाज में बराबरी का हक पाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

–– रुचि मित्तल

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