Friday, September 13, 2024

कमाल की औरतें










 

(1)

देर तक औरतें अपने साड़ी के पल्लू में

साबुन लगाती रहती हैं

कि पोंछ लिए थे भीगे हाथ

हल्दी के दाग...अचार की खटास या थाली की गर्द

या झाड़ लिया था नमक

पोंछ लिया था छुटके ने अपना मटियाला हाथ


साथ इसके ये भी कि गठियाकर रखा था

जमाने भर का दर्द

सर्द बिस्तर पर निचुडने के बाद का माथा पोंछा था शायद

बाद मंदिर की आरती की थाली भी

बेचैनियों पर आँख का पानी भी


जमाने भर के दाग धब्बे को

एक पूरा दिन खोंसे रही

अपनी कमर के गिर्द

अब देर तक अपना पल्लू साफ करेंगी औरतें

कि पति के मोहक क्षणों में

मोहिनी–सी, नीले अम्बर–सी तन जायेंगी

ये कपड़े को देर तक धोती नजर आयेंगी

मुश्किल के पाँच दिनों से ज्यादा मैले कपड़े

जमाने का दाग


ये अपनी हवाई चप्पलों को भी धोती हैं देर तक

घर की चहारदीवारी के बाहर पैर ना रखने वाली

घूमती रहती हैं...अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूरदराज

ये जब भाग–भाग कर निपटाती हैं अपने काम

ये नाप आती हैं समन्दर की गहराई

देख आती हैं नीली नदी...चढ़ आती हैं ऊँचे पहाड़

मायके की उस खाट पर

अपने पिता के माथे को सहला आती हैं

जो जाने कब से बीमार है

इनकी चप्पलें हजार–हजार यात्राओं से मैली हैं

ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पायी जाती हैं


ये देर तक धोती रहती हैं मुँह की आग

भाप को मिले घड़ी भर आराम

ये चूडियों में फँसी कलाइयों को निकाल बाहर करती हैं

जब धोती हैं हाथ

ये लाल होंठों को रगड़ देती है

सफेद रूमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन

ये चैखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती हैं

पर रुकी रह जाती हैं...अपने बच्चों के लिए


ये देर तक धोती हैं

अपने सपने...अपने ख्याल...अपनी उमंगें

इतनी कि सफेद पड़ जाए रंग

ये असली रंग की औरतें

नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती हैं तुम्हारी असलियत

ये औरतें

अपनी आत्मा पर लगी तमाम खरोंचों को भी छुपा ले जाती हैं

और तुम कहते हो...

कमाल की औरतें हैं...

इतनी देर तक नहाती हैं!

 

(2)

ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियाँ

कभी झटक देती हैं धूप की ओर

अपने बिखरे सपनों को बुहार देती हैं


ये बार–बार मलती हैं आँखें

जब सहती हैं आग की दाह

ये चिमटे के बीच पकड़ सकती हैं

धरती की गोलाई

धरती काँपती है थर–थर


ये फूल तोड़ती हुई मायूस होती हैं

पूजा करती हुई दिखाती हैं तेजी

बड़बड़ाती हैं दुर्गा चालीसा

ठीक उसी समय ये सीधी करती हैं सलवटें

पति की झक्क सफेद कमीज की


इनकी पूजा के साथ

निपटाये गये होते हैं खूब सारे काम

ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं

बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी

तो बड़ी हसरत से छू लेती हैं उसमें

बने मोर के पंखों को

ये छोटे बेटे के पीछे पंख–सी भागती हैं

कि छूटती है बस स्कूल की

‘तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा’

इनके हाथों में लगा नमक

इनकी आँखों में पड़ जाता है


ये बार–बार ठीक करती हैं

घड़ी का अलार्म

ये आधी चादर ओढ़ कर सोयी औरतें

पूरी रात बेचैन कसमसाती हैं सांस रोके

इनकी हथेलियों में पिसती है एक सुबह

आँखों में लडखड़ाती है एक रात


ये उठती हैं तो दीवार से टिक जाती हैं

सम्भलती हैं, चलती हैं, पहुँचती हैं गैस तक

खटाक की आवाज के साथ

जल जाती हैं


और तुम कहते हो–

कमाल की औरतें हैं...

चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं!

–– शैलजा पाठक

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