हाल ही में 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' की जेंडर इक्वालिटी रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में विभिन्न देशों में महिलाओं की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन किया गया। इस आकलन के आधार पर रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को समाज में पुरूषों के बराबर दर्जा मिलने में अभी लगभग 130 साल से भी ज्यादा समय लगेगा।
हालांकि इस रिपोर्ट में देश-दुनिया में महिलाओं की
स्थिति का केवल आंशिक हिस्सा ही उजागर हुआ है। लेकिन यह इन तमाम दावों की पोल
खोलती है जिनमें महिलाओं को बराबर दर्जा दिए जाने का दंभ भरा जाता है। अमरीका और
इंग्लैंड जैसे आधुनिक समझे जाने वाले देश भी महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी दे
पाने में नाकाम साबित हुए हैं। भारत तो इस कड़ी में बहुत पीछे है। हालांकि वर्ल्ड
इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक कुछ देश हैजिन्होने महिलाओं को पुरुषों के
समान बराबरी देने में अच्छा प्रयास किया है। जिसमे आइसलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड
जैसे देश शामिल हैं। लेकिन ये भी पूर्ण रूप से इस गैर बराबरी को मिटा नहीं सके
हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं राजनीतिक, आर्थिक
और सामाजिक रूप से थोड़ी बेहतर तो हुई हैं लेकिन पुरषों के मुकाबले अब भी बहुत
पीछे हैं। समाज में बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक
आज़ादी और राजनीतिक भागीदारी, सभी में महिलाओं का बहुत बड़ा तबका आज भी वंचित है।
हम आधुनिकता के दौर में जी रहे हैं बावजूद इसके लोग सालों
पुरानी रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है।
सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी प्रथा के चलते महिलाओं के अधिकारों को कुचला जा रहा
है।
देश के हर हिस्से में होने वाली महिला हिंसा में
विशेषकर कन्या-भ्रूण हत्या के बढ़ते मामले और पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का घटता
अनुपात इसका प्रमाण है। समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच भी महिलाओं को पीछे
रखने की एक बहुत बड़ी वजह है। इसका बहुत प्रमुख उदाहरण है जिसे हम रोजाना अपने दैनिक
जीवन में देख सकते हैं। शादी से पहले कोई महिला पढ़-लिख भी ले तो शादी के बाद तमाम
घरों में उन्हें नौकरी नहीं करने दी जाती। तमाम तरह की बंदिशे उन पर लगा दी जाती
हैं। अगर संघर्ष करके बाहर काम करने जाती भी है तो उन्हें पुरषों के बराबार
वेतन नहीं
दिया जाता। इसके साथ ही काम के दौरान अकसर उन्हें मानसिक और शारीरिक शोषण का भी
शिकार होना पड़ता है। दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसमें पूर्ण रूप से
महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्ज़ा दिया जाता हो।
ऐसा जरुरी भी नहीं है कि रिपोर्ट में जो 131 सालों
की समय सीमा बताई गई है उसके पूरे होने पर महिलाएं पुरुषों के बराबर हो जायेंगी।
अगर हम 100-150 साल पुराना इतिहास उठाकर देखें तब भी महिलाओं और
पुरुषों के बीच में असमानता और गैर-बराबरी रही है। लेकिन महिलाओं ने अपने अधिकारों
के लिए निरन्तर संघर्ष किए हैं। इन्हीं संघर्षों के चलते आज उन्हें आंशिक आजादी
मिली है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाकर पूर्ण आजादी हासिल की जा सकती है।
महिलाओं ने अतीत में संघर्षों के बलबूते समाज में खुद
को एक इंसान के रूप में स्थापित किया है। लेकिन आज भी उन्हें हर कदम पर दोयम दर्जे
की जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ता है। उन्हें घर की चारदीवारी की सीमाओं के अंदर
रखना, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर काम महत्व देना,
महत्वपूर्ण
कार्यों में उनकी सलाह को नजरंदाज करना, यह सब आज भी एक सच्चाई है।
आज जिस समाज में हम जी रहे हैं अगर उसमें हम अपने
आसपास में ही नज़रे घुमाकर देखें तो सैकड़ों घटनाएं होती दिख जायेंगी जिनमें से
अधिकतर महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, दहेज़
उत्पीड़न, एसिड अटैक जैसी घटनाएं बहुत आम हो गई हैं। और इतनी
दर्दनाक और शर्मनाक भरी घटनाएं हमें देखने को मिल रही हैं जिनसे शायद ही कोई अंजान
हो। ऐसे में महिलाओं के साथ हो रही हिंसा के साथ ही गैर बराबरी एक अहम सवाल है। हम
कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले 100-150 सालों में महिलाओं की स्थिति में
सुधार आयेगा? अगर इसके लिए हम अपनी तरफ से कोई प्रयास ही न करें?
देश को आगे बढ़ाने में महिलाओं की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन
मौजूदा दौर में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब स्तर पर पहुंच चुकी है। महिलाओं की
सुरुक्षा की बात करें तो वह न के बराबर है। अगर हम चाहते हैं कि महिलाओं की स्थिति
में सुधार आए, उन्हें भी पुरुषों के समान ही समझा जाय, हर क्षेत्र में हर महिला के
पास अपने सपनों को अपनी इच्छा को पूरे करने के विकल्प मिले, हर महिला खुलकर अपनी
जिंदगी को अपने बल पर जी सके, उसके साथ हो रहे आर्थिक, मानसिक
और शारीरिक शोषण से उसको मुक्ति मिले सके तो उसके लिए हमें इस पूंजीवादी व्यवस्था
में आमूलचूल परिवर्तन लाने की कोशिश करनी पड़ेगी। इस व्यवस्था के होते हुए महिलाएं
कभी भी अपने आप को सुरक्षित और आजाद नहीं कर सकतीं।
नारी मुक्ति के लिए आर्थिक आज़ादी के साथ ही उसके स्वतंत्र विचार, व्यक्तित्व और उसके निर्णय भी उतने ही जरूरी हैं। नारीवाद के शत्रु पुरुष नहीं हैं बल्कि पितृसत्ता है जो आज की व्यवस्था बनाए रखना का काम करती है। यह व्यवस्था इंसान को इंसान से दूर करती है। सामाजिक अलगाव पैदा करती है, सामाजिक विचारों को कुचलती है और लोगों को गलत राह पकड़ने को मजबूर करती है। महिलाओं के प्रति घटिया व्यवहार को बढ़ावा देती है। इस व्यवस्था के होते हुए हमें उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि महिलाओ का उद्धार होगा और गैर बराबरी खत्म हो जाएगी। पुरुष हमारे शत्रु नहीं हैं बल्कि वह भी इस व्यवस्था का शिकार हैं। इसलिए हमें अपने बेहतर भविष्य के लिए पुरुषों के साथ मिलकर इस व्यवस्था को खत्म करने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। तभी एक ऐसी व्यवस्था का उद्भव हो सकेगा जिसमे सदियों से चली आ रही महिलाओं और पुरूषों के बीच की गैर बराबरी का जड़ से खात्मा होगा।
--निधि गौतम
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सुंदर प्रस्तुति
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