जब से पितृसत्ता ने समाज व्यवस्था को जकड़ा है, तब से ही गुलाम
बनी महिलाएँ कभी खुले तो कभी अप्रत्यक्ष तौर से अपना विरोध दर्ज कराती आ रही हैं।
यह विरोध कभी व्यक्तिगत तो कभी सामूहिक रहा है। सत्ता के चाटुकार इतिहासकारों ने
लगातार इस विरोध को नकारा, नजरअन्दाज किया और छुपाया है, जिसके
चलते इतिहास के पन्नों में महिला विरोध के प्रमाण ढूँढना मुश्किल है। न सिर्फ
इतिहास में, बल्कि वर्तमान में भी महिलाओं के विरोधी स्वर को दबाने की चैतरफा
कोशिश जारी है। पर यह आवाज न तब दब सकी थी, न अब दब सकेगी।
वैसे तो समाज में ढेरों असमानताएँ हैं और बराबरी के लिए संघर्ष जारी
है, पर जब बात महिलाओं के संघर्ष की आती है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि महिलाएँ कही न कहीं पुरुषों से ज्यादा संगठन भावना रखती हैं। अनौपचारिक रूप से
महिलाएँ आपसी रिश्तों में परस्पर सहयोग का प्रदर्शन रोज ही करती रही हैं। चाहे वह
पुराने जमाने में जंगल से लकड़ी या पानी लाना हो, या आज के समय
में बच्चा पालने में एक–दूसरे की मदद करना, एक–दूसरे से
ढेरों व्यंजन और नुस्खे सीखना–सिखाना। महिला समूह स्वत: ही समाज में मौजूद है। इसी
समूह की ताकत से महिलाओं ने हर कालखण्ड में अपने प्रति होने वाले भेदभाव और अन्य
सामाजिक बुराइयों से डटकर लोहा लिया है, ढेरों आन्दोलनों में भागीदारी भी की
है।
भारतीय महिला आन्दोलन के मुद्दे अलग–अलग दौर में अलग–अलग रहे हैं,
जिन्हें
इस लेख में दौर के अनुसार ही अंकित किया जा रहा है।
प्राचीन काल में महिला–संघर्ष
लगभग 600 ईसा पूर्व का ‘बौद्ध गाथा’ नामक पद्य–संकलन जो पालि भाषा में उपलब्ध
है, उसमें ‘भट्टा’ नाम की बौद्ध भिख्खुनी ने आम जिन्दगी की घुटन और आजादी
की अपनी इच्छा को इन शब्दों में व्यक्त किया है––
‘कितनी आजाद हूँ मैं! कितनी अनोखी है आजादी!
तीन तुच्छ वस्तुओं से मुक्त–
मुक्त ओखली, मूसल और अपने टेढ़े मालिक से,
पुनर्जन्म और मृत्यु से मुक्त हूँ मैं,
जिस तमाम ने दबाए रखा था मुझे,
वो सब अब दूर फिक चुका है।”
इसी तरह संगमकाल (100 ईसा पूर्व से 250
ईसा पूर्व) में तमिल भाषा में ओवइयर कुरुनटोक ने नारी पीड़ा से उपजे क्रोध को कुछ
इस तरह व्यक्त किया है–
‘इन लोगों पर हमला करूँ, इन्हें मार दूँ मैं?
मुझे मालूम नहीं,
या कोई कारण खोजकर जोर से चिल्लाकर बुलाऊँ
इस सोते शहर को
जो मेरी पीड़ा नहीं जानता
जब कि बहती हवा गोल घूमती
मुझे इधर–उधर खींचती है।’
मध्यकाल में महिला–संघर्ष
मध्यकाल में कई विख्यात महिलाएँ हुईं जिन्होंने समाज के बने–बनाये
ताने–बाने को चुनौती देते हुए एक नयी लकीर खींचने का प्रयास किया जिनमें मीराबाई,
सहजोबाई,
महादेवी
अक्का, रतनबाई, गुलबदन बेगम, चैंद्रबौती आदि कुछ प्रमुख नाम हैं।
बारहवीं सदी में महादेवी अक्का ने दक्षिण–भारत में भ्रमण करते हए,
नग्नावस्था
धारण कर, समाज की अवधारणाओं का कड़ा विरोध किया और जाति–प्रथा की तीखी आलोचना
की।
पन्द्रहवीं सदी में मीराबाई ने विवाह जैसी रूढ़िवादी सामाजिक संस्था
का विरोध किया और महलों के भोग–विलास को छोड़कर पितृसत्ता को गहरी चुनौती दी। इसी
सदी में मराठी शूद्र जनाबाई जो एक सम्पन्न घराने में दासी का काम करती थीं,
वह
बोलती हैं––
‘हाथ में मंजीरे, कंधे पे वीणा
कौन मुझे रोकने की हिम्मत कर सकता है?
साड़ी का पल्लू गिर जाता हैय
हजार बात बनाते हैं लोग,
किन्तु मैं जाऊँगी भरे बाजार में, नि:संकोच, निडर’
महिला संघर्ष का राष्ट्रवादी आन्दोलन के रूप में विकास
अट्ठारहवीं–उन्नीसवीं सदी में भारत पर जब अंग्रेजी–शासन की छाया
फैलने और गहराने लगी तब महिला संघर्ष ने नया मोड़ ले लिया। देश की आजादी की लड़ाई को
महिलाओं ने अपनी आजादी के साथ जोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में शानदार तरीके से भाग
लिया।
कित्तूर की रानी चेनम्मा ने 23 अक्टूबर 1824 को
अपने साहस और सूझबूझ से कित्तूर किले पर अंग्रेजों के आक्रमण को नाकाम कर दिया था।
आज भी दक्षिण भारत में 23 अक्टूबर को कई लोग ‘महिला दिवस’ के
रूप में मनाते हैं।
सिर्फ रानियाँ ही नहीं, आम स्त्रियों ने भी इस महासंग्राम में
कुछ कम योगदान नहीं दिया।
कानपुर की नर्तकी अजीजनबाई गुप्त समाचारों को सेनानियों तक पहुँचाने,
योद्धाओं
को हथियार पहुँचाने जैसे काम करती थीं। उन्होंने अन्य महिलाओं को प्रशिक्षण देकर
‘मस्तानी टोली’ का निर्माण किया। अन्त में अंग्रेजों ने उन्हें गोली मार दी।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मुजफ्फरनगर की ग्रामीण
महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया तो उन्हें फाँसी पर
लटकाया गया, जिनमें आशा देवी, भगवानी, हबीबा, इन्द्रकौर
आदि के नाम हमें उस समय के रिकॉर्ड में मिलते हैं।
विद्रोह की ज्वाला में अनेक महिलाओं ने अपनी आहुति दी। इनमें
ज्यादातर अनामिकाएँ थीं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अधिकतर रानी–महारानी और
नेतृत्व देनेवाली महिलाओं को ही विशेष स्थान मिला। किन्तु उनकी बहादुरी के
कारनामों के पीछे हजारों–लाखों साधारण महिलाओं की शक्ति और जुझारुपन की कहानियाँ
छिपी हैं।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में भीकाजी कामा, प्रीतिलता
वाडेकर, कल्पना दत्त, लक्ष्मी सहगल आदि ने सशस्त्र हमलों में
भाग लिया और भूमिगत कार्रवाइयों में भी सक्रिय रहीं।
दुर्गा भाभी, जो भगत सिंह, सुखदेव और
चंद्रशेखर की सहायिका रहीं, उन्होंने क्रान्तिकारियों का समर्थन
करते हुए बहुत जोखिम उठाया। 1932 में उन्होंने बम्बई के पुलिस कमिश्नर
पर गोली तक चलायी। उन्हीं की एक साथी सुशीला दीदी जिन्होंने काकोरी कांड के कैदियों
के मुकदमे के लिए अपना संजोया हुआ दस किलो सोना दे दिया। यही नहीं, सिख
लड़के का भेष धारण करके उन्होंने बम बनाना भी सीखा।
सामाजिक सुधार आन्दोलन
विद्रोहों में अपनी सहभागिता से महिलाओं ने अपनी प्रतिष्ठा जरूर बना
ली थी पर समाज और परिवार में पुरुषों के मुकाबले उन्हें दोयम दर्जा ही मिलता रहा।
धीरे–धीरे महिलाओं ने इसके लिए भी आवाज उठायी।
सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा के लिए संघर्ष किया और अपने
पति ज्योतिबा फुले और सास सगुनाबाई के साथ मिलकर 1848 में भारत के
पहले महिला विद्यालय की स्थापना की और भारत की पहली अध्यापिका बनीं।
पण्डिता रमाबाई ने भी नारी शिक्षा, बाल–विवाह,
जैसे
मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की और अपनी किताब ‘स्त्री धर्म नीति’ और ‘हाई कास्ट
हिन्दू वुमन’ के माध्यम से ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को जोरदार चुनौती दी।
वहीं 1905 में पंजाब की पार्वती देवी ने बिना पर्दे, बिना दहेज और
जाति के बाहर विवाह किया। वह अपने गाँव में कन्या पाठशाला की अध्यापिका थीं। वह
जगह–जगह सभाओं में खुलेआम पर्दा–प्रथा और छुआछूत के खिलाफ बोलती थीं। अंग्रेजों के
खिलाफ काम करने के लिए छ: बार जेल भी गयीं। उन्होंने ‘राष्ट्रीय महिला समिति’,
‘कुमारी
सभा’ और बच्चों की ‘वानर–सेना’ खड़ी की। उनकी अगुआई में महिलाएँ विदेशी वस्त्रों और
शराब की दुकानों पर धरने देतीं और जुलूस निकालतीं। उन्होंने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’
में सक्रिय भूमिका निभायी।
1917 में महिलाओं की एक मण्डली ने भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधार
लाने के लिए ‘चेम्सफोर्ड कमेटी’ के सामने कुछ माँगें रखीं। इस मण्डली में सरोजनी
नायडू और बारह अन्य महिलाएँ शामिल थीं। मण्डली ने महिलाओं के लिए शिक्षा की
सुविधाएँ, स्वास्थ्य, जच्चा की सुविधाएँ और मताधिकार की
माँगें सामने रखीं।
1920–21 में बम्बई में महिलाओं ने शराब की दुकानों पर धरने दिये। इसी दौर
में महिलाओं ने ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ की स्थापना की, जिसने महिलाओं
के हक में आवाज तो उठायी ही, हरिजनों के लिए विद्यालय भी खोले। इस
सभा ने खादी के लिए पूरी बम्बई में अभियान छेड़ा और हड़तालें आयोजित कीं।
1930–31 के नमक आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी और नेतृत्व अभूतपूर्व थे,
इसमें
लगभग 17 हजार महिलाओं को जेल–यात्रा करनी पड़ी थी।
1941 में दिल्ली में लगभग 20,000 छात्राओं ने जुलूस निकाला। अनेक
छात्राओं ने घरेलू बन्धन तोड़े और पर्दा–प्रथा का विरोध किया।
बंगाल में वामपंथी महिलाओं ने ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ का गठन किया
जो देश की रक्षा, महिलाओं की रक्षा जैसे मुद्दों पर सभाएँ, नुक्कड़ नाटक,
गाने
और जुलूसों के साथ लोगों को जागरूक करने का काम करती थी। विश्व युद्ध के समय,
बंगाल
का अकाल पड़ा तो 1943 में कलकत्ता में पाँच हजार महिलाएँ राज्य सरकर तक अपनी
खाद्य–आपूर्ति की माँग लेकर गयी थीं। भूख से बिलखते बच्चे अपने साथ चिपकाए बंकुरा
की 400 महिला किसान इसी माँग के साथ जिला अध्यक्ष के दफ्तर तक जुलूस
निकालते हुए गयीं। पूरे बंगाल में अकाल–पीड़ितों की आवाज गूँजने लगी। खाने के साथ
कपड़े का भी संकट था। इस दौरान ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ द्वारा अकाल राहत कार्य
आयोजित किया गया, जिसमें घर, कपड़ा, खाना और बीमारों
की सेवा के लिए इन्तजाम किये गये। 1944 तक इस संगठन में 43,500
सदस्याएँ हो गयी थीं।
1945 में किसान सभा के प्रोत्साहन से बंगाल के किसानों ने ‘तेभागा
आन्दोलन’ छेड़ दिया। उनकी माँग थी कि किसान को खेत में उपजी फसल का आधा हिस्सा न
मिलकर, दो–तिहाई हिस्सा मिलना चाहिए। इसमें महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। ठाकुरगाँव की कामरेड दीपेश्वरी ने पुलिस पर लाठी से हमला करके उन्हें भगा
दिया।
1946 में कोयम्बटूर कपड़ा मजदूरों की हड़ताल में महिला श्रमिकों ने जमकर
हिस्सा लिया और पुलिस की गोली तक सही। शोलापुर के कपड़ा मिलों के संघर्ष में
मीनाक्षी सोने ने नेतृत्व किया। उन्होंने बीड़ी मजदूरों के बीच भी काम किया।
समकालीन महिला आन्दोलन
1947 के बाद के दो दशक महिला आन्दोलन के लिए ठहराव का समय रहा। किन्तु
इनमें भी महिलाओं ने कई महत्वपूर्ण काम किये। देश के विभाजन के समय जब
साम्प्रदायिक हिंसा, कत्ल, बलात्कार और लूटमार का दौर चल रहा था, तब महिलाओं ने शरणार्थियों के लिए व्यवस्थाएँ जुटाने का काम किया।
1948 में तेलंगाना में वामपंथी दलों ने दलित–मजदूर वर्ग की संगठित शक्ति
को निजाम, जमींदार और साहूकारों के खिलाफ खड़ा किया। इस संघर्ष में कॉमरेड
स्वराज्यम, अखल्ला कमला देवी, सरोजिनी आदि शामिल थे। इस दौरान हजारों
महिलाओं ने सशस्त्र सैन्य बल का सामना भी किया। इस आन्दोलन में ‘महिला संघम’ की
सदस्यता चालीस हजार से ऊपर थी।
1950 के दशक में गाँधीवादी पक्ष से भूदान आन्दोलन छेड़ा गया जिसमें
‘कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल’, कुमाऊँ की संचालिका सरला, महिलाओं
को इकट्ठा कर पहाड़ी इलाकों की पदयात्रा पर निकल पड़ीं और गाँव–गाँव घूमकर लोगों को
भूदान का संदेश दिया।
आजादी के बाद महिला आन्दोलन धीमा जरूर पड़ा, पर 1970 का
दशक आते–आते यह आन्दोलन एक बार फिर नये तरह से रंग जमाने लगा।
चिपको आन्दोलन में उत्तरांचल की ग्रामीण महिलाओं ने स्वत: स्फूर्त
तरीके से जंगलों के संरक्षण के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी। पेड़ों को काटे
जाने के विरोध में महिलाएँ पेड़ों से चिपक गयीं और बोली–– “जंगल हमारी माँ है। पहले
हमें काटो, फिर पेड़ों को।”
बड़े बाँधों के निर्माण के खिलाफ भारी संघर्ष हुए। टिहरी गढ़वाल इलाके
में टिहरी बाँध परियोजना की खिलाफत के दौरान ग्रामीण जनता ने विरोध प्रदर्शन किया।
दूसरी तरफ नर्मदा पर सरदार सरोवर बाँध परियोजना के विरुद्ध भी आवाज उठने लगी। बाँध
पर काम कुछ दिन स्थगित रहता, फिर चालू हो जाता। इनमें आदिवासी
महिलाओं ने अहम भूमिका अदा की।
इसी तरह कर्नाटक का अपिक्को आन्दोलन था जिसमें महिलाओं ने अपने सामुदायिक
और पारिवारिक जीवन की रक्षा के लिए आन्दोलन किया।
इसी दशक में महिलाओं ने महँगाई–विरोधी अभियान छेड़ा। इस अभियान का
सबसे मजबूत रूप महाराष्ट्र में देखने को मिला जहाँ समाजवादी दल की मृणाल गोरे,
अहल्या
रागनेकर और अन्य नेत्रियों ने हजारों महिलाओं को इस मुद्दे पर संगठित कर दिखाया।
इसमें भारी संख्या में घरेलू महिलाओं ने भी भाग लिया। हाथ में बेलन पकड़कर महिलाओं
ने दूसरे हाथ में थाली थाम ली और थाली पीटते हुए मोर्चे पर निकल पड़ीं। कुछ इस तरह
वे सड़क पर जुलूस निकालते हुए जातीं और धरना देतीं या सम्बन्धित अधिकारी का घेराव
करतीं। गुजरात में इस आन्दोलन का नाम पड़ा–– नव निर्माण आन्दोलन।
1970 और 80 के दशक में अनेक स्वायत्त महिला संगठन स्थापित हुए, जिनमें
बम्बई की ‘फोरम अगेन्स्ट रेप’, दिल्ली की ‘सहेली’, हैदराबाद
की ‘अस्मिता’, बैंगलूर की ‘विमोचना’, तमिलनाडु की ‘पेनुरम्मा इयक्कम’,
उत्तर
प्रदेश का ‘महिला मंच’ आदि शामिल हैं। 1978 में हैदराबाद में रमीजा बी नामक महिला
के साथ पुलिसवालों ने सामूहिक बलात्कार किया और जब उसके पति ने इसके खिलाफ आवाज
उठानी चाही तो उसकी हत्या कर दी गयी। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस काण्ड को
सबके सामने उजागर किया और इस मुद्दे पर 22,000 लोगों का भारी
जुलूस निकाला गया। 1980 में मथुरा नाम की लड़की से पुलिसवालों ने पुलिस स्टेशन में ही
बलात्कार किया और महाराष्ट्र की उच्च न्यायालय ने आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर
दिया कि मथुरा के कई प्रेमी हैं, इसलिए वह एक चालू लड़की है। नारीवादी
संगठनों ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया। इस काण्ड से हजारों–लाखों महिलाएँ आन्दोलन
से जुड़ीं। देशभर में धरने और जलसे निकाले गये। इस विरोध के फलस्वरूप बलात्कार के
अन्य मामले भी अदालत पहुँचने लगे। इस संघर्ष का ही नतीजा था कि बलात्कार सम्बन्धी कानूनों
में संशोधन किये गये। इसमें मुख्य था कि यदि कोई औरत या लड़की बलात्कार का मामला
दर्ज कराती है, तो मुजरिम को अपनी सफाई पेश करनी पड़ेगी–– अपने को बेकसूर साबित करने
का बोझ उसपर होगा न कि औरत पर।
1990 के दशक में राजस्थान की भंवरी देवी नाम की सरकारी कार्यकर्ता के साथ
सामूहिक बलात्कार हुआ। इसके खिलाफ देशभर की महिलाएँ फिर से एकजुट हुर्इं।
1980 और 90 के दौरान ऐसे ढेरों संघर्ष हुए जिनमें महिलाओं ने पुरुषों के साथ
मिलकर कदम उठाए जैसे–– केरल में मछुआरों का संघर्ष, तमिलनाडु और
अन्य राज्यों में ‘निर्माण मजदूर संघ, उत्तर प्रदेश में ‘घाड़ क्षेत्र मजदूर
मोर्चा’, इन सबमें महिलाओं ने श्रमिकों की हैसियत से भागीदारी की और महिला
होने के नाते होने वाले विशिष्ट शोषण भी उजागर किये। महिला– स्वास्थ्य, घरेलू
हिंसा आदि समस्याओं को सुलझाने के प्रयास भी इसमें शामिल हैं।
इक्कीसवीं सदी में महिला आन्दोलन
वर्ष 2004 में मणिपुर में कथित तौर पर अर्धसैनिक बलों द्वारा 32
साल की मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गयी। इस घटना के विरोध
में राज्य के लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और केन्द्र के खिलाफ चर्चित ‘मदर्स
प्रोटेस्ट’ हुआ जिसमें मध्यम उम्र की घरेलू महिलाएँ शामिल थीं। उन्होंने इम्फाल
में अपने वस्त्र उतारकर नग्न प्रदर्शन किया। उनके हाथ में ‘इण्डियन आर्मी रेप अस’
(भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो!) और ‘इण्डियन आर्मी किल अस’ (भारतीय सेना हमें
मार दो) के बैनर थे। इस प्रदर्शन ने सरकार–प्रशासन के साथ पूरे देश को झकझोर कर रख
दिया। इस विरोध प्रदर्शन में 73 वर्ष की एक बुजुर्ग महिला थोकचम रमानी
भी शामिल थीं। हालाँकि मनोरमा के लिए यह मदर्स प्रोटेस्ट बहुत देर से आया पर इसने
असम राइफल्स को चार महीने बाद फोर्ट (मुख्यालय) खाली करने के लिए मजबूर कर दिया।
2012 में दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार और नृशंस हिंसा की
घटना के बाद दिल्ली ही नहीं पूरा देश एकजुट हो उठा। घटना के विरोध में लोगों का
हुजूम उमड़ पड़ा। हजारों की संख्या में स्कूल–कॉलेज की लड़कियों से लेकर हर उम्र की
महिलाएँ इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुर्इं। इस घटना के बाद कानूनों में कई बदलाव
किये गये–– जिनके अनुसार किसी महिला को गलत तरीके से छूना, उससे छेड़छाड़
करना और अन्य किसी भी तरीके से यौन शोषण करना भी रेप में शामिल कर दिया गया है। इस
घटना के बाद ही पॉस्को कानून बना।
2019 में दिल्ली के ही शाहीन बाग में महिलाओं ने हजारों की संख्या में
शांतिपूर्वक धरना दिया। यह धरना नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने और जामिया
मिलिया इस्लामिया में छात्रों के खिलाफ पुलिस के हस्तक्षेप के जवाब में शुरू हुआ
जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम महिलाएँ शामिल थीं। यह धरना मार्च 2020 तक
चला जिसे सरकार ने गिरफ्तारियाँ और बल प्रयोग कर खत्म कर दिया।
2020–2021 में हमारे देश के किसानों ने जब सरकार के कृषि विरोधी तीन काले
कानूनों के खिलाफ मोर्चा सम्भाला तो महिलाओं ने न सिर्फ इस आन्दोलन में बराबर की
भागीदारी की, बल्कि पुरुषों की ताकत बनकर, मोर्चे पर डटे घर के पुरुषों को हिम्मत
दी और उनके पीछे से घर और खेती भी सम्भाली। यह आन्दोलन महिला–पुरुष के आपसी तालमेल
का अभूतपूर्व उदाहरण बन कर उभरा।
दिल्ली में ही पिछले वर्ष महिला पहलवानों के संघर्ष ने भी महिला
आन्दोलन को एक नया आयाम दिया है।
महिला आन्दोलन की कोशिश है कि जाति, वर्ग और लिंग के
भेदभाव की जड़ को टटोलकर, उसे उखाड़ फेंकना। जाहिर है, इस
समानता के बिना महिलाओं की मुक्ति नामुमकिन है। हालाँकि अभी हम अपनी मंजिल से बहुत
दूर हैं, पर हमारी मंजिल स्पष्ट है। हर प्रकार के भेदभाव के खिलाफ, हर
प्रकार की गुलामी के खिलाफ, हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ हमारा
संघर्ष जारी है और हमारी मंजिल है सिर्फ समता पर टिका समाज!
हाँ, एक और जंग सही! पर आत्मसमर्पण नहीं।
–– अपूर्वा
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