(फिल्म ‘लापता लेडीज’ को लेकर लिखा गया मेरा यह लेख अजय ब्रह्मात्मज के सम्पादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘सिनेमाहौल इंजीन’ में छपा है। इसमें फिल्म की एक चरित्र जया ने एक सार्वजनिक चिट्ठी लिखी है।)
मैं जया––
(‘लापता लेडीज’ फिल्म की चरित्र का आत्म–वक्तव्य)
नमस्कार मित्रों,
मैं जया हूँ। निर्देशक किरण राव की फिल्म ‘लापता लेडीज’ की एक
चरित्र। आपने अगर फिल्म देखी होगी तो आपको जरूर याद होऊँगी। आखिर क्यों नहीं याद
होऊँगी? मेरे ऊपर ही तो
वो फिल्म बनी है। हाँ, कुछ–कुछ मेरी जैसी एक और चरित्र है फूल। हम दोनों ही उस फिल्म की
लापता लेडीज हैं, जिनको हिन्दी में लापता औरतें कह सकते हैं। वैसे इस मामले में हम,
यानी
मैं और फूल, अकेली नहीं है। भारत में मेरी और फूल जैसी लाखों लेडीज लापता हैं। वे
सदियों से लापता थीं और लापता रहीं। इस अर्थ में कि उनके होने या न होने को समाज
में ज्यादा तवज्जो दिया नहीं जाता। वे घूंघटों में रहती रहीं और इस तरह अदृश्य
रहीं। हिन्दी में एक शब्द है जो इस प्रक्रिया को बेहतर ढंग से कहता है। वो शब्द
है–– असूर्यपश्या। इसके दो मायने हैं और वे दोनों एक दूसरे के करीब हैं। पहला
मायना है–– जिसको सूर्य ने भी न देखा है, और दूसरा ये कि जिसने सूर्य को भी न
देखा हो। यही लापता लेडीज रहीं।
वैसे अब तो जमाना काफी बदल गया है लेकिन अपने देश में करोड़ों की
संख्या में ऐसी औरतें रही हैं जिनको पतियों ने भी शादी के बाद बरसों तक नहीं देखा
और न उन्होंने अपने पतियों को। देखा तो रात के अन्धेरे में। इसी बात को ‘लापता
लेडीज’ फिल्म में ढाबा चलाने वाली औरत मंजू माई कहती है कि औरतों के साथ लम्बे समय
से ‘फिराड’ (फ्रॉड) होता रहा है।
जमाना बदला है, लेकिन अभी हमारे देश में, खासकर
गाँवों में कई औरतें ऐसी होती हैं जो होकर भी नहीं होतीं। उनका समाज में कोई
अस्तित्व नहीं होता। वैसे, वे होती हैं। यानी उनका जन्म होता है,
शादी
होती है, वे माँ बनती हैं और फिर बाल–बच्चों की परवरिश के बाद धीरे–धीरे
बुढ़ापे और मृत्यु की तरह बढ़ती जाती हैं। लेकिन इस दौरान उनका कोई अपना वजूद नहीं
बन पाता। वे किसी के द्वारा किसी व्यक्ति के रूप में याद नहीं रखी जातीं। उनकी
सामाजिक पहचान यह होती है कि वे किसी की माँ होती है, किसी की पत्नी
तो किसी की पतोहू। वे शायद खुद अपना नाम भूल चुकी होती हैं।
हाँ, साहित्य और कला ने ऐसी महिलाओं को जगह दी है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’
की ‘धनिया’ लोगों को याद है। जैनेंद्र के उपन्यास ‘सुनीता’ की ‘सुनीता’ भी और
‘त्यागपत्र’ की ‘मृणाल’ यानी बुआ भी। टाल्सटाय की ‘अन्ना कैरेनिना’ तो विश्व
साहित्य की अमर चरित्र है।
मैं आशा करती हूँ कि मैं और फूल भी कुछ अरसे तक याद रखी जायेंगी।
‘अन्ना कैरेनिना’ की तरह लम्बे समय तक भले न याद रखी जाएँ, लेकिन कुछ समय
तक तो लोगों की स्मृति में मौजूद रहेंगी ही।
वैसे भारत में महिलाओं की औसत उम्र पुरूषों की तुलना में कम ही होती
है। ग्रामीण अंचलों में तो और भी कम है। फिर हम ज्यादा समय तक कैसे याद रखी
जायेंगी? हम भी तो
ग्रामीण महिलाएँ हैं। काल्पनिक गाँवों की ही सही पर हम ग्रामीण ही हैं। भला हो
निर्देशक किरण राव का जिन्होंने हम जैसी महिलाओं की एक जीवनी रच दी।
आप सब जानते हैं कि जीवनी एक साहित्यिक विधा भी है। उन लोगों की
जीवनियाँ लिखी जाती हैं जिन्होंने समाज में कुछ ‘किया’ हो। मगर मेरी और फूल जैसी
देश की करोड़ों महिलाएँ के ‘किये’ पर किसका ध्यान जाता है? हालाँकि ऐसी महिलाएँ जीवन भर खटती रहती
हैं। इतना खटती हैं अपना कोई निजी जीवन नहीं जी पातीं। वे अक्सर अपना स्वाद भी भूल
जाती हैं। यानी उनको एहसास भी नहीं रहता कि वे भोजन में क्या पसन्द करती हैं। वे
अच्छा खाना बनाती हैं लेकिन अपने स्वादानुसार नहीं बल्कि अपने पति, श्वसुर
या बच्चों के स्वाद के मुताबिक।
‘लापता लेडीज’ की वो चरित्र याद है आपको जिसका नाम है पूनम। न याद हो
आपको बताती हूँ। शादी होने के बाद और घूंघट में होने की वजह से जब मैं दीपक के
यहाँ पर पहुँच गयी तो उस घर में एक बड़ी बहू भी थी। उसका नाम था पूनम और उसका एक
पाँच–छह साल का बच्चा भी था। वही शर्मीली सी और मासूम दिखनेवाली औरत जो बहुत अच्छा
पोर्टेट बनाती है। हालाँकि वो भी इस बात से उदासीन हो गयी थी, वो
कलाकार है और बहुत अच्छा व्यक्तिचित्र बनाती है। अगर वो फूल का पोर्टेट नहीं बनाती
और उसके आधार पर इश्तिहार नहीं निकाला जाता तो दीपक अपनी खोई पत्नी को नहीं खोज
पाता।
लेकिन सवाल यह है उसका या उस जैसी औरत की कोई जीवनी लिखी जा सकती है? मगर किरण राव ने उसकी जीवनी पर्दे पर
लिख दी है। उसके जीवन का एक ठोस अस्तित्व बन गया।
कला, जिसमें साहित्य से लेकर फिल्में तक कई विधाएँ शामिल हैं, कई
तरह के काम करती हैं। जैसे वे उन मसलों की तरफ भी हमारा ध्यान दिलाती है जो हमारे
बीच में मौजूद तो होते हैं, किन्तु अप्रत्यक्ष हो जाते हैं। ऐसे
लोगों या चरित्रों के बारे में हमारा, या समाज के एक बड़े वर्ग का ध्यान हीं
नहीं जाता कि उनकी भी आशाएँ और आकांक्षाएँ हो सकती हैं, जो लड़कियाँ
बहुएँ हैं।
मेरे माता–पिता भी मेरे बार–बार बताने के बाद यह समझ नहीं पाये कि
मैं खेती के बारे में उच्च शिक्षा पाना चाहती हूँ। औरतों के बारे में एक आम धारणा
बनायी गयी है कि जहाँ तक खेती का मामला है वे सिर्फ वहाँ खेत मजदूर बन सकती हैं।
लेकिन वे किसान भी बन सकती हैं, कृषि के नये तरीके सीख और जान सकती हैं,
कृषि
वैज्ञानिक हो सकती हैं, यह चेतना अभी उस वर्ग में भी नयी आयी है जो नारीमुक्ति का पक्षधर या
फेमिनिस्ट है। लेकिन मैं ऐसा करना चाहती हूँ। और जब मैं ऐसा कर लूँगी तो लापता
लेडीज की श्रेणी में नहीं रहूँगी। स्टेशन पर उतरने के बाद गलत घर में नहीं जाऊँगी।
और जब फूल भी कलाकंद बनाने के अपने कौशल का लाभ लेते हुए कहीं कोई छोटा–सा ढाबा या
रेस्तरा खोल लेगी तो वो भी लापता नहीं रहेगी। उसे याद रहेगा कि उसके गाँव का नाम
सूरजमुखी है। और पूनम भी लोगों के चित्र बनाकार, कलाकार बन कर,
घर
के भीतर और बाहर अपनी हैसियत बढ़ा लेगी।
ये हसरतें और चाहतें छोटी हैं, पर औरतें लापता
न रहें इसके लिए ये सब होना जरूरी है। मानती हूँ कि आज बड़े पैमाने पर औरतें घर से
बाहर निकल कर बड़ी जिम्मेदारियाँ निभा रही हैं। पर आज भी ऐसी करोड़ों महिलाएँ हैं जो
घर से बाहर निकलते ही खो जाती हैं, क्योंकि सिर पर घूँघट रहता है तो वे न
दुनिया देख नहीं पाती हैं और न दुनिया उनको देख पाती है। तो आइए सब मिलकर कहें –
‘घूँघट के पट खोल रे’।
(श्री रवीन्द्र त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से)
x
No comments:
Post a Comment