7 जनवरी 2024 को उत्तराखण्ड में ‘समान नागरिक
संहिता बिल’ (यूसीसी) लागू किया गया है। उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य है जिसने
अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर सभी समुदायों पर शादी, तलाक, उत्तराधिकार
और लिव–इन सम्बन्ध के मामले में समान नागरिक संहिता थोपने का काम किया है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि अगर यह कानून नागरिकों के बीच समानता लाने
के लिए लागू किया गया है तो इसे केन्द्रीय सरकार द्वारा पूरे देश में क्यों नहीं
लागू किया गया?
दूसरे, उत्तराखण्ड में भी इसे अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर बाकी धर्मों और
समुदायों पर क्यों लागू किया गया?
जिस तरह अलग–अलग जाति–धर्म के लोगों के जीवन जीने के अलग–अलग
तौर–तरीके और परम्पराएँ होती हैं, उसी तरह किसी जनजाति के भी हैं। इस तरह
यह अपने–आप में समानता का बोध दिलाने में विफल है। सिर्फ एक राज्य में ऐसा कानून
लागू करना उस राज्य को बाकी देश से अलग करने की साजिश जैसी लगती है।
इस तरह का कानून लागू करने के पीछे भाजपा सरकार और आरएसएस का मुख्य
उद्देश्य है–– देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की तरफ धकेलना, ताकि बाकी
धर्मों और समुदायों की मूल्य–मान्यताओं को खत्म करके हिन्दू रीति–रिवाजों को सभी
के ऊपर थोपा जा सके। इस कानून के अन्तर्गत सबसे बड़ा बदलाव किया गया है लिव–इन
सम्बन्ध को लेकर। लिव–इन उस रिश्ते को कहा जाता है जिसमें दो बालिग प्रेमी आपसी
सहमति से शादी के बन्धन में बन्धे बिना एक–दूसरे के साथ लम्बे समय तक अपना जीवन
व्यतीत करना चाहते हैं। कई प्रेमी जोड़े इसलिए लिव–इन रिश्ते में रहते हैं ताकि वह
साथ रहकर यह तय कर सकें कि आगे चलकर वे एक–दूसरे से शादी के योग्य हैं या नहीं।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें पारम्परिक विवाह–व्यवस्था में
कोई दिलचस्पी नहीं होती, इसलिए भी वे ऐसे रिश्ते में रहना पसन्द
करते हैं। कुछ जोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें यकीन है कि उनके परिवार उनका एक–दूसरे के
साथ शादी करना बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे तो वे लोग भी परिवार से छुपकर लिव–इन
रिश्ते में रहते हैं। खासकर हमारे भारतीय समाज में विवाह दो लोगों के बीच न होकर
दो परिवारों के बीच बनने वाला सम्बन्ध होता है, जिसके चलते अकसर
लड़कियों को अपनी पसन्द–नापसन्द छोड़कर पूरे परिवार की मनमानी चाहे–अनचाहे पूरी करनी
पड़ती है। इसके चलते उन्हें अपने कैरियर तक को दाँव पर लगाना पड़ता है।
इसी सब के चलते बहुत–सी लडकियाँ ससुराल पक्ष वाले परिवार की
अपेक्षाओं के अनावश्यक बोझ से बचने के लिए लिव–इन रिश्ते का रास्ता चुन लेती हैं,
जो
अपने–आप में एक लोकतांत्रिक रास्ता है और इसके चलते किसी को भी समाज में परेशानी
नहीं होनी चाहिए।
लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के मुताबिक चार दशक पहले 1978
में बद्री प्रसाद बनाम डायरेक्टर ऑफ कंसोलिडेशन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने
पहली बार लिव–इन रिश्ते को मान्यता दी थी। यह माना गया था कि शादी करने की उम्र
वाले लोगों के बीच ऐसा रिश्ता किसी भारतीय कानून का उल्लंघन नहीं है। सुप्रीम
कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई जोड़ा लम्बे समय से साथ रह रहा है तो उस रिश्ते को शादी
के बराबर ही माना जाएगा।
लेकिन समान नागरिक संहिता (यूसीसी) बिल पारित होने के बाद से
उत्तराखण्ड में लिव–इन रिश्ते में रहने वाले जोड़े को एक महीने के अन्दर अपने
रिश्ते का रजिस्ट्रार ऑफिस में पंजीकरण करवाना अनिवार्य हो गया है, जिसे
न करने पर प्रेमी जोड़े को तीन से छ: माह की सजा हो सकती है। प्रेमियों में से कोई
भी अगर उस रिश्ते को आगे न बढ़ाकर रिश्ता खत्म करना चाहे तो भी पंजीकरण आवश्यक है
और इस प्रक्रिया के दौरान सरकारी रजिस्ट्रार अफसर द्वारा संक्षिप्त पूछताछ भी की
जाएगी। पंजीकरण होगा भी या नहीं वह भी इस पूछताछ पर निर्भर है। जिस समाज में पहले
ही प्रेमी जोड़ों के ऊपर कभी ‘लव–जिहाद’ के नाम पर तो कभी ‘एंटी–रोमियो स्क्वाड’
बनाकर या पार्क में बैठे जोड़ों पर हमला कर दिया जाता है वहाँ रजिस्ट्रार अफसर उनसे
क्या–क्या निजी सवाल पूछेंगे, यह किसी भी जोड़े के लिए परेशान करने
वाली बात है। इस तरह की सरकारी नैतिक पहरेदारी किसी भी नागरिक की निजी जिन्दगी पर
और उसके मौलिक अधिकारों पर हमला है। हमारा समाज पहले से ही अपने पसन्द की शादी या
जीवनसाथी चुनने के खिलाफ है, ऐसे में प्रेमी जोड़ों के ऊपर इस तरह का
कानून लागू करना सरासर नाइन्साफी है।
मीडिया संस्थान लाइव लॉ की माने तो लिव–इन रिश्ते की जड़ कानूनी तौर
पर संविधान के अनुच्छेद 21 में मौजूद है। अपनी मर्जी से शादी
करने या किसी के साथ लिव–इन रिश्ते में रहने की आजादी और अधिकार को अनुच्छेद 21 से
अलग नहीं माना जा सकता है।
जनसत्ता में प्रकाशित एक खबर के अनुसार 2001 में पायल शर्मा
बनाम नारी निकेतन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि दो वयस्क लोगों को साथ
रहने का अधिकार है। कोर्ट ने यह भी जोड़ा था कि हालाँकि हमारा समाज लिव–इन रिश्ते
को अनैतिक मानता है, मगर कानून के हिसाब से न तो यह गैर–कानूनी है और न ही अपराध है।
सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का बचाव (प्रोटेक्शन ऑफ वीमेन फ्रॉम
डॉमेस्टिक वायलेंस एक्ट) अधिनियम, 2005 की धारा 2 एफ में घरेलू
रिश्तों (डोमेस्टिक रिलेशनशिप) की जो परिभाषा दी है, उसमें लिव–इन
रिश्ता भी शामिल है ताकि प्रेमी जोड़ा घरेलू हिंसा के मामले में कानूनी मदद लेकर
अपना बचाव कर सके। लिव–इन रिश्ते में रहते हुए बच्चा होने पर बच्चे को वही सब
अधिकार मिलेंगे जो पहले से शादी–शुदा लोगों के बच्चों को मिलते हैं। अलग होने या
आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर महिला को जीवनयापन के लिए अपने पूर्व प्रेमी द्वारा
भत्ता भी दिया जाएगा। इस तरह से देखा जाए तो लिव–इन रिश्ता समाज को आगे बढ़ाने में
मददगार फैसला है। इसके चलते दो वयस्क लोग बिना दान–दहेज और कोई बड़ा आडम्बर किये
बगैर तथा पुरातन समाज की सड़ी–गली मूल्य–मान्यताओं को छोड़कर एक नयी तरह की दुनिया
बसाने का निर्णय लेते हैं।
एक तरफ जहाँ हमारे समाज में पत्नी को पति के ऊपर आर्थिक रूप से
आश्रित होने और घर के अवैतनिक थकाऊ, बोझिल कामों में झोंक दिया जाता है
वहीं दूसरी तरफ लिव–इन रिश्तों में रह रहे जोड़े अधिकतर आर्थिक और घरेलू अवैतनिक
कामों को लेकर एक हद तक बराबरी पर आधारित रिश्ता चलाते हैं। ऐसे रिश्ते सामाजिक
रूप से महिला–पुरुष के निजी जीवन में लोकतांत्रिक व्यवहार की स्थापना करने में
मददगार साबित होते हैं। ऐसे रिश्ते धार्मिक कुरीतियों को छोड़कर भी समाज को आगे बढ़ाने
का काम करते हैं। यूसीसी के बारे में देश–विदेश पत्रिका के अंक 45 के
सम्पादकीय का एक हिस्सा कुछ इस तरह है–– “इस कानून में तलाक, पैतृक
सम्पत्ति और उत्तराधिकार तथा बहु–विवाह के मामले में भी हिन्दू कोड बिल 1955 के
प्रावधानों को ही थोड़े हेर–फेर के साथ सभी समुदायों पर थोपने का काम किया गया है।
हिन्दू कोड बिल में कई तरह की असमानताएँ मौजूद हैं। 21वें विधि आयोग
ने सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में कई तरह के सुधारों की सिफारिश की थी, लेकिन
उसका मानना था कि समान नागरिक संहिता की अभी तत्काल कोई जरूरत नहीं है। 22वाँ
विधि आयोग अभी उन सुझावों पर विचार कर रहा है। ऐसे में बिना व्यापक विचार–विमर्श
और सलाह–सुझाव के जल्दबाजी में लाया गया यह कानून आरएसएस, भाजपा के
संकीर्ण हिन्दुत्ववादी मंसूबों और अपने चुनाव घोषणापत्र के संकल्पों को हर कीमत पर
पूरा करने का प्रयास मात्र है। मातृशक्ति के संरक्षण के नाम पर लाया गया यह कानून
बेहद महिला विरोधी है और लम्बे संघर्षों और कानूनी लड़ाइयों से हासिल किये गये उनके
अधिकारों को संकुचित कर देने वाला कानून है।”
समान नागरिक संहिता कानून पर और विस्तृत जानकारी के लिए मुक्ति के
स्वर पत्रिका के अंक 26 में प्रकाशित निबन्ध ‘साम्प्रदायिकता से प्रेरित समान नागरिक संहिता
का प्रस्ताव और जनवादी महिलाओं का दृष्टिकोण’ उत्साही और कौतूहली पाठकों को जरूर
पढ़ना चाहिए।
–– स्वाति सरिता
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