(जमीं
पर बेहाल खुदा–––)
वो
देहरादून की एक आलसी सुबह थी, जब न्यूज चैनल
चीख–चीख कर केरल में भयानक बाढ़ की खबरों को प्रसारित कर रहे
थे। पहाड़ों पर भी बारिश हो रही थी जिसकी चर्चाएँ हमारे घर के भीतर भी छन–छन कर आ रही थी। केरल में बाढ़ का जो कारण बताया गया था, उसके मुताबिक एक साथ 55 में से 35 बाँधों को खोलने का जिक्र प्रमुखता से
किया जा रहा था। नतीजतन पेरियार, पम्बा और अन्य नदियाँ उफान
पर थी। पानी नदी की सरहद लाँघकर घरों में भर गया था। अचानक याद आया कि हमारा एक
दोस्त अकसर सुन्दर पेरियार नदी से तीन तरफ से घिरे हुए अपने घर (एर्नाकुलम) आने का
हमें न्यौता देता रहता है! उसका क्या हाल होगा? न्यूज चैनल
बदला तो पता चला सबसे ज्यादा बुरे हाल एर्नाकुलम और अलापुजा जिले के ही हैं। इस
खबर के बाद अपने दोस्तों को फोन मिलाने की कोशिश करते रहे, लेकिन
किसी से भी बात न हो पायी। वहाँ हालात बहुत खराब थे। हमारी उम्मीद से कहीं ज्यादा
बदतर हालात। कहा जा रहा था कि इतनी भारी बाढ़ केरल में लगभग 100 सालों (सन 1924) के
बाद आयी थी, आज शायद ही कोई बचा हो जिसने ये हालात पहले भी
देखें हों।
मैंने
दिल्ली में अपने साथियों से पूछताछ की तो पता चला क्रिस्टी से फोन पर बात हुई है
और उसका परिवार सुरक्षित है। दिल्ली से लोगों ने उसे मदद पहुँचाने की बात की तो वह
बोलने लगा कि हम सुरक्षित हैं और पानी भी घर में नहीं भरा है,
लेकिन यहाँ हालात बेहद खराब होते जा रहे हैं। लोगों को जैसे–तैसे सुरक्षित सरकारी राहत शिविर में ले जाया जा रहा था। केरल जरूरी सामान
के लिए जूझ रहा था, जिसमें कई जिन्दगियाँ अब भी बाढ़ में जूझ
रही थी। क्रिस्टी ने तब इतना ही कहा कि अगर कुछ हो सके तो सामान भिजवा दीजिये,
जिसमें सूखा राशन और कपड़ों की जरूरत सबसे ज्यादा थी। जो लोग कैंप
में थे उनके पास कपड़ों के नाम पर वही बचा था, जिसे पहन कर वे
अपने घर से निकले थे। जगह–जगह स्कूल, कॉलेज,
चर्च, या जो भी सूखी जगह बची थी, वहाँ लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। लोग सुरक्षित तो निकल रहे थे, लेकिन बाढ़ ने उनका सब कुछ लील लिया था। हम लोग भी हर तरह की मदद करना चाह
रहे थे, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे करें? क्या करें? हमें जो सूझ रहा था वह हमने किया। हमने
मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसे भेज दिये, लेकिन दिल नहीं
माना। हम असहज थे उन टीवी रपटों से जो धीरे–धीरे आम जन की
परेशानियों से इतर राजनीतिक रंगों में रंगती जा रही थीं! मुर्दों और जिन्दगी के
लिए जूझते बचे हुए लोगों के सिर पर राजनीति तांडव करने लगी थी और ये निश्चित तौर
पर चैंकाने वाला क्षण था। कम से कम हमारे लिए तो ये पल बेशर्म राजनीति का गवाह
बनने का था।
ठीक
इसी वक्त दिल्ली में ‘नौजवान भारत सभा’
के साथियों ने फैसला किया कि हमें भी केरल की मदद के लिए आगे आना
चाहिए। मेरी पड़ोसी और दोस्त आशु वर्मा उन दिनों दिल्ली में ही थी। जब वे वापस आयीं
तो उन्होंने बताया कि वे केरल में राहत कार्य के लिए जा रही हैं और इसके लिए हमें
भी देहरादून से सामान जुटाना चाहिए। उनकी बात मुझे जम गयी और मैं तुरन्त बोल पड़ी
कि मैं भी साथ चलूँगी। हम लोग राहत सामग्री जुटाने में जुट गये। उधर दिल्ली में भी
साथी जुटे हुए थे। हमने हर उस शख्स का दरवाजा खटखटाया जहाँ से हमें कुछ भी मिल
सकता था। हमारे अलावा 4 और लोग दिल्ली से साथ जाने वाले थे, लेकिन
कौन, ये तय नहीं था।
मैं,
आशु और दो साथी अपनी कॉलोनी में मदद के लिए घर–घर जाकर केरल के हालात और अपना प्रस्ताव सामने रखने लगे। पहले हम थोड़ा डरे
हुए थे और झिझकते हुए अपनी बात रखने लगे क्योंकि दुष्प्रचार के कारण केरल के बारे
में लोगों की राय कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी, लेकिन जैसे–जैसे लोगों से बात होती लोग भाव–विभोर होकर 2013 में
आयी केदारनाथ आपदा और उत्तरकाशी में भूकंप से हुई तबाही को याद कर काँप जाते।
आपदाएँ लोगों को करीब ले आती हैं, ये मेरा पहला अनुभव था। लोग
जानते थे कि जब बाढ़ आती है तो अपने साथ सब कुछ बहा कर ले जाती है। बहुत मुश्किल
होता है जिन्दगी को पटरी पर वापस लाना। अपनों को खोने के बाद तबाही हमें इतना भी
समय नहीं देती कि हम खुद को सम्भाल सकें। प्रकृति अपने विकराल रूप में दोबारा
तैयार खड़ी नजर आती। मानों वह हिसाब माँग रही हो, जिसमें सब
एक कतार में खड़े नजर आते हैं। प्रकृति अमीर–गरीब देखकर हिसाब
नहीं माँगती वो ठोक बजाकर नुकसान का आकलन स्वार्थों को निगलकर लेती है, जो हम एक–एक इंच के लालच में उससे छीनते हैं!
लोगों
ने हमारी उम्मीद से ज्यादा बढ़–चढ़ कर मदद की
और इनसानियत के जिन्दा रहने का हमें यह कहकर एहसास दिलाते रहे कि वह मानव किस काम
का जो जरूरत के वक्त किसी के काम न आये। हमने लोगों से परिवार के हर एक सदस्य का
एक जोड़ी ठीक–ठाक कपड़ा, कुछ सूखा राशन,
मोमबत्ती और चप्पल इत्यादि माँगे और साथ में एक सेनेटरी नैपकिन भी माँगा।
धीरे–धीरे सामान जमा हो रहा था जो हमें नयी ऊर्जा से लबरेज
कर रहा था। केरल के लिए सामान बड़े–बड़े थैलों में पैक हो कर
जाने के लिए तैयार था।
हमारे
सामने नयी चुनौती ये थी कि इस सामान को जो लगभग 2–3 कुन्तल हो चुका था, दिल्ली तक कैसे ले जायें?
हमें कहा गया कि तुम्हें तो कुछ अन्दाजा ही नहीं है और दो महिलाएँ
इसे कैसे ले कर जाओगी? गाड़ी बुक करोगी तो जितने का सामान
नहीं है, उससे ज्यादा इसे ढो कर ले जाने में पैसा लग जायेगा!
सचमुच ये हमारा ऐसा पहला तजुर्बा था। हमने सारा सामान गाड़ी में लादा और बस अड्डे
के लिए निकल पड़े। अब देहरादून बस अड्डे पर जब हमने गाड़ी वाले को बताया कि ये सामान
केरल राहत कार्य के लिए जा रहा है, तो उन्होंने हमें अपने
सीनियर अफसर से मिलवाया और उन्होंने भी हमारे काम को सराहते हुए उस सामान को
दिल्ली पहुँचाने का इन्तजाम बिना पैसे लिए करवा दिया। हमारा विश्वास अब लोगों पर
और बढ़ रहा था।
हम
दिल्ली पहुँचे तो देखा वहाँ 3 अलग–अलग
घरों में राहत का सामान जमा हो गया था। मेरठ, हरियाणा,
दिल्ली और दिल्ली के आस–पास के गाँव के
साथियों ने अच्छा खासा जरूरी सामान जमा कर लिया था। हम ट्रेन से केरल जाने वाले
थे। यकीन मानिये इस पूरे 15 दिन के सफर में हमें भारतीय रेल ने बहुत ही खराब अनुभव
करवाया। हम 2 लोगों के अलावा दिल्ली से अमित, रचित, रवीन्द्र और चंडीगढ़ से साहिल जाने वाले थे। इन में से 3 लोगों से मैं
परिचित नहीं थी। हम सभी ने आपस में बात कर तय किया कि यदि किसी के घर का कीचड़ भी
साफ करना पड़े तब भी हम पीछे नहीं हटेंगे, यानी कि हम हर वो
काम करने वाले थे जिससे हम लोगों के काम आ सकें।
अगली
सुबह उठे तो बाहर बहुत तेज पानी बरस रहा था। ऐसा लग रहा था मानों आसमान से पानी की
मोटी–मोटी रस्सियाँ छोड़ दी गयी हों। हमारे साथी जब केरल मदद का सामान ट्रेन में
लादने गये तो हमें एक बेहद बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा। हमसे कहा गया अगर तुम किसी
एनजीओ से हो तो फ्री में तुम्हारा सामान केरल पहुँच जायेगा और अगर नहीं तो पैसे
देने पडं़ेगे। हमारी टीम 15–15 दिन के अन्तराल में 2 बार
केरल गयी और लगभग 25 हजार रुपये भारतीय रेल की भेंट चढ़ गये। हमारे लिए एक–एक रुपया उस वक्त बहुत कीमती था क्योंकि हम उसे किसी जरूरतमंद को देना
चाहते थे।
3
दिन का लम्बा सफर तय कर हम एर्नाकुलम जंक्शन उतरे तो हमारे सामान के 35 में से 9
बैग गायब थे। गायब सामान में सूखा राशन और कुछ जरूरी कपड़े थे,
जिन्हें खरीदने के दौरान एक साथी का पर्स जिसमें कुछ जरूरी कागजात
और तकरीबन 9000 रुपये चोरी हुए थे जो अब हमारे पास नहीं था। भारतीय रेल ने दूसरी
बार हमें परेशान किया और हमें यह आश्वासन देकर भेज दिया कि 2 दिन बाद सामान वापस
मिल जायेगा। हम रेलवे स्टेशन से 8 किलोमीटर दूर अपने दोस्त के घर रुकने वाले थे।
जब
वहाँ जाकर सामान देखा तो सब कुछ गीला था। अब पहला काम उसे सुखा कर दोबारा पैक करना
था। हमने सारे कपड़े सुखा कर पोटली बाँधी और गाँव में चलने के लिए तैयार हो गये।
ऐसे ही तो बाढ़ग्रस्त इलाके में मदद पहुँचाते हैं उत्तर भारत के लोग! यह सब देखकर
डालिया हम से कहने लगी “आप लोग मदद करने आये
हैं, कोई भीख देने नहीं”। जिन लोगों के
पास आप जा रहे हैं उन पर प्रकृति का कहर बरसा है तो क्या अब उनकी कोई इज्जत नहीं?
ऐसे कैसे किसी को तोहफा देंगे आप? उस दिन मुझे
एहसास हुआ की हर एक आदमी उतना ही जरूरी है जितना की हम खुद को और अपने करीबियों को
समझते हैं। हम तुरन्त बाजार गये और पैकिंग वाली पन्नियाँ लाकर 2–2 साड़ी पैक करने लगे सिर्फ वही था जिसका कोई नाप नहीं होता। सामान कहाँ ले
जायेंगे और कैसे उसका वितरण करेंगे इसके लिए हम पहले आस–पास
के गाँव में सर्वे करने निकले।
बाढ़
से हालत बहुत खराब थी। लेकिन अलग–अलग बहुत से
लोगों की मदद से बचाव का अच्छा काम किया गया था और 15–15
दिनों तक लोग सरकारी राहत शिविर में बिता कर वापस अपने घर लौट रहे थे। ज्यादातर
जगहों से पानी निकाल दिया गया था। घर वापस जाकर उन सबसे पहला काम सफाई करना था।
पूरे घर मंे मिट्टी भर गयी थी। सब सामान खराब हो चुका था। सारा सामान घर के बाहर
रखा था–– फ्रीज, वाशिंग मशीन, टीवी, सिलाई मशीन, गद्दे,
सोफे, बच्चों की कापी–किताबें
सब कुछ घर के बाहर था। सरकारी नौकरियों का हाल तो सभी जगह एक सा है। लेकिन यहाँ
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ फ्री होने के चलते लोगों का गुजर–बसर छोटी नौकरियों से भी अच्छी तरह हो जाता है। ज्यादातर लोग स्वरोजगार
में लगे हैं खुद का ही छोटा–मोटा काम करके जिन्दगी गुजारते
हैं। लेकिन आपदा के बाद इनसे वे रोजगार भी छूट गये। आज केरल के बहुत से लोगों के
पास कोई रोजगार नहीं है लेकिन काम बहुत है। बच्चों को फिर से पढ़ाने–लिखाने का काम, अपना घर फिर से व्यवस्थित करने का
काम, अपनी मुसीबतों से लड़ने का काम और सबसे जरूरी, हर रोज का चूल्हा फूँकने का काम। हमारे साथियों ने जो अलग–अलग जगह से मदद जुटायी थी उससे एर्नाकुलम जिले के 2 गाँव मुट्टीनक्कम और
वारपुडा के 65 परिवारों को राशन, कपड़ा, चप्पल, बर्तन आदि समान के साथ 4 परिवारों की आर्थिक
मदद भी की गयी। इन परिवारों के अलावा जो लोग किसी कारणवश राहत सामग्री नहीं ले
पाये उनके लिए पंचायत भवन में सामान रखवा दिया गया था।
बाबू
से हमारी मुलाकात तब हुई जब हम एर्नाकुलम जिले के एक गाँव मुटनक्कम में बाढ़
प्रभावित परिवारों से मिलने गये थे। बाबू एक मछुवारा है। बाबू का जन्म उसी घर में
हुआ है (50 साल उम्र)। बाबू की पत्नी 18 साल पहले उस घर में शादी कर के आयी थी। अब
उनकी 2 बेटियाँ हैं, बड़ी बेटी
पॉलीटेकनिक कर रही है और छोटी वाली 12 वीं में पढ़ती है। बड़ी बेटी को वॉयलिन बजाना
अच्छा लगता है। हमने भी उसका वायलिन देखा मगर टूटा हुआ, वह
घर के बाकी गंदे सामानों में पड़ा हुआ था। एक कोने में सिमटा हुआ, जैसे सदियों से इसे बजाने वाला कोई भी यहाँ नहीं था। बाबू के घर के बाहर
सुन्दर नदी पेरियार बहती है और यकीनन हर सुबह पेरियार को देखना दिन की अच्छी
शुरुआत होगी। बाबू की जमा पूँजी एक घर, एक मछली पकड़ने का
चाइनीज नेट और एक बोट ही था। लेकिन इस सुन्दर नदी में पानी बढ़ने के चलते बाबू का
सब कुछ खत्म हो गया था। घर उजड़ गया था, अब वह अपनी पत्नी के
साथ अपने ससुराल में रहता है जो वहाँ से 10 किलोमीटर दूर है। बच्चियाँ किसी और
रिश्तेदार के घर रहती हैं। इन दिनों स्कूल–कॉलेज जाना नहीं
हो पाता। पति–पत्नी दोनों हर रोज यहाँ आकर अपने घर में बैठते
हैं। हर रोज आँखों के आगे अंधेरा छा जाता होगा। लेकिन जहाँ इतनी तबाही हुई है,
वहीं उसी आँगन में तब भी एक गुड़हल का फूल खिला हुआ है। फूल एक नयी
उम्मीद और प्यार का स्मारक है। शायद यही इस परिवार को हर रोज जीने की और उम्मीद न
छोड़ने की प्रेरणा देता होगा। हम लोगों ने जो भी मदद जुटायी थी उसमें से बाबू के
परिवार को कुछ कपड़े, बर्तन, घर का
सामान, राशन और थोड़ी आर्थिक मदद भी की गयी। लेकिन एक घर को
वापस बनाने में अभी न जाने कितना समय लग जाने वाला है।
अगली
मुलाकात एक रिटायर्ड इंजीनियर से हुई। पूरी उम्र बिहार में नौकरी करने के बाद 2
महीना पहले ये वापस अपने खूबसूरत केरल में लौट आये थे। लेकिन इनकी प्यारी पेरियार
में पानी बढ़ने के कारण गाँव में बहुत दिक्कतें आ गयीं। इनके घर में भी पानी घुस
गया था। चूँकि इनकी आर्थिक स्थिति ठीक थी तो घर की सफाई करने और सारा जरूरी सामान
जुटाने में इन्होंने ज्यादा समय या मदद का इन्तजार नहीं किया। लेकिन इनकी
परेशानियाँ कुछ और ही तरह की थीं। इन्हें एंटीक सामान जमा करने का शौक है। इन्हें
देश भर में घूमने का शौक है और जहाँ जाते हैं वहाँ से कुछ न कुछ उम्दा चीजंे खरीद
लाते हैं। इन्हें किताबें पढ़ने का शौक है और घर पर काफी किताबंे भी इन्होंने रखी
थी। इस भयानक बाढ़ के चलते इनके सारे शौक खत्म हो गये। हमारा एक फोटो फ्रेम भी
गिरकर टूट जाये तो बहुत दुख होता है। किसी को भी होता होगा। इनके एंटीक सामान खराब
हो गये थे। इनकी सारी किताबंे नष्ट हो गयी थीं और एक अलमारी की किताबें फूल कर और
मिट्टी फसने के कारण वहीं मजबूती से जम गयी थीं। जाहिर है कि ये सब जमीन पर तो
नहीं बिखरा होगा। घर की किसी ऊँची दीवार में ही लगाया होगा। इससे हम पानी के बढ़ने
के स्तर का अन्दाजा अच्छी तरह लगा सकते हैं। पर वे आदमी बहुत खुशमिजाज थे। उन्हें
चीजों से ज्यादा लोगों से प्यार था। उन्हें अपने से ज्यादा दूसरों के गमांे और
आँसुआंे से सरोकार था। हमें अपने गाँव में देखकर वे बहुत खुश हुए और उनके गाँव में
मदद पहुँचाने के लिए शुक्रिया भी अदा किया। हम गाँव से अपना काम खत्म कर वापस
एर्नाकुलम आ गये।
‘बाढ़’। जबसे मैं केरल आयी थी, ये
शब्द मेरे दिमाग से निकल नहीं रहा था। सैलाब आया और सब बहा के ले गया। हमंे लगता
है, इतनी बाढ़! लेकिन बाढ़ वह तो लोगों की हँसती–खेलती जिन्दगी तबाह कर जाती है, जो लोगों को यह
सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि जिन्दगी भर की मेहनत उनकी आँखों के सामने खत्म
हो गयी। केरल जाने से पहले मेरे बहुत से दोस्तांे ने मुझे सलाह दी कि मैं केरल न
जाऊँ। इसके कई कारण बताये गये थे। पहला यह कि अब पानी निकल गया है, जाकर क्या करूँगी? वे लोग दूसरे धर्म के हैं,
उनका खान–पान अलग है, उनकी
बोलचाल अलग है, वे बीफ खाते हैं, वे
खुद को श्रीलंका का मानते हैं, वहाँ दंगे होते हैं, और भी न जाने क्या–क्या। लेकिन तबाही जब आती है तो
धर्म, जाति, भाषा देख कर नहीं आती। वह
ये देखकर नहीं आती कि तुम किस को वोट देते हो। बाढ़ नहीं जानती कि तुम्हारा पेशा
क्या है? तुम क्या खाते हो और सबसे अहम यह कि तुम किस की
पूजा करते हो।
मैंने
लोगों के दुख को महसूस किया है और उनके साथ–साथ
उनके भगवान का दुख भी महसूस किया है जो एक कोने में गंदे सामान के साथ जमीन में
कहीं पड़ा था। बाढ़ उनके घर में भी उतनी ही आयी जो भविष्य देखने का दावा बताने का
दावा करते हैं। अगर वे सचमुच में देख सकते तो जरूर लोगों को पहले ही अपनी जगह छोड़
देने को कह देते। इतनी मानवता तो जरूर होगी न! तब शायद इतनी तबाही न होती। अगर
तबाही भेदभाव नहीं जानती तो हम मदद करते समय धर्म, जाति
क्यों देखते हैं। कहते हैं कि दर्द और खुशीे की कोई बोली–भाषा
नहीं होती, उसे महसूस किया जाता है दिल से, हमने बहुत कुछ महसूस किया उन मलयाली लोगों के बीच 15 दिन बिता कर।
एक
हफ्ते बाद एर्नाकुलम से अपनी सारी बाढ़ राहत सामग्री तीन गाँव में वितरित कर हमारी
6 सदस्यों की टीम अलापुजा जिले का दौरा करने निकली। चंगनूर बस अड्डे पर पता करने
में मालूम हुआ कि 5 किलोमीटर दूर पांडनाड गाँव में पम्बा नदी का पानी बढ़ने से बाढ़
ने भयानक आतंक मचाया है। हम जब उस गाँव में पहुँचे तो पता चला वे लोग 9 दिन बिता
कर दो दिन पहले ही राहत शिविर से वापस आये थे। वहाँ उस समय भी खेतों में पानी जमा
हुआ था। घरों की सफाई का काम चालू था। पीने के पानी का जरिया आज भी उस गाँव में
कुएँ ही थे जो बाढ़ से पूरी तरह खराब हो चुके थे। अब उनके पास पीने का पानी भी नहीं
था। घर पर बर्तन नहीं थे। इसलिए खुद खाना भी नहीं बना सकते थे। महिलाओं के पास
राहत शिविर से मिली 2 मैक्सी और आदमियों के पास एक लुंगी थी। कुछ बच्चों के शरीर
पर कपड़ा नहीं था। पूछने पर पता चला कि जो भी कपड़ा था गीला हो गया है।
वहीं
मेरी मुलाकात मोमिना से हुई। मोमिना ने बताया कि बाढ़ आने से पहले पूरी रात वे लोग
जाग कर इन्तजार करते रहे कि कब कहाँ से पानी बढ़ेगा। उस रात गाँव में कोई नहीं सोया
और आधी रात मेज के ऊपर बिताने के बाद वे सब गाँव के किसी ऊँचे घर में जाकर जमा हो
गये। 2 दिन केले खाकर बिताये और तीसरे दिन बोट उन्हें लेने आयी। उस गाँव में पेड़
ज्यादा होने के चलते बोट बड़ी मुश्किल से दाखिल हुई थी। उनकी बातें सुनकर हमने मदद
पहुँचाने का फैसला किया। 4 घण्टे का सफर तय कर हम वापस आ गये और सामान जुटाने लगे।
सूचना मिली कि हमारा जो सामान गायब हुआ था (करीब 3 कुंतल) उसे एर्नाकुलम से 220
किलोमीटर दूर त्रिवेंद्रम में उतारा गया। हर रोज हम उसे वापस लेने रेलवे स्टेशन का
चक्कर काटते रहे और अन्तत% त्रिवेंद्रम जाकर वापस लाने का फैसला किया। लेकिन वहाँ
से यह कहकर वापस भेज दिया गया कि सामान 4 दिन पहले ही एर्नाकुलम रवाना कर दिया गया
है। यह हमारा नौवाँ दिन था जब खुदा की जमीन पर आफत पसरी हुई थी। वापस एर्नाकुलम
आने पर हमसे कहा गया कि सामान कोई और ले गया। कैसे! यह भारतीय रेलवे की विश्वसनीयता
पर भी सावल खड़े करता है।
अब
हमारे पास सिर्फ सामान बुक करने की पर्ची बाकी रह गयी थी। जितने पैसे थे उसका राशन,
बच्चांे के कपड़े और सेनेटरी नैपकिन खरीदकर हम पांडनाड पहुँचे तो
मोमिना मुझे पहचान गयी। मोमिना को हम में दोस्त नजर आये, एक
उम्मीद नजर आयी। वहाँ सबसे ज्यादा मजेदार चीज जो मुझे लगी वह थी महिलाओं का धैर्य
और समझदारी से काम करना। जब हमने उन्हें बताया की हमारे पास सिर्फ 60 परिवारों के
लिए ही राशन है तो उन्होंने एक सूची तैयार की जिसमें सबसे ज्यादा जरूरतमंद 60
लोगों का नाम था। मैं अपनी दोस्ती का फर्ज अदा कर आयी। पांडनाड में 60 परिवारों को
मदद पहुँचा दी गयी। एक हफ्ते बाद भी हालत उतनी ही खराब थी। सफाई का काम चालू था।
केले और धान की सारी फसल खराब हो चुकी थी। लोग अभी समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें
आगे क्या करना है। उन्हें सम्भलने के लिए और वक्त चाहिए था।
केरल
मुझे बेहद खूबसूरत नजर आया। केरल का मूल नाम ‘केरलम’
है यानी ‘नारियल की भूमि’। जगह–जगह सुन्दर नारियल के पेड़, नदियाँ, बैकवाटर्स, पहाड़,
झरने, समन्दर सबकुछ यहाँ है। शायद तभी इसे ‘गॉड्स ओन कंट्री’ कहा गया होगा। लेकिन इन सब में
मेरा सबसे प्रिय नजारा पेरियार में डूबता सूरज देखना था। यहाँ के लोग निश्छल हैं,
वे धोखा देना नहीं जानते। केरल आकर मुझे पता लगा कि उत्तर भारत से
यहाँ क्या कुछ अलग है। एक जो सबसे अच्छी चीज मुझे लगी वह है कचरा फेंकने का तरीका।
डालिया ने बताया कि वहाँ हफ्ते में 3 दिन कचरा उठाने वाली गाड़ी आती है जिसमें 2
दिन गीला और एक दिन सूखा कचरा उठाने का दिन होता है और अगर गीला–सूखा कचरा मिला दिया जाये तो म्यूनिसपैलटी उसे लेकर नहीं जाती। मैं सोच
रही थी कि कैसे एक ही देश में अलग–अलग लोग और अलग जीवन शैली
है। हमारे इलाके में तो लोग सारा कचरा गाड़ी में डाल देते हैं और कुछ लोग तो खुले
में ही सारा कचरा जला कर रफा–दफा कर देते हैं। हमारे नेता भी
केरल जरूर आये होंगे। उन्हें केरल से सीखना चाहिए।
अब
मैं वापस अपने पहाड़ जा रही थी समन्दर से दूर, बहुत
दूर मेरा घर है। लेकिन अब वहाँ भी मेरा घर है। परिवार वहाँ भी हंै। वहाँ के लोगों
से सादगी, इनसानियत और ढेर सारा प्यार लेकर जा रही थी। लेकिन
यह अन्त नहीं था। केरल अभी भी बहुत कमजोर है। नौजवान भारत सभा की एक और टीम जल्द
ही रवाना होने वाली थी।
अगला
दौरा,
10 दिन बाद पाँच सदस्यों की टीम रवाना हुई। साथियों ने बताया सबसे पहले वो पुण्यपुरा गाँव में राहत सामग्री
लेकर गये। यहाँ के चर्च के फादर ने उनसे यहाँ के लोगों की मदद हेतु अपील की थी।
दूसरे गाँव एङत्वा में तीन जगहों पर राहत सामग्री पहुँचायी गयी। यह क्षेत्र केरल
के खाद्य उत्पादन के मामले में सबसे आगे है। जिस जमीन से कल तक सोना पैदा होता था,
उसी जमीन में तब 2–3 फीट तक पानी भरा हुआ था।
दूर–दूर तक जहाँ कभी हरे–भरे खेत
लहलहाते थे वे समन्दर का रूप ले चुके थे। वहाँ पर तब तक कोई खास राहत सामग्री नहीं
पहुँची थी। जब वे लोग उस जगह पहुँचे तो स्थानीय लोगों ने चारों तरफ से घेर लिया और
हाथों में कुछ राहत सामग्री पहुँची तब जाकर उनके चेहरे खिले। हमारी राहत सामग्री
बिल्कुल ठीक जगह पर पहुँची थी। अगला पड़ाव था भारत का वेनिस। यह जगह इतनी सुन्दर है
जिसे देखते–देखते आँखें नहीं थकतीं। यहाँ का प्राकृतिक
सौंदर्य जितना सुन्दर है उससे कहीं ज्यादा लोगों की जिन्दगी तबाह हुई थी। लोगों के
पास कुछ भी नहीं बचा था। सरकार ने भी उनकी कुछ खास मदद नहीं की। लगभग 300 परिवारों
को चावल, दाल, चीनी, चना, कपड़े और कुछ जूते–चप्पल
दिये गये। अलापुजा जिले के काइनगरी में हमारी टीम ने 275 परिवारों में राहत
सामग्री पहुँचायी। यहाँ हमारे काम की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि परिवार के 1 महीने
से लेकर 90 साल तक के सदस्यों को कपड़े, राशन, चादर और दरी, बच्चों के लिए बिस्कुट/नमकीन आदि चीजें
वितरित की गयीं। वे कहते हैं, “यहाँ पर लोगों का हमारे साथ
तालमेल और उनका धैर्य वाकई काबिले तारीफ था”। गाँव के सभी
लोग 2 से 7 बजे तक शांतिपूर्वक अपनी बारी आने तक खड़े रहे। यहाँ की वितरण व्यवस्था
बेहतर होने का सबसे प्रमुख कारण स्थानीय लोगों का सहयोग था। पहले दिन एङत्वा के
तीन गाँव में 200 परिवारों में राहत सामग्री पहुँचायी गयी। इस तरह 475 परिवारों
में साथी राहत सामग्री पहुँचा कर दिल्ली लौट आये।
एक
साथी से जब पूछा कि केरल में क्या महसूस हुआ तो उनके शब्दों में,
“जो लोग केरल के लोगों के बारे में यह अफवाह फैला रहे थे कि उन्हें
यूपी, हरियाणा आदि से किसी भी प्रकार की मदद नहीं चाहिए। वे
इनसानियत के दुश्मन, कूपमण्डूक, क्षेत्रवादी
मानसिकता के लोग हैं। वे एक खास संकीर्ण सोच और घृणा के प्रचारक ही हो सकते हैं जो
अपने ही देश के मुसीबत में फँसे लोगों के बारे में उलटी–सीधी
बातें फैलाते हैं। यह बात मैं इसलिए कह रही हूँ कि हमारे कानों तक भी ऐसी खबरें आ
रही थीं पर इस बात का कोई सबूत वहाँ नहीं मिला। न ही हमने ऐसी खबरें किसी अखबार
में पढ़ी और न ही किसी न्यूज चैनल से सुनी थी। फिर हमने और हमारे साथियों ने सोचा
कि इस वास्तविकता का पता लगाया जाय। जब हम लोग केरल के लोगों से मिले तो सारी
अफवाहें बिल्कुल झूठी निकलीं। हमें बिल्कुल भी एहसास नहीं हुआ कि हम अपने परिवार
और अपने लोगों से अलग हैं। लोगों ने हमारा और लोगों द्वारा दी गयी राहत सामग्री का
सच्चे दिल से स्वागत किया। उन लोगों ने हमारा अपने परिवार की तरह ध्यान रखा जिसकी
हमने कल्पना भी नहीं की थी”।
...और अन्त में उन सभी लोगों का धन्यवाद जिन्होंने आगे आकर हमें किसी भी
प्रकार से सहयोग किया। उनकी मदद के बिना यह काम सम्भव नहीं था। यह किसी एक या दो
लोगों के काम की कहानी नहीं है। यह एक टीम की कहानी है जो देश के अलग–अलग कोने में रहकर बिना भारत माता की जय और अपनी देशभक्ति का शोर किये
चुपचान अपना काम करते हैं और समय आने पर देशवाशियों के काम आते हैं।
(सितम्बर
2018)
–– शालिनी
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
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