शाम को जब शहाना अपने काम से घर वापस आयी तो उसने देखा कि अब्बा बहुत
गहरी सोच में बैठे हुए हैं। इतनी गहरी सोच में कि उन्हें उसके आने की आहट तक न
हुई। उसने अपनी सोयी हुई बेटी को धीरे–से प्यार किया और पानी पीने चली गयी। फिर
उसने अब्बा से पूछा, “अब्बा, खाने में आज क्या बनाऊँ?”
अब्बा अभी तक किसी चिन्ता में खोये बैठे हुए थे। शहाना ने धीरे से
अब्बा के कंधे पर हाथ रखा तो अब्बा ऐसे चैंक पड़े जैसे अभी नींद से जागे हों।
“तू कब आयी?”
अब्बा
ने पूछा।
“अभी कुछ देर पहले” शहाना ने जवाब दिया।
“तू मुझसे कुछ कह रही थी बिटिया?”
“हाँ, मैं तो खाने के लिए पूछ रही थी कि आज खाने में क्या बनाऊँ, पर
आप न जाने कौन–सी चिन्ता में डूबे हुए हैं कि मेरी बात ही नहीं सुनते!”
“चिन्ता तो सता रही है बिटिया, दो महीने से घर
का किराया नहीं दिया, आज चैधरी फिर किराया माँगने आया था...”
बात को बीच में ही काटते हुए वह बोल पड़ी “उफ्फ, कहने
को तो यह मकान मस्जिद के नाम है, मगर एक महीने का किराया चढ़ जाए तो इसकी
देख–रेख करने वाले खाते–पीते लोगों को सब्र नहीं होता।”
“हाँ..., कह रहा था, मस्जिद में कुछ मरम्मत करानी है। अब
बताओ तो जरा, इतनी आलीशान मस्जिद बनी हुई है भला उसमें किस बात की कमी है? अभी तो कोई कमी नजर नहीं आती। फिर भी
इन लोगों को उसमें मरम्मत कराने की पड़ी रहती है। हमारे टॉयलेट पर किवाड़ नहीं लगवा
रहे हैं। हमें पर्दे से काम चलाना पड़ रहा है। लेकिन इन लोगों को वह कमी, कमी
नहीं लगती और महीना पूरा होते ही किराया चाहिए। चैधरी साहब कह कर गये हैं... अगर इस
महीने किराया नहीं दिया तो यह घर खाली कर देना। मेरा तो दिमाग खराब हो रहा है।... तेरा जो मन है तू बना ले।”
शहाना भी विचारों में डूबी हुई चूल्हे की तरफ बढ़ी और चूल्हे पर दाल
चढ़ाकर अपनी सोयी हुई बच्ची के पास जाकर लेट गयी। वह सोच रही थी कि इस मकान में 10
कमरे हैं। किसी भी कमरे की फर्श पक्की नहीं है, कच्ची ही जमीन
है। इसमें रहने वाले किसी भी किराएदार को किचन नसीब नहीं है। सभी को अपने आँगन में
ही खाना बनाना पड़ता है। टॉयलेट–बाथरूम पर किवाड़ नहीं है, पर्दा डाला हुआ
है। किसी दिन बहुत तेज हवा चलती है तो नहाना या टॉयलेट में जाना बहुत मुश्किल हो
जाता है। जो लोग इसका किराया लेने आते हैं उनको यह कमियाँ दिखायी ही नहीं देतीं!
यह सब सोचते–सोचते वह अपने अतीत में खो गयी। उसको वे सारी चोटें याद आ गयीं जो
उसने अपने बचपन से लेकर शादीशुदा जिन्दगी तक खायी थीं।
शहाना बचपन से ही अपने अम्मा, अब्बा और
बहन–भाइयों के साथ इसी घर में रही थी। अब्बा रिक्शा चलाते थे। दो भाई और चार बहनों
में वह सबसे छोटी थी। चार बहनें होने की वजह से अब्बा को हमेशा यह चिन्ता सताती
रहती थी कि खाने को तो है नहीं, बेटियों की शादी के लिए दहेज का
इन्तजाम कैसे होगा। दहेज नहीं दिया तो कौन करेगा उनकी बेटियों से शादी। दूसरे लोग
तो इतना दहेज दे रहे हैं फिर भी ससुराल वाले उनकी बेटियों को ताना देते रहते हैं।
उन्हें तो मकान का किराया जुटाने के लिए ही हाड़–तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। दहेज कैसे
इकट्ठा करूँगा। इन्हीं चिन्ताओं ने अब्बा को वक्त से पहले बूढ़ा कर दिया था।
बड़ी बहन की उम्र भी शादी के लायक हो रही थी, लेकिन उनकी
आर्थिक स्थिति देखकर कोई उनके यहाँ रिश्ता करने को तैयार नहीं था। एक दिन बड़ी बहन
का रिश्ता आया भी तो दो बच्चों के बाप से। अब्बा ने पहले तो मना किया, लेकिन
अपनी स्थिति को देखते हुए शादी कर दी। कुँवारी बच्ची दो बच्चों के बाप से ब्याह दी,
यह
सोच–सोच कर एक दिन अब्बा को दिल का दौरा पड़ गया। इलाज भी मोहल्ले वालों ने चन्दा
करके कराया। इधर अम्मा भी इसी चिन्ता में घुट रही थी कि बाकी तीन बेटियों की शादी
कैसे होगी? क्या
उन्हें भी ऐसे ही बेमेल या कुछ कमी वाले लड़कों के साथ ब्याहना पड़ेगा!
उनके घर की यह हालत देखकर दोनों फुफ्फों ने बहुत सादे तरीके से बिना
दहेज के दो बेटियों से अपने बेटों की शादी कर दी। पूरा परिवार अब थोड़ी सुकून की
साँस ले रहा था। लेकिन वे भूल गये थे कि अब्बा की बहनें भी तो इसी समाज का हिस्सा
हैं। कुछ दिनों तक दोनों बहने अपने ससुराल में खुश रहीं, लेकिन कुछ दिनों
बाद फुफ्फों ने भी सास बनकर ताना देना शुरू कर दिया। वह कहती कि अगर वह अपने बेटों
की शादी किसी दूसरे घर में करतीं तो उनको खूब दहेज मिलता। यह सुनकर भी बहुएँ कोई
जवाब न देती थीं, क्योंकि तानों और दिन भर गुलामों की तरह काम करके उनको दो वक्त का
खाना मिल जाया करता था। अपने घर आतीं तो शायद अब्बा उनको इतना भी न खिला पाते।
आस–पड़ोस के लोगों के ताने भी अब्बा को मार डालते। जैसे–तैसे दोनों बहनें अपनी
ससुराल में अपनी जिन्दगी गुजार रही थीं।
कुछ साल बीतने के बाद शहाना का भी रिश्ता आया। वह अभी केवल पन्द्रह
साल की थी। लड़के वालों की आर्थिक स्थिति इनसे कुछ ठीक थी। लड़के में भी कुछ कमी
नहीं थी। उनका कहना था कि वह किसी अपने जैसे घर में ही रिश्ता करना चाहते हैं।
उनको लड़की वालों से कुछ नहीं चाहिए, सिवा लड़की के। अब्बा ने पन्द्रह दिन के
अन्दर ही उसकी शादी कर दी।
लेकिन ससुराल वालों ने बहू के रूप में उसे एक गुलाम बना कर रखा। वह
ठीक है या नहीं, किसी को परवाह नहीं होती थी। उन्हें केवल घर का काम कराना था। यहाँ
तक कि उसके शौहर को भी उसकी कोई परवाह नहीं थी। उसे भी केवल उसके साथ सोने से मतलब
था। शादी के कुछ दिन बाद वह गर्भवती हुई। उसकी सास यह सोचकर खुश थी कि उसके आँगन
में अब उसका पोता खेलेगा। पोती भी आँगन में खेल सकती है यह किसी ने नहीं सोचा,
क्योंकि
पोती तो किसी को चाहिए ही नहीं थी।
शहाना तो माँ बनने वाली थी, उसे बेटा या बेटी से कोई मतलब नहीं था।
वह अपने होने वाले बच्चे के बारे में सोचकर खुश थी। नौ महीने पूरे हुए और डिलीवरी
का समय आ पहुँचा। सब की आँखें बेसब्री से डॉक्टर को ढूँढ रही थीं कि कब डॉक्टर आकर
बोले कि पोता आया है। आखिर कुछ घंटे इन्तेजार करने के बाद नर्स ने आकर बताया कि
बेटी हुई है। बेटी को गोद में लेकर बहुत खुश हुई थी शहाना, लेकिन उसे कहाँ
पता था कि उसकी बेटी को ये लोग बोझ समझेंगे।
“बेटी हुई है,” सुनकर कोई भी उसके पास बेटी को देखने
तक नहीं आया। उसने कुछ खाया है या नहीं या वो कैसी है, यह किसी ने नहीं
पूछा। यहाँ तक कि बेटी का बाप भी उसके पास नहीं आया, न ही शहाना का
हाल–चाल पूछा। सासू माँ ने अपने बेटे से बोल दिया कि फेंक आ दोनों को उसके मायके,
बेटे
ने वैसा ही किया। अस्पताल से जल्द से जल्द छुट्टी करा कर शहाना और उसकी बेटी को
उसके मायके छोड़ आया।
अब्बा बूढ़े होने के कारण अब पहले से कम कमाते थे। भाइयों की शादियाँ
हो चुकी थीं। भाई अलग मकान में रहते थे। अब अम्मा और अब्बा जैसे–तैसे अपना गुजारा
कर रहे थे। अब्बा उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। दामाद के सर पर हाथ फेरा, उसकी
बच्ची को प्यार किया और शहाना को गले लगाया, लेकिन जैसे ही
उनका दामाद अनवर उसे छोड़कर जाने लगा, अब्बा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक
गयी। खुद खाने को तो है नहीं, जच्चे–बच्चे को कैसे खिलाएँगे। शाम को
शहाना ने अब्बा को सारी बात बतायी तो अब्बा फूट–फूट कर रोने लगे। उस रात अम्मा,
अब्बा
और शहाना, तीनों में से कोई नहीं सोया।
अब्बा कर्ज लेकर उसकी दवाई और खाने–पीने का इन्तजाम कर रहे थे।
दो महीने बीत गये। एक दिन अनवर घर आया और शहाना से घर चलने को बोला।
वह और उसकी अम्मी बहुत खुश हुए। अब्बा उस वक्त रिक्शा चलाने गये हुए थे। शाम को
अब्बा वापस आये तो अनवर को देखकर खुश हुए। अनवर उसे अपने साथ घर ले आया। उसे लगा
कि शायद दादी का मन बदल गया है इसलिए पोती को घर बुला लिया। शायद सासू माँ की
नाराजगी खत्म हो चुकी हो, लेकिन वह गलत थी। उसे केवल एक नौकरानी
की हैसियत से घर बुलाया गया था।
वह अपनी छोटी सी बच्ची को चारपाई पर लिटाकर पूरा दिन घर के काम करती,
बच्ची
भूख से घंटों रोती–बिलखती रहती। अगर वह बच्ची के पास जाने की कोशिश करती तो पास
में ही चारपाई पर बैठी सास चिल्लाकर कहती, “रोने दे,
तू
अपना काम कर, रोने से यह मर नहीं जाएगी।”
बच्ची की तबीयत शुरू से ही ठीक नहीं रहती थी और ठीक से देखभाल न होने
के चलते वह सूखती ही जा रही थी। अभी बच्ची चार महीने की ही हुई थी कि शहाना फिर से
गर्भवती हो गयी। अपनी बच्ची की बिगड़ी हुई सेहत देखकर उसने अनवर से अबॉर्शन की बात
की। इतना सुनते ही अनवर उस पर भड़क कर बोला, “तेरा दिमाग खराब
है क्या? अगर यह बेटा हुआ
तो... यह बेटा ही होगा। कोई जरूरत नहीं है दवाई खाने की।”
उस दिन उसे एहसास हुआ कि औरतों को अपनी मर्जी से चलना तो दूर,
उसको
जाहिर करने का भी हक नहीं होता। वह कर भी क्या सकती थी? बच्चा पलने दिया पेट में। वह पेट से है
यह बात सुनकर सासू माँ भी अब थोड़ा सीधे मुँह बात करने लगी। घर का माहौल उसके लिए
कुछ ठीक हुआ। यह अच्छे दिन भी उसकी किस्मत में कहाँ थे! नौ महीने बीते और दूसरी
बार भी बेटी हुई। एक तरफ शहाना बेटी को लेकर खुश थी, तो दूसरी तरफ
अब्बा के घर फेंके जाने का डर उसकी रूह कँपा रहा था।
“बच्ची में खून की कमी है” डॉक्टर ने बताया, पर इससे किसी को
कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि सबको लड़का चाहिए था। पेट में पलने वाला बच्चा लड़की है यह
अनवर को पहले पता होता तो दोनों को उसी दिन मार डालता जिस दिन शहाना ने उसको अपने
गर्भवती होने की खबर दी थी।
इस बार भी अनवर उसे दोनों बेटियों के साथ मायके छोड़ आया। उस दिन
अब्बा के घर में जैसे मातम छा गया। पहले वाला कर्ज न चुका पाने की वजह से इस बार
उधार मिलना भी मुश्किल था। अब्बा जैसे–तैसे शहाना और उसकी बच्चियों को पाल रहे थे।
खाने की कमी के चलते माँ के दूध से बच्ची का पेट नहीं भरता था। फिर
क्या, वही हुआ जिसका डर था। एक दिन बच्ची को दस्त और उल्टियाँ शुरू हुई और
उसकी जान लेकर ही थमी। उस दिन शहाना ने अनवर को कई बार फोन किया। बहन से भी फोन
करवाया, पर न उसने फोन उठाया और न ही वापस फोन किया। जैसे–तैसे मोहल्ले वालों
ने खबर भिजवायी। उसने सोचा था कि बाप है, दिल पसीज जाएगा।
अनवर लोक–लाज के डर से जनाजे पर तो आया, पर शहाना का
हाल–चाल तक नहीं पूछा। उसकी सूनी आँखें अनवर को आखिर तक निहारती रहीं। उसकी एक नजर
के लिए तरसती रहीं, पर उस पत्थर दिल को कोई फर्क नहीं पड़ा। वह जैसे आया वैसे ही वापस चला
गया।
वह रोती–बिलखती अपने मायके में पड़ी रही।
उस दिन शहाना जी भर के रोयी। अपनी सारी तकलीफ, सारा दर्द और
सारा डर उसने उन आँसुओं में बहा दिया। जी भर के रो लेने के बाद उसने अपने आँसू
पोंछे और अपनी जिन्दगी का फैसला खुद ही करने के बारे में सोचा। उसने तय किया कि वह
मोहल्ले की दूसरी मजदूर औरतों के साथ काम पर जाएगी। उसने सोचा कि औरतों को भी अपनी
जिन्दगी अपने तरीके से जीने का हक है।
काम पर जाने के उसके एक फैसले ने उसकी और उसकी बच्ची की जिन्दगी बदल
दी। उसने पॉलिथीन बनाने की फैक्ट्री में जाकर मजदूरी करनी शुरू कर दी। उसके बाद
उसने मुड़ कर कभी अपने ससुराल वालों की तरफ नहीं देखा। वह अब अपने और अनवर के बीच
के लम्बे फासले को खत्म नहीं करना चाहती थी। अब वह अपनी बच्ची को प्यार से पाल–पोस
रही थी और फैक्ट्री में मजदूरी करके अपने अब्बा का सहारा भी बन गयी थी।
“अम्मी...ओ अम्मी” बच्ची ने आवाज दी।
“हम्म... हाँ बेटा, मैं यही हूँ” शहाना को लगा जैसे वह
गहरी नींद से जागी हो।
“अम्मी, मुझे भूख लगी है।”
शहाना ने अपनी बच्ची को प्यार किया और उसके लिए खाना लाने चली गयी।
–– शहरीन
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