Thursday, December 24, 2020

लव-जिहाद कानून:एक विश्लेषण



लव जिहाद- पिछले चार-पांच सालों से यह शब्द खूब चर्चाओं में रहा है। लव यानी कि प्यार और जिहाद जिसका मतलब इतिहास में ‘धर्म युद्ध’ बताया गया है। दोनों ही शब्द आपस में मेल नहीं खाते। प्यार बहुत ही सरल, साधारण और प्राकृतिक मानवीय भाव है। जहां लव हो वहां जिहाद नहीं हो सकता और जहां जिहाद हो वहां प्यार नहीं हो सकता।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में लव जिहाद का अध्यादेश प्रभावी हो गया है। राज्यपाल ने गैरकानूनी तरीके से धर्मांतरण पर रोक से जुड़े अध्यादेश को मंजूरी दे दी। इससे पहले मध्य प्रदेश सरकार लव जिहाद पर कानून लाने की तैयारी कर चुकी है। हरियाणा, कर्नाटक और कई अन्य बीजेपी शासित राज्यों में भी लव जिहाद पर कानून लाने की कवायद चल रही है। कानून के मुताबिक, जबरदस्ती प्रलोभन से किया गया धर्म परिवर्तन संज्ञेय और गैर जमानती अपराध होगा। इस कानून को तोड़ने पर कम से कम ₹रु 15,000 जुर्माना और 1 से 5 साल तक की सजा होगी। यही काम नाबालिक या अनुसूचित जाति, जनजाति की लड़की के साथ करने में ₹रु 50,000 जुर्माना और 3 से 10 साल तक की सजा होगी। धर्म परिवर्तन के लिए तयशुदा फॉर्म भर कर दो महीने पहले जिला अधिकारी को देना होगा।

नए कानून के मुताबिक आपको साबित करना होगा कि आपका रिश्ता जबरन धर्म परिवर्तन या किसी प्रलोभन के तहत नहीं है। जब तक यह साबित होगा तब तक क्या लड़का-लड़की सुरक्षित होंगे? उनकी जान को कोई खतरा नहीं होगा, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? लोग उन्हें चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं देंगे इसकी क्या गारंटी होगी? इस जांच के दौरान कभी न भरने वाली जो मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक चोट पहुंचेगी उसका जिम्मेदार कौन होगा? क्या किसी को पसंद करना और अपने हिसाब से जिंदगी बिताना कोई पाप है? क्या धर्म इतना कमजोर होता है कि शादी करने से खतरे में पड़ जाता है? 

यदि हम अपने आसपास मौजूद जोड़ों जो दो अलग-अलग धर्म से वास्ता रखते हों, के वैवाहिक जीवन को देखने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि उनका जीवन आमतौर पर अच्छा ही चल रहा होता है। दोनों के परिवारों द्वारा देर सबेर वे स्वीकार ही कर लिए जाते है और मिलकर खुशनुमा जीवन जी रहे होते हैं। उनके जीवन में संकट और मुसीबत तब आने लगती है जब बाहर से कोई पार्टी, समुदाय या कोई संगठन निजी, धार्मिक या चुनावी स्वार्थ के लिए उनके जीवन में  गैर-जरूरी हस्तक्षेप करने लगे और अचानक किसी एक धर्म पर आये संकट के रूप में उसे प्रस्तुत करने लगे।    

भारत सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधताओं से भरा देश है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान लिखने से पहले सारे पहलुओं के बारे में सोच समझकर ही संविधान रचा। हमारा संविधान हमें अपनी पसंद से रहने, कहीं भी बसने, नौकरी करने, जीवनसाथी चुनने और यहां तक कि धर्म चुनने या छोड़ने का अधिकार भी देता है। इसमें दो अलग-अलग धर्मों की शादी के लिए ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ का प्रावधान भी दिया गया है। ऐसे में इस नए कानून की जरूरत है भी या ये सिर्फ नफरत के शतरंज को जीतने का एक मोहरा भर है।

भारत में तो सदियों से विभिन्न नस्लें और विभिन्न धर्मों के लोग आकर बसते रहे हैं। भारत की धरती और हमारे पुरखों ने बाहें फैलाकर उन्हें अपनाया है। हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है, जिसमें राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता, राज्य धार्मिक मामलों से अलग रहता है और धर्म नागरिकों का निजी मसला माना जाता है। हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। ऐसे में यह कानून न सिर्फ व्यक्ति के धार्मिक और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर भी चोट करता है।

लव जिहाद कानून का सबसे पहला केस जो सामने आया है वह है पिंकी और राशिद का। पिंकी और राशिद देहरादून में नौकरी करते थे, दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। पिंकी ने शादी का प्रस्ताव रखा और दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद पिंकी ने इस्लाम को अपना लिया और अपनी इच्छा से नाम बदलकर मुस्कान रख लिया। कुछ दिनों बाद उन दोनों को धमकी भरे फोन आने लगे जिसमे उन्हें अलग करने से मौत तक कि धमकी शामिल थी। मुस्कान ने देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को मदद के लिए पत्र लिखा और मदद की मांग की। 
कोरोना के चलते दोनों के ऑफिस बंद हो गए तो फिर वे लौटकर राशिद के गांव मुरादाबाद आ गए। थोड़े दिन बाद मुस्कान को पता चला कि वो मां बनने वाली है। दोनों अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिए अपनी शादी रजिस्टर करवाने कोर्ट में गए और वापसी में बजरंग दल के सदस्यों ने उन्हें रोक लिया। उन्होंने पूछताछ करने के बाद नए कानून के तहत दोनों को थाने ले जाकर पुलिस के हवाले कर दिया।
मुस्कान गिडगिडाती रही कि वह मां बनने वाली है मगर उसकी एक न सुनी गई। राशिद और उसके भाई को जेल में डाल दिया गया, वही मुस्कान को जबरदस्ती नारी निकेतन में भेज दिया गया। नारी निकेतन के बारे में वह कहती है कि वह किसी जेल से कम नहीं था। वहां ऊंची-ऊंची दीवारें हैं ताकि बाहर का कुछ भी दिखाई ना दे और दीवारों में चारों ओर से तार की बाड़ थी। उस नारी निकेतन में मुस्कान के अलावा 35-40 और लड़कियां थी। दो दिन वहां रहने के बाद उसे पेट में दर्द महसूस हुआ तो उसे हॉस्पिटल ले जाया गया। वहां उसे बिना किसी जानकारी के दवाई और इंजेक्शन दिए जाने लगे। मुस्कान का गर्भ 3 महीने का था अब तक उसे कोई परेशानी नहीं हुई थी, अचानक उसको खून बहने लगा। मुस्कान ने अपना बच्चा खो दिया था। उसे न कुछ बताया गया और न ही कोई रिपोर्ट दी गयी। एक इंटरव्यू में मुस्कान ने बताया कि उसका जबरन गर्भपात करवाया गया है।

धारा 312, 313 और 315 के मुताबिक यदि कोई भी व्यक्ति मां की अनुमति के बिना उसका गर्भपात करवाता है या बच्चे को कोख में ही मारने की कोशिश करता है तो संबंधित व्यक्ति को दंडित किया जाएगा। मुस्कान गिडगिडाती रही कि उसके बच्चे को मारा गया है लेकिन इस बात पर उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई संज्ञान नहीं लिया। जिस समाज में हजारों बलात्कारों को आसानी से हज़म कर दिया जाता है वहां इनसे एक प्रेम विवाह हज़म नहीं होता है।

भारत जैसे आजाद देश में जहां आजादी के लिए इतने बलिदान दिए गए हो, लड़कर अपना हक, आजादी, बराबरी, सम्मान और फैसले लेने का मौलिक अधिकार हासिल किया गया हो वहां अपने इतिहास को ठुकरा कर दोबारा से गुलामी और सामंतवादी वक्त में हमें लौटाया जा रहा है। इन सभी लोगों को इतिहास उठा कर पढ़ लेना चाहिए जो दूसरों के मसीहा बनते हैं और खुद को पूरे भारत के केयरटेकर समझते हैं। हमारे इतिहास में औरतों ने आजादी की लड़ाई में बराबर साथ दिया है। भारतवर्ष के निर्माण में उनकी भी पूरी भागीदारी है। देश में जितना हक एक पुरुष का है उतना ही एक महिला का भी है। ऐसे में किसी पुरुष को किसी महिला के फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है।

नए कानून के समर्थन में लोग कहते हैं कि ये हिंदू लड़कियों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। ऐसे में कोई उन्हें बेवकूफ नहीं बना पाएगा। सवाल ये है कि क्या हिंदू लड़कियां इतनी बेवकूफ है कि 2020 में भी अपने फैसले खुद नहीं ले सकती हैं? क्या उनके मां-बाप ने उन्हें समझदार नहीं बनने दिया? क्या उनके पालन-पोषण में कोई कमी रह गई? क्या उनके दिमाग का विकास नहीं हो पाया है? क्या वे अब भी गुलाम है? क्या वो आपके हाथों की कठपुतलियां हैं? इन प्रश्नों का जवाब सिर्फ यही हो सकता है – नहीं
-शालिनी

Wednesday, December 9, 2020

9 दिसंबर: रुकैया हुसैन दिवस


हमारी पुरखिन रुकैया हुसैन



दिल्ली का घेराव किये किसानों के आन्दोलन की गहमागहमी के बीच हमारी एक पुरखिन, 19वीं सदी में दक्षिण एशिया में महिला शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता की पुरोधा रोकैया हुसैन को नमन. कैसा इत्तेफाक है कि आज यानि 9 दिसम्बर को उनका जन्मदिन भी है और मृत्युदिवस भी. इसीलिये हम 9 दिसंबर को रूकैया हुसैन दिवस के रूप में मनाते हैं।
सवाल ये है कि आज के समय में हम उन्हें क्यों याद करें? क्योंकि सवा सौ साल पहले उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के पिछड़े समाज में ये प्रश्न उठाये - 
हम समाज का आधा हिस्सा हैं, हमारे गिरे-पड़े रहने से समाज तरक़्क़ी कैसे करेगा? हमारी अवनति के लिए दोषी कौन है?
हम सुनते हैं कि धरती से ग़ुलामी का राज ख़त्म हो गया है लेकिन क्या हमारी ग़ुलामी ख़त्म हो गई है? नहीं न....
आखिर हम दासी क्यों हैं?
पूर्वी बंगाल(बंगलादेश) में 1880 में पैदा हुईं रोकैया हुसैन ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा पर उनके भाइयों ने उन्हें घर पर पढ़ाया. इस पढ़ाई का यह असर पड़ा कि वो बड़ी शिद्दत से अपने आसपास कि औरतों की स्थितियों और उन्हें न पढाये जाने के पीछे के कारण भली-भाँती समझने लगीं. तभी तो उन्होंने लिखा,
‘जब स्त्रियां पढ़ती हैं, सोचती हैं और लिखने लगती हैं तो वे उन बातों पर भी सवाल उठाने से घबराती नहीं जिन पर यह पितृसत्तात्मक समाज टिका है.’
ऐसे समय में जबकि औरतों का पढ़ना गुनाह माना जाता था,  तब उन्होंने लगातार लड़कियों की पढाई के बारे में सोचा. जब उनका विवाह भागलपुर के एक उदार अफसर सैयद सखावत हुसैन के साथ हुआ और उन्हें कुछ करने का अवसर मिला तो उन्होंने वहां लड़कियों का एक स्कूल खोला और पति की मृत्यु के बाद कलकत्ता को केंद्र बनाकर एक और स्कूल खोला जो आज भी चल रहा है.
अपने इन कामों के कारण रोकैया को बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे सुधारक जैसा सम्मान मिला. लेकिन बंगाल के बाहर वे अपनी साहसपूर्ण नारीवादी कहानियों और उपन्यास के लिए जानी गईं।
अपने लेखन में वे कहती हैं, 'पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे. अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आज़ाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे. अगर ज़रूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे.
हम अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए काम क्यों न करें?
क्या हमारे पास हाथ नहीं है, पाँव नहीं है, बुद्धि नहीं है? हममें किस चीज़ की कमी है?
एक बात तो तय है कि हमारी सृष्टि बेकार पड़ी गुड़िया की तरह जीने के लिए नहीं हुई है.'
अपनी एक किताब 'स्त्रीि जातिर अबोनीति' यानि 'स्त्रीे जाति की अवनति' के ज़रिए वे अपनी जाति यानी स्त्रियों से मुख़ातिब हैं. वे स्त्रियों की ख़राब और गिरी हुई सामाजिक हालत की वजह तलाशने की कोशिश करती हैं. उन्हें अपनी हालत पर सोचने के लिए उकसाती हैं.
वह लिखती हैं, 'सुविधा-सहूलियत, न मिलने की वजह से, स्त्री जाति दुनिया में सभी तरह के काम से दूर होने लगीं. और इन लोगों को, इस तरह ना़क़ाबिल और बेकार देखकर, पुरुष जाति ने धीरे-धीरे इनकी मदद करनी शुरू कर दी....जैसे-जैसे, मर्दों की तऱफ से, जितनी ज़्यादा मदद मिलने लगी, वैसे-वैसे, स्त्री जाति, ज़्यादातर बेकार होने लगी. हमारी ख़ुद्दारी भी ख़त्म हो गई. हमें भी दान ग्रहण करने में किसी तरह की लाज-शर्म का अहसास नहीं होता. इस तरह हम अपने आलसीपन के ग़ुलाम हो गए. मगर असलियत में हम मर्दों के ग़ुलाम हो गए. और हम लम्बे समय से मर्दों की ग़ुलामी और उनके आदेशों का पालन करते-करते अब ग़ुलामी के आदी हो चुके हैं...'
रोकैया सबसे ज्यादा जानी जाती हैं अपने एक साइंस फिक्शन के लिए. ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ नामक उनकी कहानी एक साइंस फिक्शन है जो 1905 में मद्रास (चेन्नई) से निकलने वाली ‘इंडियन लेडीज़ मैग्जि़न’ में छपी थी.
इस कहानी में एक काल्पनिक दुनिया रची गई जिसमे स्त्री और पुरुष के कामों और उनकी हैसियत को उलट दिया गया है. सारे पुरुष दबे-दबे और परदे के अंदर रहते हैं जबकि देश की बागडोर महिलाओं के हाथ में है. यहाँ हथियारों के लिए कोई जगह नहीं है. इस लोक में लड़कियों के अलग विश्वविद्यालय हैं. यहाँ की स्त्रियों ने सूरज की ता़कत का इस्तेमाल करना सीख लिया है और वे बादलों से अपने हिसाब से पानी लेती हैं. पर्यावरण का ख़्याल रखती हैं. आने जाने के लिए हवाई साधन का इस्तेमाल करती हैं. तकनीक की सहायता से बिना श्रम के खेती करती हैं. और तो और यहाँ जघन्य अपराध के लिए भी मौत की सज़ा भी नहीं है.

रुक़ैया ने एक उपन्यास भी लिखा था-'पद्मराग'. इसमें अलग-अलग धर्मों और क्षेत्रों की उत्पीड़ित बेसहारा महिलाएं, एक साथ रह कर एक नई दुनिया बसाने की कोशिश करती हैं. वे अपने पांव पर खड़ी हैं और आजादख्याल हैं.
रोकैया ने ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ में जहां सामाजिक जकड़न में रह रही स्त्री जाति की ‘आह’ और गुस्से को एक फंतासी का रूप दिया तो ‘पद्मराग’ उपन्यास में एक रास्ता भी दिखाया. उनके बारे में बात करते समय हमें हमेशा यह याद रखना होगा कि 19वीं सदी के भारत में एक मुसलमान स्त्री इसे लिख रही थी. इस तरह की प्रगतिशील, बराबरी की उम्मीद और मांग करती, ‘मर्दों की तौहीन’ करती उनकी बातों के कारण उन्हें मुल्ला मौलवियों और पुरातनपंथियों की सख्त आलोचनाओं का लगातार शिकार होना पड़ा. लेकिन वो घबराई नहीं. कठमुल्लावादियों के प्रहार पर वे बड़े इत्मीनान और मजाकिया स्वर में कहती हैं कि, ‘जब वे खुर्सियांग घूमने गईं तो अपने साथ वहां के पत्थर लाई, उड़ीसा और मद्रास के सागर तट से सीपियाँ और शंख बटोर कर लाई लेकिन अब समाज बदलाव का काम करते हुए कठमुल्लाओं की गालियाँ और लानत-मलामत इकट्ठा कर रही हूँ’।
वास्तव में रोकैया हुसैन देश की शुरुआती नारीवादियों में से एक कही जा सकती हैं जिन्होंने बिना घबराये और कमजोर पड़े लड़कियों और महिलाओं को नया रास्ता दिखाने, उनके लिए नये रास्ते खोलने और पुराने मूल्यों को तोड़ देने की हिम्मत पैदा की. आज भले ही नारी विमर्श बहुत आगे बढ़ गया हो लेकिन रूकैया हुसैन ने नारी विमर्श से जुड़े जिन गंभीर मुद्दों को आज से सवा सौ साल पहले उठाया वे आज भी जिंदा हैं।