Monday, September 16, 2024

लैंगिक गैर-बराबरी: आखिर कब तक?

       हाल ही में 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' की जेंडर इक्वालिटी रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में विभिन्न देशों में महिलाओं की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन किया गया। इस आकलन के आधार पर रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को समाज में पुरूषों के बराबर दर्जा मिलने में अभी लगभग 130 साल से भी ज्यादा समय लगेगा।

हालांकि इस रिपोर्ट में देश-दुनिया में महिलाओं की स्थिति का केवल आंशिक हिस्सा ही उजागर हुआ है। लेकिन यह इन तमाम दावों की पोल खोलती है जिनमें महिलाओं को बराबर दर्जा दिए जाने का दंभ भरा जाता है। अमरीका और इंग्लैंड जैसे आधुनिक समझे जाने वाले देश भी महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी दे पाने में नाकाम साबित हुए हैं। भारत तो इस कड़ी में बहुत पीछे है। हालांकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक कुछ देश हैजिन्होने महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी देने में अच्छा प्रयास किया है। जिसमे आइसलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड जैसे देश शामिल हैं। लेकिन ये भी पूर्ण रूप से इस गैर बराबरी को मिटा नहीं सके हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से थोड़ी बेहतर तो हुई हैं लेकिन पुरषों के मुकाबले अब भी बहुत पीछे हैं। समाज में बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक आज़ादी और राजनीतिक भागीदारी, सभी में महिलाओं का बहुत बड़ा तबका आज भी वंचित है।

हम आधुनिकता के दौर में जी रहे हैं बावजूद इसके लोग सालों पुरानी रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी प्रथा के चलते महिलाओं के अधिकारों को कुचला जा रहा है।

देश के हर हिस्से में होने वाली महिला हिंसा में विशेषकर कन्या-भ्रूण हत्या के बढ़ते मामले और पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का घटता अनुपात इसका प्रमाण है। समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच भी महिलाओं को पीछे रखने की एक बहुत बड़ी वजह है। इसका बहुत प्रमुख उदाहरण है जिसे हम रोजाना अपने दैनिक जीवन में देख सकते हैं। शादी से पहले कोई महिला पढ़-लिख भी ले तो शादी के बाद तमाम घरों में उन्हें नौकरी नहीं करने दी जाती। तमाम तरह की बंदिशे उन पर लगा दी जाती हैं। अगर संघर्ष करके बाहर काम करने जाती भी है तो उन्हें पुरषों के बराबार  वेतन नहीं दिया जाता। इसके साथ ही काम के दौरान अकसर उन्हें मानसिक और शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसमें पूर्ण रूप से महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्ज़ा दिया जाता हो।

ऐसा जरुरी भी नहीं है कि रिपोर्ट में जो 131 सालों की समय सीमा बताई गई है उसके पूरे होने पर महिलाएं पुरुषों के बराबर हो जायेंगी। अगर हम 100-150 साल पुराना इतिहास उठाकर देखें तब भी महिलाओं और पुरुषों के बीच में असमानता और गैर-बराबरी रही है। लेकिन महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए निरन्तर संघर्ष किए हैं। इन्हीं संघर्षों के चलते आज उन्हें आंशिक आजादी मिली है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाकर पूर्ण आजादी हासिल की जा सकती है।

महिलाओं ने अतीत में संघर्षों के बलबूते समाज में खुद को एक इंसान के रूप में स्थापित किया है। लेकिन आज भी उन्हें हर कदम पर दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ता है। उन्हें घर की चारदीवारी की सीमाओं के अंदर रखना, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर काम महत्व देनामहत्वपूर्ण कार्यों में उनकी सलाह को नजरंदाज करना, यह सब आज भी एक सच्चाई है।

 

आज जिस समाज में हम जी रहे हैं अगर उसमें हम अपने आसपास में ही नज़रे घुमाकर देखें तो सैकड़ों घटनाएं होती दिख जायेंगी जिनमें से अधिकतर महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, दहेज़ उत्पीड़न, एसिड अटैक जैसी घटनाएं बहुत आम हो गई हैं। और इतनी दर्दनाक और शर्मनाक भरी घटनाएं हमें देखने को मिल रही हैं जिनसे शायद ही कोई अंजान हो। ऐसे में महिलाओं के साथ हो रही हिंसा के साथ ही गैर बराबरी एक अहम सवाल है। हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले 100-150 सालों में महिलाओं की स्थिति में सुधार आयेगा? अगर इसके लिए हम अपनी तरफ से कोई प्रयास ही न करें? देश को आगे बढ़ाने में महिलाओं की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन मौजूदा दौर में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब स्तर पर पहुंच चुकी है। महिलाओं की सुरुक्षा की बात करें तो वह न के बराबर है। अगर हम चाहते हैं कि महिलाओं की स्थिति में सुधार आए, उन्हें भी पुरुषों के समान ही समझा जाय, हर क्षेत्र में हर महिला के पास अपने सपनों को अपनी इच्छा को पूरे करने के विकल्प मिले, हर महिला खुलकर अपनी जिंदगी को अपने बल पर जी सके, उसके साथ हो रहे आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण से उसको मुक्ति मिले सके तो उसके लिए हमें इस पूंजीवादी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की कोशिश करनी पड़ेगी। इस व्यवस्था के होते हुए महिलाएं कभी भी अपने आप को सुरक्षित और आजाद नहीं कर सकतीं।

नारी मुक्ति के लिए आर्थिक आज़ादी के साथ ही उसके स्वतंत्र विचार, व्यक्तित्व और उसके निर्णय भी उतने ही जरूरी हैं। नारीवाद के शत्रु पुरुष नहीं हैं बल्कि पितृसत्ता है जो आज की व्यवस्था बनाए रखना का काम करती है। यह व्यवस्था इंसान को इंसान से दूर करती है। सामाजिक अलगाव पैदा करती है, सामाजिक विचारों को कुचलती है और लोगों को गलत राह पकड़ने को मजबूर करती है। महिलाओं के प्रति घटिया व्यवहार को बढ़ावा देती है। इस व्यवस्था के होते हुए हमें उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि महिलाओ का उद्धार होगा और गैर बराबरी खत्म हो जाएगी। पुरुष हमारे शत्रु नहीं हैं बल्कि वह भी इस व्यवस्था का शिकार हैं। इसलिए हमें अपने बेहतर भविष्य के लिए पुरुषों के साथ मिलकर इस व्यवस्था को खत्म करने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। तभी एक ऐसी व्यवस्था का उद्भव हो सकेगा जिसमे सदियों से चली आ रही महिलाओं और पुरूषों के बीच की गैर बराबरी का जड़ से खात्मा होगा।

--निधि गौतम

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Sunday, September 15, 2024

हिस्टीरिया और मानसिक स्वास्थ्य

 


तकरीबन दो साल पहले उत्तराखण्ड में बागेश्वर गाँव के एक स्कूल में कुछ छात्राएँ और छात्र अचानक से चीखने–चिल्लाने लगे, फिर बेहोश हो गये। कभी किसी विशेष आयोजन पर महिलाएँ अचानक झूमने लगती हैं, रोने–चिल्लाने लगती हैं। कभी बोला जाता है कि फलाँ औरत में माता आ गयी है। अक्सर लोग अन्धविश्वास में पड़कर इसको भूत–प्रेत का साया, डायन या चुड़ैल का साया मानने लगते हैं और पण्डित–मौलवियों से झाड़–फूँक कराने लग जाते हैं, जबकि ये सारे मामले हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के अन्तर्गत आते हैं। हिस्टीरिया की तरह ‘मास हिस्टीरिया’ भी एक मानसिक बीमारी है, जिसकी शिकार भी सबसे अधिक महिलाएँ ही होती हैं, लेकिन पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं।

जब एक समूह में अचानक से घबराहट और भय की स्थिति बन जाती है, एक व्यक्ति दूसरे को देखकर उसी तरह का व्यवहार करने लगता हैं, तो इस तरह के मामले मास हिस्टीरिया कहलाते हैं। असल में इन घटनाओं का भूत–प्रेत से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल्कि ये एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसके पीछे अवचेतन मन का तनाव मुख्य कारण होता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े–लिखे लोगों में इस तरह की घटनाएँ अधिक देखने को मिलती हैं। खासतौर पर उन जगहों पर जहाँ धार्मिक आस्था जरूरत से ज्यादा होती है। हमारे सामाजिक ताने–बाने की वजह से महिलाओं की मानसिक स्थिति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है इसलिए महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा इस तरह की समस्या अधिक होती है।

हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के उपचार के लिए आज भी लोग जादू–टोना पर अधिक विश्वास करते हैं। इससे रोगी की मानसिक स्थिति और खराब हो जाती है। गाँव में मानसिक रोगों को कोई वास्तविक मानता ही नहीं है। मानसिक समस्याओं को सिर्फ भूत–प्रेत, जादू–टोना से ही जोड़कर देखा जाता है। कई बार झाड़–फूंक करने वाले इलाज के नाम पर बीमार लोगों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं। उन्हें मारना, बाल नोंचना और रस्सी से पेड़ में बाँधने–– जैसे व्यवहार अक्सर देखने को मिलते हैं, जिसमें बीमार इनसान के परिवार वाले भी अन्धविश्वास के चलते इस हिंसा में साथ देते हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को प्रभावित कर सकती है? जो मेडिकल साइंस वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति के शरीर और मन की जाँच करता है, वह भी महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है क्या?

चिकित्सा जगत में सदियों से महिलाओं के शरीर और दिमाग से जुड़ी समस्याओं को महत्व देने और उन्हें शामिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। स्त्री स्वास्थ्य को लेकर हमारे समाज में बहुत कम बातें होती हैं, यदि होती भी हैं तो गर्भावस्था तक ही सारी बहस को समेट दिया जाता है। महिलाओं से सम्बन्धित शारीरिक और मानसिक बीमारियों को हमारे समाज में कभी गम्भीरता से नहीं लिया गया है, यही कारण है कि आज भी महिलाओं के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और उनकी पीड़ा और दर्द को लेकर बहुत से पूर्वाग्रह और भ्रांतियाँ बनी हुई हैं।

महिलाओं से सम्बन्धित एक ऐसी ही बीमारी है–– हिस्टीरिया (जिसको अब कन्वर्शन डिसऑर्डर के नाम से जाना जाता है)। हिस्टीरिया एक मानसिक बीमारी है जो अत्यधिक चिन्ता से पैदा होती है। इसमें मानसिक परेशानियाँ, शारीरिक लक्षणों का रूप ले लेती हैं। जैसे– बेहोश हो जाना, साँस न आना, शरीर में दर्द और ऐंठन, आँखों की रोशनी चले जाना, कान से कुछ सुनाई न देना आदि। इसमें रोगी का अपने कार्यों और भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रह जाता। अचरज की बात यह है कि मरीज सचमुच ऐसी समस्या से जूझ रहा होता है लेकिन डॉक्टर द्वारा जाँच किये जाने के बाद चिकित्सीय तौर पर उस बीमारी की कोई पुष्टि नहीं होती।

इसमें आमतौर पर व्यक्ति बेहोश हो जाता है, लेकिन यह कोई मिर्गी अथवा शारीरिक बीमारी से सम्बन्धित दौरा नहीं होता, बल्कि एक मानसिक दौरा होता है, जिसमें रोगी का अवचेतन मन सक्रिय होता है। आमतौर पर इसको महिलाओं की बीमारी माना जाता है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है, क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा है जहाँ पितृसत्तात्मक सोच का बोलबाला है, इसलिए महिलाएँ इससे अधिक पीड़ित होती हैं, परन्तु पुरुष भी हिस्टीरिया के शिकार हो सकते हैं। हमारे समाज में महिलाएँ सबसे अधिक उपेक्षित होती हैं, घर के जरूरी कामों में उनकी राय नहीं पूछी जाती, महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मरीज में इस तरह का पैटर्न देखा जाता है। यह देखने में थोड़ा नाटकीय जरूर लगता है, लेकिन रोगी व्यक्ति यह सब कुछ जानबूझ कर नहीं कर रहा होता है। यह बीमारी लम्बे समय से दिमाग पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के परिणाम स्वरूप होती है।

हिस्टीरिया के इतिहास के बारे में अध्ययन से पता चलता है कि यह ग्रीक शब्द हिस्टीरिया से निकला है, जिसका अर्थ होता है गर्भाशय (यूटेरस)। पाँचवी सदी ईसा पूर्व, हिप्पोक्रेट्स और प्लेटो जैसे दार्शनिकों के अनुसार गर्भाशय एक स्वतंत्र, घूमता हुआ अंग है और महिला के शरीर में इसके घूमने से हिस्टीरिया होता है। दार्शनिक प्लेटो और अन्य चिकित्सकों द्वारा इस “रोमिंग यूटेरी” सिद्धान्त को ‘हिस्टेरिकल सफोकेशन’ कहा गया, यानी महिलाओं के पास होने वाला गर्भाशय ही महिलाओं की समस्या का कारण है। क्योंकि गर्भ केवल महिलाओं के पास होता है, इसलिए हिस्टीरिया केवल महिलाओं को होने वाली बीमारी कही गयी। इसका कारण उन्होंने महिलाओं की अधूरी यौन इच्छा को बताया।

उस दौरान यह भी मान्यता थी कि यदि महिला का गर्भाशय सेक्स अथवा प्रजनन क्रियाओं से दूर रहता है तो उसके बीमार होने का खतरा बना रहता है या फिर वह अपनी स्थिति बदल लेता है और घूम जाता है। विशेष रूप से कुँवारी, विधवा, एकल, बाँझ महिलाओं में गर्भाशय के घूमने का खतरा अधिक बना रहता है क्योंकि यह सन्तुष्ट नहीं होता और गहरा धुँआ पैदा करता है और शरीर में चारों और घूमता है, जिससे चिन्ता, घुटन की भावना जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। आमतौर पर यह मान्यता भी थी कि सुगन्धित खुशबू को योनि अथवा नाक के पास ले जाकर रखने से वह अपनी जगह पर वापस आ जाता है।

इस तरह अतीत में महिलाओं के शरीर का वैज्ञानिक परीक्षण किये बगैर केवल पूर्वानुमानों के आधार पर उनके गर्भाशय को मुख्य कारण मानकर उनका इलाज किया जाता रहा, जिसने उनके स्वास्थ्य पर गलत असर डाला। उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी तरह की मान्यताएँ समाज में प्रचलित रहीं। तब भी हिस्टीरिया के बारे में कुछ वैज्ञानिकों की यही समझ बनी हुई थी कि “जिनकी महावारी बिगड़ जाती है या विधवाएँ या जिनके बच्चे न हों उन्हें हिस्टीरिया होने की सम्भावना ज्यादा होती है।”

सिगमंड फ्रायड जैसे प्रसिद्ध मनोचिकित्सक तक भी महिला विरोधी तर्कों से खुद को बचा नहीं पाये। मेडिकल साइंस का महिलाओं के प्रति यह नजरिया समाज में गहरे से जड़ जमा चुकी पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है। यही कारण है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इतने शोध और अनुसन्धान होने के बावजूद महिलाओं की समस्या दूर नहीं हुई।

उन्नीसवी सदी के अन्त तक इस सोच में कुछ बदलाव नजर आने लगा। उसके बाद 1980 में, ‘अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन’ द्वारा प्रकाशित ‘डायग्नोस्टिक एण्ड स्टैटिस्टिकल मैन्युअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर (डीएसएम)” की मानसिक रोगों की सूची से ‘हिस्टीरिया’ को हटा दिया गया। इसके बाद इसके लिए ‘कन्वर्जन डिसऑर्डर’ शब्द लाया गया जिसके अन्तर्गत कई तरह के डिसऑर्डर आते हैं और इसको पूर्णत: मानसिक बीमारी का दर्जा दिया गया, जिसका महिला या पुरुष होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु इसके बाद भी बहुत कम लोग इस बदलाव के बारे में जानते हैं और अधिकतर लोगों में यह हिस्टीरिया के नाम से ही प्रचलित है।

यह बीमारी महिलाओं के यौन स्वास्थ्य या प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी कोई समस्या नहीं है। लेकिन इस बात को समझने में चिकित्सा क्षेत्र को कई सौ साल लग गये। हिस्टीरिया का इतिहास बताता है कि जब डॉक्टरों को महिला शरीर से जुड़ी कोई बीमारी समझ नहीं आती थी तो वे इसे हिस्टीरिया का नाम दे देते थे, इससे उन्हें महिला शरीर को समझने से छुट्टी मिल जाती थी और साथ–ही–साथ समाज में महिला डॉक्टरों की जरूरत से भी ध्यान हट जाता था। अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एक समय यह बीमारी इतनी अधिक हो गयी थी कि जाँच करने पर डॉक्टर हर दूसरी महिला को हिस्टीरिया से ग्रसित बताते थे। महिलाओं को उस समय बुखार के बाद दूसरे नम्बर पर होने वाली बीमारी हिस्टीरिया थी। किसी भी असुविधा, दर्द या मानसिक तकलीफ की शिकायत करने वाली महिला को ‘हिस्टेरिकल’ घोषित कर दिया जाता और उन्हें इलाज से वंचित कर दिया जाता। अगर इलाज होता भी, वह इस मानसिकता के साथ किया जाता कि महिलाओं की बनावट में ही कुछ दोष है जिसके कारण ये तकलीफें उत्पन्न होती हैं और इसलिए इसका कोई समाधान नहीं हो सकता, साथ ही यह कहा जाता कि इसके लिए एक तरह से महिलाएँ खुद ही दोषी हैं।

महिलाओं के बारे में एक और सोच जो उस समय व्याप्त थी कि महिलाएँ अपनी तकलीफों को बढ़ा–चढ़ा कर बताती हैं, क्योंकि महिलाएँ बहुत कमजोर और नाजुक होती हैं इसलिए उनमें दर्द सहने की क्षमता भी कम होती है। कई बार तो इलाज की माँग करने वाली महिलाओं को मानसिक रूप से असन्तुलित घोषित करके पागलखाने भेज दिया जाता था या फिर यह मानते हुए कि हिस्टीरिया की सारी समस्याएँ महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, हिस्टेरेक्टॉमी सर्जरी के जरिये उनका गर्भाशय ही हटा दिया जाता था। डॉक्टरों के लिए उस समय महिलाओं का इलाज करते समय गर्भाशय ही वह अंग था जो महिलाओं के कमजोर शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान को समझने में मदद कर सकता था। महिला शरीर और मन के बारे में इससे अधिक जानकारी तब डॉक्टरों को नहीं थी, और न ही उनमें जानने की उत्सुकता थी।

आज इक्कीसवी शताब्दी में भी जब चिकित्सा विज्ञान इतना अधिक उन्नत है तब भी महिलाओं के दर्द और पीड़ा को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। आज भी यह सोच ज्यों की त्यों हमारे समाज में प्रचलित है कि महिला अपने दर्द को बढ़ा–चढ़ा कर दिखाती है। छोटी बातों को भी बड़ा करके बताती है, अपनी बीमारी के प्रति ज्यादा वहमी होती है। महिलाओं के दर्द को कम आँकने का एक प्रमुख कारण लैंगिक रूढ़िवादिता है। यह रूढ़िवादी सोच कहती है कि दर्द की स्थिति में पुरुष ‘शान्त और स्थिर’ रहते हैं जबकि महिलाएँ ज्यादा ‘हो–हल्ला’ मचाती हैं।

सोशल मीडिया पर कई महिलाएँ अपनी आपबीती बयान करती हैं जिसमें वे बताती हैं कि वे असहनीय पेट दर्द की शिकायत ले कर अस्पताल गयीं और डॉक्टर ने उन्हें बिना पर्याप्त जाँच के केवल दर्द की कुछ प्राथमिक दवाइयाँ दे कर घर भेज दिया। बहुत से मामलों में बिना कोई जाँच कराये ही पेट दर्द को स्त्री सम्बन्धी समस्या बताकर उसी का उपचार शुरू कर दिया जाता है। कभी–कभी तो बहुत अधिक दर्द में डॉक्टरों के पास गयी महिलाओं को एंटी–एंग्जायटी दवाइयाँ भी दे दी जाती हैं। कई ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ माहवारी के दौरान भयानक दर्द की शिकायत ले कर वे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकती रहती हैं, लेकिन लगभग सभी जगह उनके दर्द को सामान्य बता कर, कुछ दर्द की दवाइयाँ और दर्द सहना सीखने की सलाह दे कर मामले को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। यह लगभग हर महिला के साथ होता है। और इस तरह हमारे समाज में उनकी दर्द को सहन करने की सोशल कंडीशनिंग की जाती है। यहाँ तक कि अब तो अलग–अलग रील्स या शॉर्ट वीडियो के माध्यम से उनकी पीड़ा का मजाक तक बनाया जाता है। पीरियड में दर्द को आम मानने के कारण एण्डोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिला में रोग की पहचान में ही कई बार सालों लग जाते हैं। कई सालों तक हर महीने भयानक दर्द झेलने के बाद उन्हें पता चलता है कि उन्हें एण्डोमेट्रियोसिस की बीमारी थी जो इतने सालों तक इलाज नहीं मिलने के कारण काफी ज्यादा बढ़ गयी है।

एण्डोमेट्रियोसिस महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी एक दर्दनाक समस्या है जो 15 से 49 साल के आयुवर्ग (प्रजनन आयु) की महिलाओं में देखी जाती है। एण्डोमेट्रियोसिस की वजह से पीरिएड्स के समय ऐंठन, पेट के निचले हिस्से में दर्द या फिर सूजन की समस्या होती है। एक स्टडी के अनुसार, भारत में लगभग 4.3 करोड़ महिलाएँ एण्डोमेट्रियोसिस की इस बीमारी से पीड़ित हैं।

आँकडे़ बताते हैं कि मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में महिला रोगी को पुरुष की अपेक्षा कम तवज्जो मिलती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इलाज के लिए अधिक इन्तजार करना पड़ता है। उन्हें कैंसर या हार्ट अटैक है या नहीं, ये पता लगाने के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। तब तक ये बीमारियाँ महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी होती हैं और महिलाएँ दर्द में तड़पती रहती हैं और यह स्वीकार ही नहीं कर पातीं कि उनको ऐसे नहीं जीना चाहिए। बल्कि वे इसी को अपनी नियति मान लेती हैं।

महिलाओं पर क्लिनिकल परीक्षण आज भी बहुत कम होते हैं, दर्द निवारक दवाओं का 80 प्रतिशत परीक्षण पुरुषों पर किया जाता है। शोधकर्ता महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को यह कहकर छुपाते हैं कि वे महिलाओं को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते और साथ ही गलत परीक्षण से महिला के गर्भाशय को नुकसान हो सकता है, जिसके कारण गर्भधारण में समस्या पैदा हो सकती है। ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को मेडिकल प्रयोगों और शोधों से दूर रखने से ऐसी दवाओं का आविष्कार हुआ है जो महिलाओं के लिए कम सुरक्षित या कम प्रभावी होती हैं।

द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के किये गये शोध में पाया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर 45 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 39 फीसद महिलाओं को कार्डियक अरेस्ट होने पर सीपीआर (कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन–– बेहोशी होने और धड़कन बन्द हो जाने पर रोगी को साँस लेने में मदद करने वाली प्रक्रिया) दिया गया। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक सालों तक जीती तो हैं लेकिन स्वस्थ जीवन नहीं जीती हैं।

आज हमारे समाज में बलात्कार और यौन हिंसा की बढ़ती घटनाओं के कारण महिलाओं में डिप्रेशन, एंग्जायटी और स्ट्रेस डिसॉर्डर और यहाँ तक कि आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसी मानसिक समस्याएँ बढ़ रही हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक उनके पास इलाज के लिए आने वाली उन महिलाओं की संख्या में 30–40 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है, जिन्हें अतीत में बलात्कार और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा। इन विशेषज्ञों के अनुसार जिन महिलाओं के साथ यौन हिंसा हुई है, उनमें रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा, डिप्रेशन और एंग्जायटी होने का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। महिलाओं के इस मानसिक स्वास्थ्य के मुददे पर विचार करते समय हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का उन पर गहरा मानसिक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य पुरुषों से अलग होता है और वे पुरुषों की तुलना में सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसॉर्डर से अधिक पीड़ित हो सकती हैं।

घरेलू हिंसाहिंसा का एक ऐसा क्षेत्र है जो पीड़ित महिलाओं को बिना किसी मानसिक नुकसान का आभास दिलाये, उसके मानसिक स्वास्थ्य को पूरी तरह से तहस–नहस कर के रख देता है। जिन महिलाओं ने घरेलू हिंसा का अनुभव किया है, वे पोस्ट–ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसआर्डर (पीटीएसडी), अवसाद, चिन्ता और आत्महत्या से मौत के विचारों सहित कई मानसिक परेशानियों से पीड़ित होती हैं। लेकिन गृहस्थी और परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी के बीच महिलाएँ इन परेशानियों को नजरअन्दाज करते हुए इसे जीवन का एक सामान्य अंग मान लेती हैं। इन सबके प्रति महिलाओं को जागरूक होना पड़ेगा और समाज में बराबरी का हक पाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

–– रुचि मित्तल

Saturday, September 14, 2024

मेन्स्ट्रुअल कप क्यों नहीं प्रचलित?

 

युवावस्था में पहुँचते हुए एक लड़की कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक बदलावों से गुजरती है, जिसमें एक बड़ा बदलाव है– मासिक धर्म का होना। मासिक धर्म में होने वाले रक्तस्राव को रोकने के लिए आज भी बहुतायत लड़कियाँ और महिलाएँ कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, हालाँकि मध्यम वर्ग अब कपड़े से आगे बढ़कर सेनेटरी नैपकिन और टैम्पून्स का इस्तेमाल करने लगा है, पर यह कपड़े की तुलना में काफी महँगा विकल्प है।

कपड़े के इस्तेमाल में इन्फेक्शन का खतरा होता है जो आगे चलकर बड़ी बीमारियों का कारण बन सकता है, कपड़े के अपनी जगह से खिसक जाने के कारण दाग का भी डर रहता है। इसी समस्या को हल करने के लिए डिस्पोजेबल पैड्स का इस्तेमाल किया जाने लगा। यह कपड़े की तुलना में ज्यादा स्वास्थ्यप्रद है और अपनी जगह पर बना रहता है। संक्रमण से बचने के लिए इन पैड्स को हर 6 घंटे में बदलना जरूरी होता है, जिससे इसको इस्तेमाल करने की कुल लागत बढ़ जाती है। वहीं इसमें प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है जिसके कारण यह पर्यावरण के लिए भी खतरा है।

पैड्स की जगह एक सस्ता विकल्प भी मौजूद है– मेंस्ट्रूअल कप, जो ज्यादा प्रचारित नहीं है, क्यों, इस पर हम इस लेख के अन्तिम भाग में चर्चा करेंगे। पहले जानते हैं कि यह है क्या?

यह सिलिकॉन का बना होता है और इसकी आकृति कप नुमा होती है। इसका अन्तिम सिरा बिलकुल पतला होता है। इस कप को मोड़कर योनि में भीतर डाला जाता है जहाँ यह रक्त को भीतर ही इकट्ठा करता है।

आइये अब नजर डालते हैं इसके बारे में फैले कुछ मिथक और वास्तविक तथ्यों पर––

1. यह इस्तेमाल करने पर काफी दर्द देता है और इससे कौमौर्य भंग होने का खतरा रहता है।

इसे लगाने का सही तरीका सीखे जाने की जरूरत होती है। इसे मोड़कर वैजाइना में डालते हैं और अन्दर जाकर यह खुल जाता है और वैक्यूम बना लेता है। इसे कई तरीके से मोड़ा जा सकता है, जिसमें दो तरीके ज्यादा प्रचलित हैं– पंच डाउन फोल्ड और सी फोल्ड।

यह सही है कि पहली ही बार में इसे बिल्कुल अच्छे से इस्तेमाल करना थोड़ा मुश्किल होता है, पर दो–तीन महीनों में हम इसमें निपुण हो जाते हैं। तब तक आप पैड और कप को साथ में इस्तेमाल करें क्योंकि अगर यह ठीक से नहीं लगता तो हल्के–फुल्के लीक होने का खतरा रहता है।

जहाँ तक कौमार्य के भंग होने की बात है, तो पहले हम जान लेते हैं कि यह है क्या बला? महिलाओं की वैजाइना में एक बहुत महीन झिल्ली जिसे हाइमन कहते हैं, मौजूद होती है, जिसे माना जाता है कि पहली बार शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर टूटती है। हालाँकि यह झिल्ली और भी कई कारणों से टूट सकती है, मसलन साइकिल चलाने से, कुछ प्रकार के व्यायाम करने से, उछल–कूद करने से और हाँ, कप लगाने से भी।

2. यह अन्दर जाकर खो गया या फँस गया तो?

इसके लिए यह जानना जरूरी है कि हमारी वैजाइना एक स्ट्रेचेबल अंग होती है जो दूसरे छोर पर बन्द होती है, तो इसके खो जाने या फँस जाने का खतरा नहीं होता। यह महज एक डर या भ्रांति है।

3. ऐसे कुछ भी शरीर के अन्दर होगा तो हम सारा दिन उसे महसूस करते रहेंगे जो काफी असुविधाजनक होगा।

यह सच है कि कप को इस्तेमाल करने के शुरुआती दिनों में आप इसे महसूस कर सकते हैं क्योंकि शायद तब यह सही से लगा नहीं होगा पर अगर यह सही से इस्तेमाल किया गया है तो आप इसे बिल्कुल भी महसूस नहीं कर पाएँगे और आपको महसूस नहीं होगा कि आपके शरीर में कुछ बाहरी तत्व भी मौजूद है।

4. बार–बार एक ही कप लगाने से इंफेक्शन हो सकता है।

मेंस्ट्रूअल कप चिकित्सीय गुणवत्ता वाले सिलिकॉन से बना होता है जिसे स्टेरलाइज यानी पानी में दो–तीन मिनट तक उबाल कर बार–बार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसे कम–से–कम 10 वर्षों तक इस्तेमाल करना पूरी तरह सुरक्षित होता है, बस हमें हर मासिक के पहले और खत्म होने पर इसे स्टेरलाइज करना होता है। यह आपको पैड और कपड़े के गीलेपन और इन्फेक्शन के खतरे से भी सुरक्षित रहता रखता है।

5. टॉयलेट जाने के लिए इसे निकालना पड़ेगा / टॉयलेट करते समय यह बाहर आ सकता है।

यह बिल्कुल भी सही नहीं है। टॉयलेट के बाहर आने और मासिक धर्म के रक्त के बाहर आने के रास्ते अलग–अलग होते हैं। मेंस्ट्रूअल कप के साथ टॉयलेट जाने में कोई दिक्कत नहीं आती।

6. खून इकट्ठा होने पर अगर लेटेंगे तो खून वापस शरीर के अन्दर जाकर दिक्कत कर सकता है।

कप शरीर के अन्दर ही खून एकत्रित करता है तो यह उसी प्रकार होता है जैसे वही खून शरीर से बाहर आने से पहले शरीर में होता है। दूसरी बात कि खून को बाहर निकालने के लिए हमारा गर्भाशय लगातार मरोड़े करता है, जिसके जरिये वह खून को बाहर की तरफ धकेलता है। इस तरह से हम समझ सकते हैं कि उसके वापस जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

7. कप बाहर निकालने में खून फैल जाएगा और यह बहुत गंदा लगेगा।

ऐसा हो सकता है, पर थोड़ी सावधानीपूर्वक कप को बाहर निकालने से इस स्थिति से बचा जा सकता है। इसके लिए कप के आखिरी छोर पर बनी पूँछ को बाहर की तरफ खींच कर इसे हल्का सा दबा दें, इससे कप में बना वैक्यूम टूट जाएगा, फिर कप को मुड़ा हुआ ही धीरे से बाहर निकाल लें। इससे रक्त फैलने से बच सकता है।

मेंस्ट्रूअल कप से जुड़ी कुछ और बातें हमें पता होनी चाहिए जैसे कि इसे कितनी–कितनी देर में खाली करना पड़ेगा। इसका पता करने के लिए शुरुआत में 6–7 घंटे में कप को निकाल कर चेक करें। अगर यह थोड़ा खाली है तो इसका मतलब है कि आप इसे एक–दो घंटे और यानी कि कुल 8–9 घंटे में खाली करेंगे। अगर ज्यादा खाली है यह समय आपके लिए कुल 12 घंटे तक भी हो सकता है। इसको खाली करने का समय, आपको कितना रक्तस्राव होता है, इस पर निर्भर करता है और हाँ इसको खाली करने के बाद आप इसे सादे पानी से धुल कर पुन: प्रयोग में ला सकते हैं। मासिक के अन्त में जब आपका रक्तस्राव खत्म हो जाएगा तब आप इसको स्टेरलाइज करके ही वापस रखें।

दूसरा मुख्य सवाल आता है, इसके साइज के चुनाव का। आमतौर पर जो महिलाएँ शादीशुदा नहीं हैं या सेक्सुअली एक्टिव नहीं हैं या कम एक्टिव हैं उनके लिए स्मॉल साइज ठीक रहता है। जो महिलाएँ सेक्सुअली एक्टिव हैं, पर बच्चों को जन्म नहीं दिया है, उनके लिए मीडियम और जो महिलाएँ एक या दो बच्चों को जन्म दे चुकी हैं उनके लिए बड़ा साइज बेहतर रहेगा।

ऐसी महिलाएँ या लड़कियाँ जिन्हें बहुत ज्यादा रक्तस्त्राव होता है वह भी बड़े साइज का चुनाव कर सकती हैं, जिससे बार–बार कप को खाली करने की असुविधा से बच सकती हैं।

मेंस्ट्रूअल कप से जुड़ी एक और बात जो अक्सर लड़कियों को इसे इस्तेमाल करने से रोकती है, वह है इसको स्टेरलाइज करना। हमारे समाज में जहाँ मासिक धर्म वाली महिला या लड़की को आज भी धार्मिक स्थलों और किचन जैसी जगहों से दूर रखने की कोशिश की जाती है, वहाँ किचन में मेंस्ट्रूअल कप को खाना बनाने वाली गैस चूल्हे पर उबालने को लेकर कई माएँ या घर वाले आपत्ति कर सकते हैं। इसके बाजार में विकल्प मौजूद हैं। इसको स्टेरलाइज करने के लिए भी कई प्रकार के यंत्र उपलब्ध हैं जिनमें आप पानी भर के कप को साफ कर सकते हैं।

हालाँकि यह आपकी जेब पर भार को थोड़ा बढ़ा जरूर देगा। पर यदि आप एक बर्तन बनाकर इसे रेगुलर गैस में उबाल कर इसे स्टेरलाइज करते हैं तो उसकी लागत भी कम हो जाती है और इस तरह से इस्तेमाल करना पूरी तरह सुरक्षित है।

आमतौर पर मेंस्ट्रूअल कप ढाई सौ से तीन सौ रुपये तक में आते हैं। अगर 40 वर्षों तक मासिक धर्म से गुजरने वाली महिला चार कप इस्तेमाल करती है तो उसका कुल खर्च करीब ग्यारह सौ रुपये मात्र आएगा। वहीं बात करें पैड्स की तो एक औसत पैड की कीमत करीब पाँच रुपये होती है। यदि एक मासिक में 16 पैड इस्तेमाल करें तो लागत है, 80 रुपये। इस हिसाब से 40 सालों में कुल खर्च 38,400 बैठता है।

इन तथ्यों को जानने के बाद हमारे जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि इतना सस्ता, स्वास्थ्याप्रद, सुविधाजनक और पर्यावरण अनुकूल साधन हमारे पास उपलब्ध है तो सरकारी संस्थाएँ पहल ले कर इसका प्रचार–प्रसार क्यों नहीं करतीं? जिस तरह पैड का प्रचार करने के लिए पैडमैन फिल्म तक बन गयी? क्या इस सस्ते उपकरण के प्रचार के लिए कोई विज्ञापन तक नहीं बनाया जा सकता? बिलकुल किया जा सकता है, पर हमारी सरकार ऐसा करती नहीं। कारण साफ है, बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ जो इतने प्रकार के पैड्स/टैम्पून्स बना कर दिन–रात मुनाफा कमा रही हैं, किसी भी तरह के टिकाऊ साधन से क्या वह ठप नहीं हो जाएगा!

हमारी पूँजीपति प्रेमी सरकार ऐसा होने नहीं दे सकती। देश की बहुतायत आबादी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उनका जीवनस्तर सुधारना या उन्हें सुविधा पहुँचाना इन धन्नासेठों का मकसद नहीं है। यह आबादी उनके लिए मात्र सस्ता श्रम और सस्ता वोट है, जिन्हें भूखा रखकर, 5 किलो राशन से उनका वोट खरीदा जा सकता है।

एक तथ्य और है कि इस व्यवस्था में आप किसी भी समस्या का कोई टिकाऊ समाधान नहीं देखेंगे। हमेशा आपको महँगे और क्षणिक उपाय बताए जाएँगे, जो कुछ देर तो काम करेंगे और उन्हें बार–बार आपको खरीदना पड़ेगा या बार–बार इस्तेमाल करना पड़ेगा, जिससे यह धंधे चलते रहते हैं।

इस कारण से जरूरी है कि हम इसी तरह एक दूसरे के साथ जरूरत की जानकारी साझा करते रहें, एकजुट रहें तभी हम अपने लिए एक बेहतर कल का निर्माण कर सकते हैं।

–– अनुषा तिवारी

Friday, September 13, 2024

कमाल की औरतें










 

(1)

देर तक औरतें अपने साड़ी के पल्लू में

साबुन लगाती रहती हैं

कि पोंछ लिए थे भीगे हाथ

हल्दी के दाग...अचार की खटास या थाली की गर्द

या झाड़ लिया था नमक

पोंछ लिया था छुटके ने अपना मटियाला हाथ


साथ इसके ये भी कि गठियाकर रखा था

जमाने भर का दर्द

सर्द बिस्तर पर निचुडने के बाद का माथा पोंछा था शायद

बाद मंदिर की आरती की थाली भी

बेचैनियों पर आँख का पानी भी


जमाने भर के दाग धब्बे को

एक पूरा दिन खोंसे रही

अपनी कमर के गिर्द

अब देर तक अपना पल्लू साफ करेंगी औरतें

कि पति के मोहक क्षणों में

मोहिनी–सी, नीले अम्बर–सी तन जायेंगी

ये कपड़े को देर तक धोती नजर आयेंगी

मुश्किल के पाँच दिनों से ज्यादा मैले कपड़े

जमाने का दाग


ये अपनी हवाई चप्पलों को भी धोती हैं देर तक

घर की चहारदीवारी के बाहर पैर ना रखने वाली

घूमती रहती हैं...अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूरदराज

ये जब भाग–भाग कर निपटाती हैं अपने काम

ये नाप आती हैं समन्दर की गहराई

देख आती हैं नीली नदी...चढ़ आती हैं ऊँचे पहाड़

मायके की उस खाट पर

अपने पिता के माथे को सहला आती हैं

जो जाने कब से बीमार है

इनकी चप्पलें हजार–हजार यात्राओं से मैली हैं

ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पायी जाती हैं


ये देर तक धोती रहती हैं मुँह की आग

भाप को मिले घड़ी भर आराम

ये चूडियों में फँसी कलाइयों को निकाल बाहर करती हैं

जब धोती हैं हाथ

ये लाल होंठों को रगड़ देती है

सफेद रूमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन

ये चैखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती हैं

पर रुकी रह जाती हैं...अपने बच्चों के लिए


ये देर तक धोती हैं

अपने सपने...अपने ख्याल...अपनी उमंगें

इतनी कि सफेद पड़ जाए रंग

ये असली रंग की औरतें

नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती हैं तुम्हारी असलियत

ये औरतें

अपनी आत्मा पर लगी तमाम खरोंचों को भी छुपा ले जाती हैं

और तुम कहते हो...

कमाल की औरतें हैं...

इतनी देर तक नहाती हैं!

 

(2)

ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियाँ

कभी झटक देती हैं धूप की ओर

अपने बिखरे सपनों को बुहार देती हैं


ये बार–बार मलती हैं आँखें

जब सहती हैं आग की दाह

ये चिमटे के बीच पकड़ सकती हैं

धरती की गोलाई

धरती काँपती है थर–थर


ये फूल तोड़ती हुई मायूस होती हैं

पूजा करती हुई दिखाती हैं तेजी

बड़बड़ाती हैं दुर्गा चालीसा

ठीक उसी समय ये सीधी करती हैं सलवटें

पति की झक्क सफेद कमीज की


इनकी पूजा के साथ

निपटाये गये होते हैं खूब सारे काम

ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं

बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी

तो बड़ी हसरत से छू लेती हैं उसमें

बने मोर के पंखों को

ये छोटे बेटे के पीछे पंख–सी भागती हैं

कि छूटती है बस स्कूल की

‘तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा’

इनके हाथों में लगा नमक

इनकी आँखों में पड़ जाता है


ये बार–बार ठीक करती हैं

घड़ी का अलार्म

ये आधी चादर ओढ़ कर सोयी औरतें

पूरी रात बेचैन कसमसाती हैं सांस रोके

इनकी हथेलियों में पिसती है एक सुबह

आँखों में लडखड़ाती है एक रात


ये उठती हैं तो दीवार से टिक जाती हैं

सम्भलती हैं, चलती हैं, पहुँचती हैं गैस तक

खटाक की आवाज के साथ

जल जाती हैं


और तुम कहते हो–

कमाल की औरतें हैं...

चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं!

–– शैलजा पाठक

Thursday, September 12, 2024

लापता लेडीज

 


 (फिल्म ‘लापता लेडीज’ को लेकर लिखा गया मेरा यह लेख अजय ब्रह्मात्मज के सम्पादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘सिनेमाहौल इंजीन’ में छपा है। इसमें फिल्म की एक चरित्र जया ने एक सार्वजनिक चिट्ठी लिखी है।)

मैं जया––

(‘लापता लेडीज’ फिल्म की चरित्र का आत्म–वक्तव्य)

नमस्कार मित्रों,

मैं जया हूँ। निर्देशक किरण राव की फिल्म ‘लापता लेडीज’ की एक चरित्र। आपने अगर फिल्म देखी होगी तो आपको जरूर याद होऊँगी। आखिर क्यों नहीं याद होऊँगी? मेरे ऊपर ही तो वो फिल्म बनी है। हाँ, कुछ–कुछ मेरी जैसी एक और चरित्र है फूल। हम दोनों ही उस फिल्म की लापता लेडीज हैं, जिनको हिन्दी में लापता औरतें कह सकते हैं। वैसे इस मामले में हम, यानी मैं और फूल, अकेली नहीं है। भारत में मेरी और फूल जैसी लाखों लेडीज लापता हैं। वे सदियों से लापता थीं और लापता रहीं। इस अर्थ में कि उनके होने या न होने को समाज में ज्यादा तवज्जो दिया नहीं जाता। वे घूंघटों में रहती रहीं और इस तरह अदृश्य रहीं। हिन्दी में एक शब्द है जो इस प्रक्रिया को बेहतर ढंग से कहता है। वो शब्द है–– असूर्यपश्या। इसके दो मायने हैं और वे दोनों एक दूसरे के करीब हैं। पहला मायना है–– जिसको सूर्य ने भी न देखा है, और दूसरा ये कि जिसने सूर्य को भी न देखा हो। यही लापता लेडीज रहीं।

वैसे अब तो जमाना काफी बदल गया है लेकिन अपने देश में करोड़ों की संख्या में ऐसी औरतें रही हैं जिनको पतियों ने भी शादी के बाद बरसों तक नहीं देखा और न उन्होंने अपने पतियों को। देखा तो रात के अन्धेरे में। इसी बात को ‘लापता लेडीज’ फिल्म में ढाबा चलाने वाली औरत मंजू माई कहती है कि औरतों के साथ लम्बे समय से ‘फिराड’ (फ्रॉड) होता रहा है।

जमाना बदला है, लेकिन अभी हमारे देश में, खासकर गाँवों में कई औरतें ऐसी होती हैं जो होकर भी नहीं होतीं। उनका समाज में कोई अस्तित्व नहीं होता। वैसे, वे होती हैं। यानी उनका जन्म होता है, शादी होती है, वे माँ बनती हैं और फिर बाल–बच्चों की परवरिश के बाद धीरे–धीरे बुढ़ापे और मृत्यु की तरह बढ़ती जाती हैं। लेकिन इस दौरान उनका कोई अपना वजूद नहीं बन पाता। वे किसी के द्वारा किसी व्यक्ति के रूप में याद नहीं रखी जातीं। उनकी सामाजिक पहचान यह होती है कि वे किसी की माँ होती है, किसी की पत्नी तो किसी की पतोहू। वे शायद खुद अपना नाम भूल चुकी होती हैं।

हाँ, साहित्य और कला ने ऐसी महिलाओं को जगह दी है। प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ की ‘धनिया’ लोगों को याद है। जैनेंद्र के उपन्यास ‘सुनीता’ की ‘सुनीता’ भी और ‘त्यागपत्र’ की ‘मृणाल’ यानी बुआ भी। टाल्सटाय की ‘अन्ना कैरेनिना’ तो विश्व साहित्य की अमर चरित्र है।

मैं आशा करती हूँ कि मैं और फूल भी कुछ अरसे तक याद रखी जायेंगी। ‘अन्ना कैरेनिना’ की तरह लम्बे समय तक भले न याद रखी जाएँ, लेकिन कुछ समय तक तो लोगों की स्मृति में मौजूद रहेंगी ही।

वैसे भारत में महिलाओं की औसत उम्र पुरूषों की तुलना में कम ही होती है। ग्रामीण अंचलों में तो और भी कम है। फिर हम ज्यादा समय तक कैसे याद रखी जायेंगी? हम भी तो ग्रामीण महिलाएँ हैं। काल्पनिक गाँवों की ही सही पर हम ग्रामीण ही हैं। भला हो निर्देशक किरण राव का जिन्होंने हम जैसी महिलाओं की एक जीवनी रच दी।

आप सब जानते हैं कि जीवनी एक साहित्यिक विधा भी है। उन लोगों की जीवनियाँ लिखी जाती हैं जिन्होंने समाज में कुछ ‘किया’ हो। मगर मेरी और फूल जैसी देश की करोड़ों महिलाएँ के ‘किये’ पर किसका ध्यान जाता है? हालाँकि ऐसी महिलाएँ जीवन भर खटती रहती हैं। इतना खटती हैं अपना कोई निजी जीवन नहीं जी पातीं। वे अक्सर अपना स्वाद भी भूल जाती हैं। यानी उनको एहसास भी नहीं रहता कि वे भोजन में क्या पसन्द करती हैं। वे अच्छा खाना बनाती हैं लेकिन अपने स्वादानुसार नहीं बल्कि अपने पति, श्वसुर या बच्चों के स्वाद के मुताबिक।

लापता लेडीज’ की वो चरित्र याद है आपको जिसका नाम है पूनम। न याद हो आपको बताती हूँ। शादी होने के बाद और घूंघट में होने की वजह से जब मैं दीपक के यहाँ पर पहुँच गयी तो उस घर में एक बड़ी बहू भी थी। उसका नाम था पूनम और उसका एक पाँच–छह साल का बच्चा भी था। वही शर्मीली सी और मासूम दिखनेवाली औरत जो बहुत अच्छा पोर्टेट बनाती है। हालाँकि वो भी इस बात से उदासीन हो गयी थी, वो कलाकार है और बहुत अच्छा व्यक्तिचित्र बनाती है। अगर वो फूल का पोर्टेट नहीं बनाती और उसके आधार पर इश्तिहार नहीं निकाला जाता तो दीपक अपनी खोई पत्नी को नहीं खोज पाता।

लेकिन सवाल यह है उसका या उस जैसी औरत की कोई जीवनी लिखी जा सकती है? मगर किरण राव ने उसकी जीवनी पर्दे पर लिख दी है। उसके जीवन का एक ठोस अस्तित्व बन गया।

कला, जिसमें साहित्य से लेकर फिल्में तक कई विधाएँ शामिल हैं, कई तरह के काम करती हैं। जैसे वे उन मसलों की तरफ भी हमारा ध्यान दिलाती है जो हमारे बीच में मौजूद तो होते हैं, किन्तु अप्रत्यक्ष हो जाते हैं। ऐसे लोगों या चरित्रों के बारे में हमारा, या समाज के एक बड़े वर्ग का ध्यान हीं नहीं जाता कि उनकी भी आशाएँ और आकांक्षाएँ हो सकती हैं, जो लड़कियाँ बहुएँ हैं।

मेरे माता–पिता भी मेरे बार–बार बताने के बाद यह समझ नहीं पाये कि मैं खेती के बारे में उच्च शिक्षा पाना चाहती हूँ। औरतों के बारे में एक आम धारणा बनायी गयी है कि जहाँ तक खेती का मामला है वे सिर्फ वहाँ खेत मजदूर बन सकती हैं। लेकिन वे किसान भी बन सकती हैं, कृषि के नये तरीके सीख और जान सकती हैं, कृषि वैज्ञानिक हो सकती हैं, यह चेतना अभी उस वर्ग में भी नयी आयी है जो नारीमुक्ति का पक्षधर या फेमिनिस्ट है। लेकिन मैं ऐसा करना चाहती हूँ। और जब मैं ऐसा कर लूँगी तो लापता लेडीज की श्रेणी में नहीं रहूँगी। स्टेशन पर उतरने के बाद गलत घर में नहीं जाऊँगी। और जब फूल भी कलाकंद बनाने के अपने कौशल का लाभ लेते हुए कहीं कोई छोटा–सा ढाबा या रेस्तरा खोल लेगी तो वो भी लापता नहीं रहेगी। उसे याद रहेगा कि उसके गाँव का नाम सूरजमुखी है। और पूनम भी लोगों के चित्र बनाकार, कलाकार बन कर, घर के भीतर और बाहर अपनी हैसियत बढ़ा लेगी।

ये हसरतें और चाहतें छोटी हैं, पर औरतें लापता न रहें इसके लिए ये सब होना जरूरी है। मानती हूँ कि आज बड़े पैमाने पर औरतें घर से बाहर निकल कर बड़ी जिम्मेदारियाँ निभा रही हैं। पर आज भी ऐसी करोड़ों महिलाएँ हैं जो घर से बाहर निकलते ही खो जाती हैं, क्योंकि सिर पर घूँघट रहता है तो वे न दुनिया देख नहीं पाती हैं और न दुनिया उनको देख पाती है। तो आइए सब मिलकर कहें – ‘घूँघट के पट खोल रे’।

(श्री रवीन्द्र त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से)

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Wednesday, September 11, 2024

क्लारा जेटकिन और उनका जीवन

 



औरतों के नौकरी करने से, मर्दो की नौकरियों की जगह कम हो जाती है। इस बात के जवाब में क्लारा जेटकिन ने कहा था कि यह स्त्रियों का नहीं, पूँजीवादी व्यवस्था का दोष है। उन्होंने कहा था कि श्रम की पूँजीवाद से मुक्ति के बिना महिला मुक्ति सम्भव नहीं है।
क्लारा जेटकिन का जन्म जुलाई 1857 में जर्मनी के सेक्सोनी प्रान्त में हुआ था उनकी माता जोसेफिन जर्मनी के आरम्भिक स्त्री आन्दोलन में सक्रिय रूप से भागीदार रही थीं।
अपनी शिक्षक बनने की पढ़ाई करने के बाद वह जर्मनी के महिला आन्दोलन और श्रमिक आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गयीं। क्लारा जेटकिन ने महिलाओं की मुक्ति के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण अपनाया जिसके बिना महिलाओं की पूर्ण मुक्ति सम्भव नहीं है। 1891 से 1917 तक क्लारा जेटकिन ने डाइ ग्लीछेट (इक्वलिटी) नाम से पत्रिका निकाली। इस पत्रिका में वह कारखानों में महिलाओं की स्थिति, श्रमिकों की गतिविधियों, हड़तालों के बारे में, महिला कारखाना निरीक्षकों की आवश्यकता के बारे में लिखतीं। महिलाओं से जुड़े ज्यादा से ज्यादा मुद्दों को इस पत्रिका में उठाया गया। इस पत्रिका के पाठकों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती गयी। उन्होंने स्टुटगार्ड में बुक बाइंडर यूनियन और टेलर्स एण्ड सिमस्ट्रेसेस यूनियन की सदस्य के रूप में भी अपनी भागीदारी रखी। इस यूनियन में रहते हुए उन्होंने श्रमिकों और महिलाओं के संगठन बनाने का काम शुरू किया।
सर्वहारा वर्ग की महिलाओं को भटकाव के रास्ते से रोकते हुए क्लारा जेटकिन कहती हैं कि सर्वहारा वर्ग की स्त्रियों को अपने ही वर्ग के पुरुषों को अपना शत्रु समझकर उनसे होड़ करने के बजाय, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर पूँजीवादी समाज के खिलाफ लड़ना चाहिए। कामकाजी औरतें जो घर से बाहर निकलकर नौकरी करने को ही स्वतंत्रता मान लेती हैं, उनसे कहा कि नौकरी करना स्वतंत्रता की पहली शर्त है, उसकी उपलब्धि नहीं है।
1890 में क्लारा जेटकिन की प्रेरणा और मजदूर वर्ग की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रयास से जर्मनी में समाजवादी महिला आन्दोलन उभरा। उन्होंने समान अधिकार और समान वेतन की माँग की। आन्दोलन की मुख्य माँगें थीं–– काम के घंटे कम करना, पुरुषों के बराबर मजदूरी, बाल मजदूरी का उन्मूलन, महिला मजदूरों के जीवन यापन की परिस्थितियों में सुधार।
क्लारा जेटकिन ने 17 अगस्त को पहले अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन का ऐलान किया। संयुक्त राज्य अमरीका और यूरोप से 58 प्रतिनिधियों ने इसमें भागीदारी की। इस सम्म्मेलन में महिलाओं के वोट के अधिकार का प्रस्ताव रखा गया जिसे सर्वसहमति से स्वीकार किया गया।
न्यूयॉर्क शहर में भी 1908 और 1909 में कपड़ा मिल मजदूर महिलाओं के बड़े–बड़े आन्दोलन हुए। 8 मार्च 1911 को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पूरे यूरोप में एक लाख महिलाओं ने प्रदर्शन किये। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का प्रस्ताव क्लारा जेटकिन ने इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में रखा था। यह कॉन्फ्रेंस कामकाजी महिलाओं के लिए आयोजित की गयी थी। इस कॉन्फ्रेंस में 17 देश से 100 से अधिक महिलाएँ शामिल हुई थीं।
जेटकिन ने कामकाजी वर्ग की महिलाओं को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी और वर्षों तक कठिन संघर्ष किया। महिलाओं को संगठित करना, पुरुषों की तुलना में कठिन था। जैसे, महिलाएँ अकुशल मजदूर थीं और बच्चों के पालन–पोषण के लिए अक्सर उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती थी। इन सबके अलावा कानूनी बाधाएँ भी थीं जिनके चलते महिलाओं को संगठन में शामिल करना मुश्किल था।
1860 के दशक में सेक्सोनी प्रान्त में जो कपड़ा उद्योग का केन्द्र था, अधिकांश महिला मजदूर ही काम करती थीं। उन्होंने समान अधिकार और समान वेतन की माँग की। 1870 के दशक में अपने संगठन के सदस्यों की चेतना बढ़ाने के लिए महिलाओं के शैक्षणिक संघ खोले गये। हालाँकि इनको राष्ट्र के लिए खतरा बताकर पुलिस द्वारा बन्द करवा दिया गया।
क्लारा जेटकिन के काम के केन्द्र में सिर्फ महिलाएँ ही नहीं थीं। बल्कि वे महिलाओं और पुरुषों के बीच में एकता स्थापित करना चाहती थीं। उनका मानना था कि कामकाजी औरतें और कामकाजी पुरुष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। रूस की यूनियन में भी पुरुष और महिलाएँ दोनों ही शामिल थे। जर्मनी में संगठन में महिलाओं के लिए बाधा दूर करने में एक पीढ़ी लग गयी।
कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के बाद क्लारा ने रोजा लग्जमबर्ग के साथ मिलकर अखबार निकालने का काम शुरू किया था। क्लारा ने अपना जीवन मुक्ति की राह के लिए संघर्ष पर चलते हुए बिताया। क्लारा ने महिला मुक्ति और महिला मुद्दों पर लेनिन से भी चर्चा की। उन्होंने महिलाओं के वोट डालने के अधिकार के लिए संघर्ष किया और विपरीत परिस्थितियों में भी संगठन बनाने का काम जारी रखा। जिन परिस्थितियों में महिलाएँ नौकरी छोड़ देती थीं, उन स्थितियों में भी उन्होंने संगठन और आन्दोलन का काम जारी रखा। अपने विचारों को पत्रिका और अखबार छापकर या पर्चे–पुस्तिका लिखकर अलग–अलग तरीके से लोगों तक पहुँचाने का प्रयास किया। कई देशों की महिलाओं को अपनी गोष्ठियों में शामिल किया। अपने संगठन की महिलाओं की वर्ग चेतना लगातार बढ़ाने और उन्हें वर्ग संघर्ष में शामिल करने का प्रयास किया। उन्होंने महिला आन्दोलन में सर्वहारा वर्ग के सामान्य मुद्दों को शामिल करके महिला आन्दोलन को सही रास्ते पर चलाने का प्रयास किया।
–– शालू


Monday, September 9, 2024

गाजा पर इजरायली हमला और महिलाएँ

 


जब मैं युद्ध से लौटूँ, अगर मैं लौट पाऊँ,

मेरी आँखों में मत देखना, मत देखना वह सब जो मैंने देखा। 

इजरायल द्वारा फिलीस्तीन पर लगातार हमलों और वहाँ के नागरिकों पर बर्बर अत्याचार का इतिहास यूँ तो पुराना है, पर पिछले कुछ महीनों से जिस तरह इजरायल ने वहाँ हमले किये हैं और फिलिस्तीनियों को नेस्तनाबूद करने और उसकी आने वाली नस्लों को ही हमेशा के लिए खत्म कर देने का जो वहशी अभियान छेड़ा है उसने इनसानियत की सारी हदें पार कर दी हैं। उसने युद्ध के अन्तरराष्ट्रीय नियमों के परखच्चे उड़ा दिये हैं। लगभग छह महीने से गाजा में इजरायली सुरक्षाबलों और हमास के बीच संघर्ष जारी है। ‘मिडिल ईस्ट आई’ की रिपोर्ट के हवाले से ‘हमास’ द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी के अनुसार जून तक गाजा पट्टी पर इजरायली हमलों में फिलिस्तीनियों की मौत की संख्या बढ़कर 36,731 हो गयी है, जबकि 83,530 लोग घायल हो गये हैं। इन हमलों में 70 प्रतिशत बच्चे, महिलाएँ और बुजुर्ग हैं। एशियानेट के अनुसार यहाँ हर 10 मिनट पर 6 बच्चे मारे जा रहे हैं। लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कार्यरत संयुक्त राष्ट्र की इकाई ‘यू एन वूमेन’ ने कहा है कि गाजा में अब तक लगभग 9000 महिलाओं को बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया है। हर दिन औसतन 63 महिलाएँ मारी जाती होंगी। एक अनुमान के मुताबिक गाजा में हर दिन 37 माँओं की हत्या कर दी जाती है, जिससे उनके परिवार तबाह हो जाते हैं और उनके बच्चों की सुरक्षा कम हो जाती है। वे सिर्फ मारी ही नहीं जा रही हैं बल्कि युद्ध की विभीषिका झेलते हुए बल्कि रोज अपने मासूम बच्चों, पति या किसी और करीबी की मौत का मंजर देख रही हैं, अपने लाडलों की कब्र अपने हाथों बना रही हैं।


अधिकाँश महिलाएँ हर समय अपनों को खो देने के लगातार खौफ में जीती हैं। लगातर तनाव, असुरक्षित माहौल, भोजन और नींद की कमी ने उन्हें तमाम बीमारियों से ग्रस लिया है।

यू एन वूमेन’ के अनुसार लगभग 84 प्रतिशत महिलाएँ यानी 5 में से 4 महिलाएँ बताती हैं कि उनका परिवार अब बहुत कम भोजन करता है। महिलाओं का कहना है कि परिवार के लिए भोजन का जुगाड़ करना उनके ही जिम्मे होता है, इसलिए वे इजरायली सैनिकों से बचते–बचाते भोजन का इन्तजाम करती हैं, जो पूरे परिवार के लिए नहीं हो पाता, इसलिए परिवार का हर सदस्य थोड़ा–थोड़ा भोजन खाता है। 87 प्रतिशत यानी लगभग 10 में से 9 महिलाएँ पुरुषों की तुलना में भोजन का बन्दोबस्त करने में बहुत परेशानी झेलती हैं।

 5 में से 4 महिलाओं ने यह बताया है कि उनके परिवार के कम–से–कम एक सदस्य ने बीते हफ्ते में भोजन छोड़ा है। ये उनकी मर्जी नहीं बल्कि भोजन न होने के चलते उनकी मजबूरी है। इनमें से 95 प्रतिशत मामलों में घर की महिलाएँ कई दिनों तक कुछ भी नहीं खातीं, क्योंकि वे लाया गया भोजन अपने बच्चों को खिला देती हैं। ताकि बच्चे कम–से–कम एक वक्त का खाना तो ढंग से खा पाएँ। कई बार तो उन्हें कूड़ेदान या मलबों में से भोजन ढूँढना पड़ता है।

कई रिपोर्टों के अनुसार युद्ध क्षेत्र में मासिक धर्म का समय महिलाओं और लड़कियों के लिए भारी गुजरता है। लगातार बमबारी, ध्वंस होते घर, सेनेटरी नैपकिन और कपड़ों और पानी का भयंकर अभाव उनमें और बीमारियाँ पैदा करता है। अक्सर वे मासिक धर्म रोकने की दवा खाती हैं (अगर उपलब्ध हुई)।

मिडिल ईस्ट आई’ की रिपोर्ट के अनुसार गाजा में लगातार महिलाओं और लड़कियों को तलाशी के नाम पर कपड़े उतारने पर मजबूर करना, यौन हिंसा के अन्य कुत्सित रूप और बलात्कार का शिकार बनाना जारी है।

गाजा में जो कुछ चल रहा है वह जघन्य अपराध है। नस्लवादी नफरत, क्षेत्रीय दादागिरी और हथियारों की बिक्री का अनन्त लालच इस युद्ध को जारी रखने के कारण हैं। इन कारणों को जल्दी से जल्दी दफन हो जाना चाहिए।

–– आशु वर्मा

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Sunday, September 8, 2024

मोदी सरकार के दस सालों में एकल महिला (सिंगल वुमन) की बिगड़ती स्थिति

 


2011 की जनगणना के आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि भारत में अकेली रहने वाली महिलाओं (सिंगल वुमन) की संख्या कम नहीं है। उनकी संख्या में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जहाँ 2001 में यह संख्या पाँच करोड़ बारह लाख थी, वह 2011 में बढ़कर सात करोड़ चैदह लाख हो गयी थी। इसमें विधवा, तलाकशुदा, अविवाहित महिलाएँ और पतियों द्वारा छोड़ी गयी महिलाएँ शामिल थीं। इनमें 25–29 उम्र की एकल महिलाओं में सबसे अधिक 68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी और 20–24 वर्ष उम्र की महिलाओं में 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। भारत में रहने वाली एकल महिलाओं में ग्रामीण इलाके में रहने वाली महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा 62 प्रतिशत है। 2011 के बाद से अभी तक दस साला जनगणना नहीं हुई है, लेकिन फेसबुक कम्युनिटी ‘स्टेटस सिंगल’ की संस्थापक श्रीमई पियू कुंडू के अनुसार भारत में एकल महिलाओं की संख्या अब तक 10 करोड़ से भी ज्यादा हो गयी होगी। यह देश की कुल महिला आबादी का 14 प्रतिशत से भी बड़ा हिस्सा है, यानी हर 100 महिलाओं में 14 से ज्यादा महिलाएँ ऐसी हैं, जो अकेले रह रही हैं।

नेशनल फोरम फॉर सिंगल वुमन्स राइट्स (एनएफएसडब्ल्यूआर) द्वारा आयोजित एक बैठक में चर्चा की गयी कि ऐसी कितनी महिलाएँ हैं जो वास्तव में घर की मुखिया हैं और अपने बच्चों का भरण–पोषण करती हैं, फिर भी राशन कार्ड में उन्हें परिवार के मुखिया के रूप में नामित नहीं किया गया है और उन्हें कोई भी सरकारी सुविधा नहीं मिलती है।

एनएफएसडब्ल्यूआर की सचिव सुहागिनी टुडू ने बताया कि झारखण्ड में आदिवासी महिलाएँ अपने नाम पर जमीन नहीं रख सकती हैं और वे कानून को बदलने के लिए लड़ रही हैं। कमोबेश यही हालात उन एकल महिलाओं की भी है जो शहरों में रह कर अपना और अपने परिवार का भरण–पोषण कर रही हैं।

अकेली महिला को पुरुष ललचाई नजरों से देखते हैं, जिससे बच पाना महिला के लिए मुश्किल होता है। उनकी दिक्कतों की शुरुआत किराये पर मकान लेने से बढ़ते हुए, निवास स्थान, कार्यक्षेत्र में आस–पास छेड़छाड़ और लगातार बढ़ते आर्थिक संकट और कई बार आत्महत्या पर खत्म हो रही है।

9 अक्टूबर 2023 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022–23 जारी की। यह रिपोर्ट साफ बताती है कि देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर में वृद्धि हुई है। जहाँ 2022 में यह भागीदारी दर 32–8 प्रतिशत थी, वहीं 2023 में यह बढ़कर 37 प्रतिशत हो गयी है। रिपोर्ट में यह सुझाव भी दिया गया है इस दर को 2030 तक 43.4 प्रतिशत करने की जरूरत है।

अब सवाल यह उठता है कि जहाँ एक ओर सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय समाज में महिलाओं की श्रम में भागीदारी को बढ़ाने का सुझाव दे रहा है, वहीं दूसरी ओर पिछले दस सालों में मोदी सरकार ने इन एकल महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए क्या किया है और इनके लिए अलग–अलग योजनाओं में कितना पैसा आवंटित किया तथा उन पर कितना खर्च किया है?

दिसम्बर 2018 (इसके बाद के आँकड़ें उपलब्ध नहीं हैं) तक मिले आँकड़ों के अनुसार, महिला एवं बाल–विकास मंत्रालय ने महिलाओं के लिए महिला छात्रावास योजना में, महिला छात्रावासों में सुरक्षा गार्ड रखने और सीसीटीवी कैमरे लगाने में, कैदियों के बच्चों के लिए स्वच्छ और हवादार डे केयर सेंटर, प्राथमिक चिकित्सा और वॉशिंग मशीन और गीजर तथा सौर ऊर्जा प्रदान करने और किफायती आवास देने के नाम पर जितनी धनराशि आवंटित करने की घोषणा की उससे बहुत कम राशि जारी की। मसलन 2015–16 में आवंटित धनराशि 28 करोड़ थी, मगर जारी की गयी मात्र 12.19 करोड़, यानी आधे से भी कम। 2016–17 में आवंटित धनराशि थी 28 करोड़ और जारी की गयी मात्र 23.13 करोड़ रुपये। आवंटित धनराशि को 2017–18 में 50 करोड़ कर दिया गया लेकिन जारी किया मात्र 26.96 करोड़। यही हाल 2018–19 में रहा, 52 करोड़ रुपये आवंटित हुए और दिसम्बर 2018 तक मात्र 26.12 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

आँकड़ों को देखने पर यह करोड़ों की धनराशि लगती है लेकिन 2018 में एकल महिलाओं की संख्या 7.2 करोड़ थी यानी हर महिला पर सालाना करीब साढ़े तीन रुपये मात्र खर्च हुए। आँकड़ों का यह खेल चैंका देने वाला है।

पहली बात तो ये ही है कि हमारे देश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, जो महिलाओं के अधिकार पर हमला करती है और दूसरा इसमें एकल महिला, महिलाओं में भी सबसे हाशिये पर हैं। जहाँ ऐसे तबके के प्रति सरकार को अधिक संवेदनशील होना चाहिए था, इसके उलट सरकार के पास उनके लिए कोई भी ठोस नीति नहीं है। हाल तो यह है कि कथित तौर पर महिला हितैशी सरकार महिलाओं के नाम पर बजट पास कर ढिंढोरा तो खूब पीट रही है लेकिन जमीन पर कुछ भी नहीं पहुँच रहा है। उदाहरण के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कामकाजी महिला छात्रावास योजना को आवंटित राशि 2018 में 52 करोड़ रुपये थी लेकिन असल में इसका आधा हिस्सा भी सरकार द्वारा नहीं दिया गया।

दूसरी ओर 2018 के बाद मौजूदा सरकार ने ये आँकड़े भी निकालने बन्द कर दिये हैं। 2023–24 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का कुल बजट 25,449 करोड़ रुपये था। इसके अनुसार भी अनुमान लगाएँ तो सिर्फ एकल महिलाओं के हिस्से, जिनकी संख्या 10 करोड़ है, 7 रुपये प्रतिदिन आते हैं। सरकार कितनी महिला हितैशी है, इसकी सच्चाई आँकड़े बयान कर रहे हैं।

मौजूदा सरकार तथा पूँजीवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं को असली अधिकार दिलाने में असमर्थ है। एक न्यायपूर्ण समता पर टिके समाज में ही महिलाओं की असली मुक्ति हो सकती है।

–– जैनब