हमारे
देश में करीब 550 महिला संरक्षण गृह हैं। संरक्षण गृह से मतलब है ऐसी जगह जहाँ
महिलाओं को सरंक्षित रखा जाये। यहाँ पर ऐसी बच्चियों या महिलाओं को जगह दी जाती है
जिनका कोई संरक्षक नहीं होता, यानी माता–पिता या पति नहीं हो या वे अवांछित हों क्योंकि हमारे समाज में महिलाओं का
कोेई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना जाता। उसका अस्तित्व ही किसी पुरुष के साथ जोड़कर
देखा जाता है। इस तरह के संरक्षण गृह राज्य सरकारों द्वारा चलाये जाते हैं या
सरकारी अनुदान से चलते हैं।
पिछले
साल सरकार द्वारा अनुदानित ऐसे ही एक महिला संरक्षण गृह से ऐसा सच सामने आया जिसने
सभी को झकझोर कर रख दिया। घटना मुजफ्फरपुर, बिहार
की है जहाँ तीस से भी ज्यादा बच्चियों का लगातार यौन शोषण किया गया। उनमें से कई
बच्चियाँ गर्भवती भी पायी गयीं। इन सभी की उम्र मात्र 7 से 17 वर्ष के बीच थी।
पॉक्सो
कोर्ट में बच्चियों ने बलात्कारियों की पहचान ‘तोंद
वाले अंकल’, ‘मूँछ वाले अंकल’ और ‘नेता जी’ के नाम से की। उनमें से एक की पहचान
उन्होंने “हंटर वाले अंकल” के नाम से
की जो कोई और नहीं बल्कि सरंक्षण गृह का संचालक ब्रजेश ठाकुर था।
बच्चियों
ने अपने बयान में कई दर्दनाक खुलासे किये जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें नग्न
सोने पर मजबूर किया जाता था। विरोध करने पर उनको मारा–पीटा जाता था और गर्म पानी से जलाया जाता था। इतने पर भी कोई नहीं मानता
तो कई–कई दिनों तक भूखा रखा जाता था। पेट के कीड़े मारने की
दवा के नाम पर नशे की गोलियाँ दी जाती थीं, जिससे बच्चियाँ
कुकर्मों का विरोध नहीं कर पाती थीं। सुबह उठने पर उन्हें शरीर पर चोटें मिलती थीं
और निजी अंगों में दर्द महसूस होता था। संरक्षण गृह की महिला कर्मचारियों से इसकी
शिकायत किये जाने पर वह भी उन्हें डराती–धमकाती थी। जाहिर है
कि मामले में उनकी भी पूरी भागीदारी थी।
मामले
का खुलासा फरवरी 2018 को हुआ जब टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज ने मुजफ्फरपुर
के संरक्षणगृह में गड़बड़ी की रिपोर्ट समाज कल्याण समिति को सौंपी। इतने संवेदनशील
मामले में भी सरकार ने तीन महीने की लेट–लतीफी
के बाद कहीं जाकर 31 मई को ब्रजेश ठाकुर, चाइल्ड वेलफेयर
कमेटी के अध्यक्ष और संरक्षण गृह की महिला कर्मचारियों समेत दस लोगों के खिलाफ एफ
आई आर दर्ज करवायी। ब्रजेश ठाकुर बिहार का एक रसूखदार व्यक्ति है, जिसके अच्छे सम्बन्ध बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के पति के
साथ हैं। कानूनी कार्रवाई करने में देरी की वजह इन बड़े चेहरों को बचाने की कोशिश
भी थी।
इस
तरह सरकार द्वारा अनुदानित संरक्षण गृहों में होने वाली यह अकेली घटना नहीं है।
इसी साल उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक आश्रय गृह में भी लड़कियों के साथ यौन शोषण
का मामला सामने आया, जहाँ से अठारह
लड़कियाँ गायब मिलीं। पुलिस लापता लड़कियों का अबतक कोई सुराग नहीं लगा पायी है। वह
जीवित भी हैं या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है।
गुवाहाटी,
दिल्ली, नोएडा, उत्तर
प्रदेश के प्रतापगढ़ और हरदोई तथा बिहार के ही चार दूसरे संरक्षण गृहों में भी इसी
तरह की दिल दहला देने वाली घटनाएँ सामने आयी हैं।
देश
के कई राज्यों से सामने आने वाली ये घटनाएँ हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि
एक राज्य में कई बाल संरक्षण अधिकारियों, बाल
कल्याण आयोगों और किशोर न्याय बोर्डों की मौजूदगी के बावजूद भी यह सब कैसे सम्भव
है? जाहिर है कि इन घिनौने कुकृत्यों में प्रशासनिक स्तर तक
के लोग शामिल हैं, जिनके लिए कानून सजा देने का नहीं बल्कि
संरक्षण देने का काम करता है। इस व्यवस्था में जहाँ महिलाएँ घर और समाज में
सुरक्षित नहीं हैं, यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे
संरक्षण गृहों में सुरक्षित रहेंगी। जहाँ तक कानून की बात है तो कोई भी कानून
अपराधी को सजा देने के लिए बनाया जाता है, इसलिए नहीं कि
अपराध हो ही न। इस व्यवस्था में सुधार कर देने या नये कानून मात्र बना देने से इस
तरह की घटनाओं को रोका नहीं जा सकता।
सवाल
यहाँ लोगों की मानसिकता का भी है। यह पूँजीवादी व्यवस्था जहाँ हर चीज फायदे और
नुकसान के लिए होती है, वहाँ इनसान के जीवन
या बच्चों की मासूमियत की कोई कीमत नहीं है। यह व्यवस्था तो सभी को सामान की तरह
देखती है जिसका व्यापार किया जा सके और उससे मुनाफा कमाया जा सके। संरक्षण गृह की
महिला कर्मचारी भी इसी सोच से संचालित होकर इन कुकृत्यों में शामिल थीं।
तय है
कि इस आदमखोर और मुनाफे पर आधारित व्यवस्था में इनसान की जिन्दगी जीने का हक सिर्फ
उन्हीं को है, जो इस व्यवस्था को चलाते हैं। आज
हमारे लिए सवाल इस व्यवस्था में आमूल–चूल परिवर्तन का है।
इसे जड़ से उखाड़ फेंकने का और एक नये समाज के निर्माण का है।
–– अपूर्वा तिवारी
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
No comments:
Post a Comment