‘मी टू’ अभियान (यानी ‘मेरे साथ
भी’) पिछले साल भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत अधिक
चर्चा में रहा। इस अभियान में महिलाओं ने कार्यस्थल पर या निजी जगहों पर अपने साथ
हुए यौन शोषण और उत्पीड़न की दर्दनाक कहानियाँ सुनायी। मी टू अभियान की शुरुआत सबसे
पहले 2006 में अमरीकी–अफ्रीकी मानवाधिकार कार्यकर्ता तराना
बुर्के ने की थी, जिनके साथ 6 साल की उम्र में बलात्कार हुआ
था। इसके बाद 2017 में अमरीका की एलिसा मिलानो ने हॉलीवुड की जानी मानी हस्ती
हार्वी वाइन्सटाईन के खिलाफ सोशल मीडिया पर आरोप लगाया। इस तरह उन्होंने एक बार
फिर से मी टू अभियान को पुनर्जीवित किया। उसके बाद तो अमरीका में अपनी आपबीती
सुनाने वाली महिलाओं की बाढ़ सी आ गयी।
भारत
में मी टू अभियान तब शुरू हुआ, जब तनुश्री
दत्ता ने नाना पाटेकर के ऊपर अपने यौन शोषण का आरोप लगाया। 25 सितम्बर 2018 को एक
इंटरव्यू में तनुश्री दत्ता ने कहा कि 2008 में अपनी एक फिल्म “हॉर्न ओके प्लीज” के सेट पर एक गाने की शूटिंग के
दौरान नाना पाटेकर ने उनके साथ गलत तरह का व्यवहार किया था। उस समय जब उन्होंने इस
मामले में आवाज उठायी, तब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के
द्वारा घेराव करवाकर उनकी गाड़ी को तोड़ने की कोशिश की गयी थी। अब फिर से मी टू
अभियान के तहत उन्होंने अपनी बात सबके सामने रखी। देखने वाली बात यह है कि पदमश्री
पुरस्कार से सम्मानित नाना पाटेकर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ तौर पर तनुश्री
द्वारा लगाये गये सभी इल्जामों को झूठा करार दिया, यहाँ तक कि
उन्होंने तनुश्री के खिलाफ ही एक लीगल नोटिस भी भिजवा दिया। भारत जैसी सामाजिक
जमीन पर जहाँ पुरुषों की बात को सर्वमान्य और महिलाओं की कही बातों को हमेशा ही
सन्देह की दृष्टि से देखा जाता रहा है, वहाँ इससे अधिक
कल्पना भी क्या की जा सकती है, चाहे महिला उच्च वर्ग से ही
क्यों न हो।
जैसे–जैसे यह अभियान आगे बढ़ा, फिल्म और टीवी जगत की और भी
बड़ी–बड़ी हस्तियों की हकीकत सामने आने लगी। क्वीन फिल्म के
डायरेक्टर विकास बहल, स्टैंड अप कॉमेडियन उत्सव चक्रबर्ती,
युवाओं के बीच बहुत अधिक चर्चित अंग्रेजी लेखक चेतन भगत, रजत कपूर और कैलाश खेर पर भी इस अभियान के दौरान आरोप लगे। जाने माने
फिल्म निर्देशक साजिद खान पर तो एक से अधिक महिलाओं ने यौन शोषण का इलजाम लगाया और
बताया कि किस तरह अपनी फिल्म में काम करने वाली महिला कलाकारों पर वो अपना अधिकार
समझते हैं। पदमभूषण से सम्मानित और 7 बार नेशनल अवार्ड पा चुके एक तमिल कवि और
गीतकार वेरामुत्तु स्वामी जैसे नामी लोगों पर मी टू अभियान के जरिये यौन शोषण के
आरोप दर्ज किये गये हैं।
कोई
व्यक्ति कितने ही बड़े पद पर क्यों न पहुँच जाये, पर जिस पितृसत्तात्मक सोच के तहत हमारे समाज में किसी स्त्री और पुरुष की
परवरिश की जाती है, वहाँ एक पुरुष के लिए महिला अपने उपभोग
की एक वस्तु मात्र है। अपवादों को छोड़ दें तो जितने बड़े पद पर कोई पुरुष होता है,
वह अपने नीचे काम करने वाली स्त्रियों पर उतना ही अपना एकाधिकार
समझता है। स्त्रियों की अपनी इच्छा का तो यहाँ कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
विंता
नन्दा पुराने और जाने माने धारावाहिक “तारा”
की लेखिका और प्रोड्यूसर हैं। उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट के जरिये,
हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों में एक आदर्श पिता और व्यक्ति की छवि
वाले ‘आलोकनाथ’ का असली चेहरा सबके
सामने लाकर रख दिया जो बेहद वीभत्स और शर्मनाक था। उन्होंने बताया कि 19 साल पहले “तारा” के सेट पर ही किस तरह आलोकनाथ ने उनके साथ
बदतमीजी की और उसके बाद बलात्कार तक किया। उन्होंने लिखा कि आज बड़ी हिम्मत करके वह
अपने साथ हुए इस हादसे के बारे में लिख पा रही हंै। एक महिला ही समझ सकती है कि जब
उसकी मर्जी के बिना कोई उसके साथ जबरदस्ती करे और सालों पहले हुई घटना को फिर से
लिखना कितना दर्दनाक होता है। उन्होंने बताया की आलोकनाथ किस तरह सेट पर शराब पीकर
आता था और बदतमीजी किया करता था। एक अन्य टीवी एक्टर संध्या मृदुल ने भी आलोकनाथ
द्वारा ही अपने साथ किये गये गलत व्यवहार के बारे में बताया। चैकाने वाली बात है
कि अपनी सच्चाई सामने आने पर आलोकनाथ ने उलटा विंता नन्दा पर ही मानहानि का केस
दायर कर दिया और कहा की उन पर लगाये गये सारे आरोप झूठे हैं।
यह
अभियान केवल टीवी और सिनेमा घरों तक ही नहीं, मीडिया
का सफर तय करते हुए राजनीतिक गलियारों तक भी पहुँच गया, जिसमें
सबसे बड़ा नाम एम जे अकबर का था। एम जे अकबर कई बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों के
सम्पादक रह चुके हैंऔर तब सरकार में विदेश केन्द्रीय राज्य मंत्री के पद पर थे।
प्रिया रमानी जो खुद एक पत्रकार रही हैं उन्होंने बताया कि किस तरह अपनी
पत्रकारिता के कार्यकाल के दौरान एम जे अकबर ने उनके साथ दुर्वयवहार किया।
उन्हांेने यह भी बताया कि कैसे वह अपने साथ की महिला पत्रकारों को होटल में ले
जाया करता था और उनके साथ यौन शोषण किया करता था। प्रिया रमानी की यह आवाज और
बुलन्द हो गयी जब एक के बाद एक महिला पत्रकार सामने आती गयीं और उन्हांेने एम जे
अकबर के घिनौने चेहरे को सबके सामने लाकर रख दिया।
हमारे
समाज का पुरुष वर्चस्व कितना घिनौना है कि जब एम जे अकबर के खिलाफ प्रिया रमानी और
अन्य महिला पत्रकारों ने अपनी बात रखी तो केन्द्रीय राज्यमंत्री एम जे अकबर ने
प्रिया रमानी पर ही आईपीसी की धारा–499
व 500 के तहत मानहानि का केस दायर कर दिया और कहा कि उन पर लगाये गये सभी आरोप
निराधार और झूठे हैं जो उनको बदनाम करने के लिए उन पर लगाये गये हैं। बीजेपी सांसद
उदित राज ने तो एम जे अकबर का खुलकर बचाव करते हुए कहा कि मी टू जैसे अभियान
पुरुषों को ब्लैकमेल करने का एक जरिया हैं। लेकिन जब दाग इतने गहरे हों तो कोई
कितना ही छिपाने की कोशिश करे, सच सामने आ ही जाता है। अन्त
तक जब लगभग 19 महिला पत्रकारों ने इस बात की पुष्टि की कि उनके साथ यौन शोषण किया
गया है तो दबाव में और चुनावी प्रपंच के चलते एम जे अकबर को अपने पद से इस्तीफा
देना पड़ा।
हालाँकि
मी टू अभियान मुख्य रूप से उच्च वर्ग की महिलाओं तक ही सीमित रहा,
जिसमें मुख्य रूप से टीवी और सिनेमा की सेलिब्रिटीज, मीडिया की जर्नलिस्ट आदि महिलाओं ने बढ़–चढ़ कर अपने
साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में बताया। इस ही तरह के कुछ अन्य अभियान भारत में
पहले भी चलाये जा चुके हैं जैसे–– हैपी टू ब्लीड, वन बिलियन राइजिंग, सैनिटरी नैपकिन आदि। लेकिन यह इस
तरह का सोशल मीडिया पर चलने वाला पहला अभियान था, जिसके
समर्थन और विरोध में चली बहस में महिलाओं ने इतना बढ़–चढ़ कर
भाग लिया। फेसबुक–ट्विटर के जरिये बहुत सी महिलाओं ने अपने
साथ हुए यौन दुर्व्यवहार का खुलासा किया।
अपने
साथ हुए यौन हमले पर महिलाएँ बहुत सारे कारणों से नहीं बोल पातीं। कभी उचित सबूत न
होने के चलते, कभी इस डर के चलते कि समाज में
उनकी बात सुनी भी जाएगी या नहीं, कोई उन पर यकीन भी करेगा या
नहीं और सबसे बढ़कर बदनामी का डर। चाहे महिला कितने भी बड़े वर्ग की क्यों न हो,
अगर इस तरह की कोई भी घटना सामने आती है तो उस महिला की प्रतिष्ठा
और सामाजिक स्थिति पर ही आँच आती है। पुरुष पर इससे बहुत अधिक अन्तर नहीं पड़ता है।
सोचने वाली बात है कि हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं, जहाँ
अपने साथ हुए अपराध के बारे में बताने पर पीड़िता को ही उसकी सजा भी भुगतनी पड़ती है?
यह समाज की कड़वी सच्चाई उन पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पैरोंकारों के
ऊपर करारा तमाचा है जो यहाँ तक कहते हैं कि उस समय कहाँ थी जब अपराध हो रहा था,
अब क्यों अपनी आपबीती कह रही हो। हमारे समाज ने महिलाओं को अपनी बात
कहने का मौका ही कहाँ दिया है और उसे सुनता ही कौन है? इस
रूप में मी टू अभियान ने कम से कम महिलाओं को एक प्लेटफार्म तो प्रदान किया,
जहाँ वे अपने साथ हुए अपराधों के बारे में खुलकर, बिना डरे बोल सकीं। साथ ही इसने बहुत सारी महिलाओं को यह सबक दिया कि सहने
के बजाय कहने का साहस करो।
इस
अभियान में शामिल होने वाली अधिकतर महिलाएँ उच्च वर्ग से सरोकार रखती हैं जहाँ
महिलाएँ अपेक्षतया ज्यादा स्वावलम्बी और स्वाधीन हैं। जाहिर है कि वहाँ भी कितनी
ही आवाजें दबी कुचली हुई हैं, जिनको बोलने
नहीं दिया गया। उनकी आवाज बन सकने में तो मी टू अभियान को एक सफल अभियान ही कहा
जायेगा। हालाँकि अभी कितनी ही आवाजें महिला की मान–मर्यादा
और इज्जत के भीतरी खाने में दबी पड़ी हैं, जिनका बाहर आना अभी
बाकी है।
यहाँ
यह भी समझना जरूरी है कि दुनियाभर में महिलाओं के ऊपर होने वाले पुरुष वर्चस्ववादी
यौन हमलों पर एक बहस छेड़ने के बावजूद मी टू जैसा सोशल मीडिया अभियान या इसके जैसे
अन्य अभियान मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के दायरे को लाँघ नहीं पाये। जबकि
निम्न मध्यम वर्ग की कामकाजी महिलाएँ और मजदूर वर्ग की महिलाएँ सबसे ज्यादा
शारीरिक शोषण और यौन हमलों की शिकार हैं। कार्यालय से लेकर घर की चारदिवारी तक वे
हर जगह पुरुषों की दरिंदगी और दहशत के साये में जीने को मजबूर हैं। ऐसे सुधारवादी
आन्दोलन की सीमा यही है कि ईमानदार प्रयास के बावजूद हर वर्ग की महिलाओं को अपने
साथ लेकर नहीं चल सकते।
आज
भारतीय समाज महिलाओं के लिए जितना असुरक्षित है, वहाँ इस
तरह के अभियान कुछ हद तक ही अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं। इसे व्यापक और गहरा बनाने
के लिए सभी महिलाओं को एकजुट होकर आगे आना होगा और एक साथ संगठित होकर आम महिलाओं
के बीच खास तौर पर कामकाजी, श्रमजीवी महिलाओं के बीच चेतना
जागृत करनी होगी। यौन उत्पीड़न के सवाल को कार्यस्थल पर शोषण और महिला मुक्ति के
बड़े सवाल से जोड़़ना जरूरी है।
–– रुचि मित्तल
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
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