सरोज
मेरे साथ की एक ऑटोमोबाइल कम्पनी में काम करती है। दो साल पहले ही सरोज का प्रेम
विवाह हुआ है। उसके पति दूसरी कम्पनी में काम करते हैं। सरोज पति से ज्यादा वेतन
पाती है। उसकी बेटी 6 माह की है। वह बताती है कि मैं सुबह 5 बजे जगती हूँँ,
चाय नाश्ता बनाती हूँ, दोनांे का लंच तैयार
करने के साथ–साथ बेटी के लिए दूध और कुछ हल्का–फुल्का खाना, जैसे–– दलिया,
खिचड़ी, सूप या दाल का पानी बनाती हूँ। इसके
बाद बेटी को शिशुशाला जाने के लिए तैयार करती हँू और खुद भी तैयार होती हूँ। मैं
अपने ऑफिस निकल जाती हूँ। मेरे पति बेटी को शिशुशाला छोड़कर अपने ऑफिस निकल जाते
हैं और शाम को ही उसे शिशुशाला से घर लेकर आते हैं। मैं सब्जी और घर के लिए दूसरे
सामान लेकर 8 बजे घर पहुँचती हूँ। घर को व्यवस्थित करने के साथ–साथ झाडू–पोंछा, बर्तन साफ
करती हूँ। पति सिर्फ चाय बनाते हैं और सब्जी काट देते हैं। मेरे ये पूछने पर कि
पति काम में आपकी मदद क्यों नहीं करते? सरोज बोलती हैं कि उनका
मानना है कि वह झाडू–पोंछा, बर्तन साफ
करते अच्छे नहीं लगेंगे। और आटा सानना, सब्जी–रोटी बनाना उन्हें आता नहीं है और न ही वह सीखना चाहते हैं। वह कहते हंै
कि अगर शादी के बाद भी खाना खुद बनायेंगे तो शादी किसलिए की है। झाडू–पोंछा करना वे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। कहते हैं कि अगर किसी ने देख
लिया तो कोई क्या कहेगा। मेरे आगे पूछने पर कि वह सुबह की चाय बना सकते हैं,
बेटी को तैयार कर सकते हैं और कपडे़ प्रेस कर सकते हैं। लम्बी
चुप्पी और गहरी साँस लेकर सरोज कहती है कि उन्हें बेड टी और अखबार पढ़ने की आदत है।
इसलिए ये दोनों काम भी मुझे ही करने पड़ते हैं। सरोज आगे बताती है कि ये सारे काम
बेटी के जगने से पहले करने की कोशिश करती हूँ। अगर बेटी जग जाती है तो दुपट्टे का
एक सिरा अपने पैर में और दूसरा सिरा बेटी के पैर में बाँध कर काम करना पड़ता है
जिससे वह खिसककर सीढ़ियों पर न जाये और उसके गिरने का डर न रहे।
सरोज
बताती है कि “सबसे ज्यादा दिक्कत मुझे तब आती
है जब ऑफिस में काम का दबाव ज्यादा हो, पीरियड्स आया हो और
घर के सारे कामों के साथ–साथ बेटी को भी सम्भालना हो। इन
दिनों मैं बहुत ज्यादा थक जाती हँू, नींद आँखों में भरी होती
है और सोने को नहीं मिलता।”
हमारे
इस समाज में माँ बनने का मतलब है अपनी इच्छाओं को दफन कर देना,
अपने अस्तित्व को पूरी तरह से नकार देना और दिन–रात काम करने वाली मशीन में बदल जाना। जब महिला कामकाजी हो तो यह स्थिति
और भी ज्यादा भयावह हो जाती है।
भारतीय
समाज में माँ के प्रेम को इतना महिमामण्डित किया गया है कि मातृत्व भावना से बाहर
आना हम महिलाओं के लिए मुश्किल है। जैसे ही हम उस दायरे से बाहर निकलने की कोशिश
करते हैं,
हमें “कैसी माँ है? कितनी
बुरी माँ है? खुद से ही फुरसत नहीं है, ऐसा तो सौतेली माँ भी नहीं करेगी” की पदवी मिल जाती
है। वहीं अगर पिता बच्चे का ध्यान न रखे तो कहीं कोई गड़बड़ नहीं है, कहीं सुनने को नहीं मिलता कि कैसा पिता है। थोड़ा सा ध्यान रखने पर अच्छे
पिता की पदवी बड़ी आसानी से पुरुषों को मिल जाती है आखिर ऐसा क्यों है? किसने बनाये हैं ये नियम?
हम
यह जानते हैं कि सिर्फ महिला ही बच्चे पैदा कर सकती है पर हम यह मानने के लिए
बिल्कुल तैयार नहीं हैं कि बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी सिर्फ माँ की होती है।
माँ को अपनी नौकरी छोड़कर बच्चों की परवरिश में लगना पड़ता है। उसकी व्यक्तिगत पहचान
और कैरियर सब चैपट हो जाता है। अधिकतर मामलों में समझौता भी महिलाओं को ही करना
पड़ता है। कोई अपवाद ही होगा जब किसी पुरुष ने नौकरी छोड़कर बच्चों की परवरिश की
जिम्मेदारी ली हो। यह सिलसिला अब रुकना चाहिए। सिर्फ महिलाओं की जिन्दगी को ही
बच्चों की परवरिश के लिए बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। बच्चों के पालन–पोषण की जिम्मेदारी सिर्फ माँ की इसलिए भी नहीं है, क्योंकि
जब बच्चा बड़ा होता है और वह काम करना शुरू करता है तो अपना पेट पालने के साथ–साथ समाज में किसी न किसी रूप में अपना योगदान देता है। चाहे वह कलाकार,
संगीतकार, डॉक्टर, इंजीनियर,
किसान, फैक्ट्री मजदूर, कूड़ा
बीनने वाला, सब्जी बेचने वाला कोई भी हो, सबका समाज के लिए योगदान रहता है। सब समाज को गतिशील बनाये रखने के लिए
जरूरी गतिविधियों में हिस्सेदारी लेते हैं। अगर बच्चे की परवरिश अच्छे नैतिक
मूल्यों, समानता, सामुहिकता और मानवता
की भावना के साथ हुई है तो निश्चित ही समाज के लिए अच्छे परिणाम निकलते हैं। ठीक
इसके विपरीत यदि बच्चे की परवरिश खराब नैतिक मूल्यों, अंधविश्वास,
असामानता और एकांगी तरीके से हुई है तो समाज के लिए खराब परिणाम
निकलते हंै।
आज
एकल परिवार में जो परवरिश बच्चों को मिल रही है वह पर्याप्त नहीं है। अगर ऐसे
परिवार में माँ भी कामकाजी हो तो स्थिति और भी ज्यादा खराब हो जाती है।
मुझे
अपने साथ काम करने वाली सुमन की याद आ रही है। जिस दिन उसका बेटा हुआ था,
उसके एक दिन पहले तक वह ऑफिस आयी थी। मातृत्व अवकाश के नाम पर उसे
कोई छुट्टी नहीं मिली क्योंकि उसकी बेसिक सेलरी 15 हजार 10 रुपये थी। प्राइवेट
कम्पनी में मातृत्व अवकाश सिर्फ उन महिलाओं को मिलता है जिनकी सेलरी 15 हजार या
उससे कम हो। यहीं पर पूँजीपतियों का घिनौना चेहरा सामने आ जाता है कि कैसे वह अपना
मुनाफा बढ़ाने के लिए श्रम कानूनों का दुरूपयोग करते हैं। बहरहाल, सुमन ने अपने दूध–पीते बच्चे को घर छोड़कर सिर्फ दो
महीने बाद ऑफिस ज्वॉइन कर लिया था। उधर घर में बच्चा सारा दिन माँ के दूध के बिना
रहता था, इधर ऑफिस में सुमन के स्तनों में बार–बार दूध भर आने कारण स्तनों के आस–पास की जगह गीली
रहने लगी थी। कितनी बार तो उसे मशीन से दूध निकाल कर फेंकना पड़ता। और जब दूध
फेंकती थी कितना रोती थी वह। सुमन की उस भावना को बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं
हैं। मैं लाख कोशिश के बाद भी सुमन की बेबसी, मजबूरी और
पूँजीपतियों के प्रति उसकी नफरत को नहीं लिख पाऊँगी।
ऐसी दिक्कतें सुमन,
सरोज या सिर्फ मेरी और तुम्हारी नहीं हैं। ये हर काम करने वाली
महिला की दिक्कतें हैं। इसी कारण ज्यादातर महिलाएँ शादी के बाद नौकरी छोड़ देती
हैं।
अगर
हम ऐसा स्वस्थ समाज चाहते हैं जहाँ महिला–पुरुष
सब बराबर हांे तो हम सबको मिलकर इन हालात को बदलने के लिए संघर्ष करना चाहिए। माँ
के काम के घण्टे कम होने चाहिए, फैक्ट्री और कार्यालयों के
पास ही शिशुशाला होनी चाहिए। ऑफिस में उन्हें बच्चे को दूध पिलाने के लिए अवकाश
मिलना चाहिए। फैक्ट्री और कार्यालयों के पास ही रहने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे
आने–जाने में लगने वाला समय बच सके। मैंने जिस व्यवस्था की
बात की है यह कोई कोरी कल्पना या सिर्फ मेरे दिमाग की उपज नहीं है। समाजवादी रूस
और चीन ने अपनी महिलओं को चूल्हे–चैके से आजाद कराने के लिए
सामूहिक भोजनालय बनवाये, बच्चों की परवरिश के लिए सामूहिक
शिशुशालाओं का निर्माण कराया, जहाँ बच्चों को माँ के जैसा
प्यार–दुलार मिलता था और जो लोग बच्चे पालने के काम में लगे
थे उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था। बच्चों के खेलने के लिए बडे़–बड़े खेल के मैदान थे, जहाँ बच्चों को हर तरह के खेल
में दक्ष बनाया जाता। बच्चों को चित्रकारी, संगीत, नृत्य सिखाया जाता। पढ़ने–लिखने की अच्छी व्यवस्था के
साथ–साथ सामूहिकता, समानता और बराबरी
का पाठ पढ़ाया जाता। बच्चों को दूध पिलाने के लिए (40–60
मिनट) अवकाश मिलता था। समाजवादी चीन और रूस ने घरों का निर्माण फैक्ट्रियों और
कार्यालयों के पास के क्षेत्रों में विकसित किया जिससे टैªफिक
और प्रदूषण की समस्या का भी समाधान हुआ और लोगों को अपनी जिन्दगी जीने के लिए,
अपने शौक पूरे करने के लिए ज्यादा से ज्यादा समय भी मिलने लगा।
क्या
हम ऐसे समाज का निर्माण भारत में नहीं कर सकते? अगर
हम ऐसा कर पाये तो यह देश सब के लिए स्वर्ग बन जायेगा और हम महिलाओं की जिन्दगी
गुलजार हो जायेगी जो अभी बोझिल, थकाऊ और उबाऊ बनी हुई है।
अन्त
में,
मैं बस यही कहना चाहूँगी कि बच्चों की परवरिश करना सिर्फ माँ की
जिम्मेदारी नहीं है। यह जिम्मेदारी माँ, बाप और समाज तीनों
की है। हमारे बच्चे जितने स्वस्थ, सक्षम, सभ्य और सुरक्षित होंगे हमारा समाज भी वैसा ही स्वस्थ, सक्षम और सभ्य होगा। बेहतर समाज बनाने के लिए हम सबको जिम्मेदारी उठानी
होगी। यह तभी सम्भव होगा जब हम एकजुट होकर महिला–पुरुष के
बीच के अन्तरविरोधों को हल करने के लिए संघर्ष करें। यह काम हम अपनी रोजमर्रा की
जिन्दगी से शुरू कर सकते हैं। यही रोजमर्रा की कार्रवाईयाँ निश्चित ही एक दिन बड़े
आन्दोलन का रूप ले लेंगी। तभी जाकर एक ऐसे समाज का निर्माण होगा जिसको चलाने में
महिला–पुरुषांे की भागीदारी वास्तव में बराबर हो पायेगी।
–– शशि
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
No comments:
Post a Comment