Saturday, March 2, 2019

फहमीदा रियाज तुझे सलाम

1945 में मेरठ, उत्तरप्रदेश में जन्मी फहमीदा रियाज पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बेहद लोकप्रिय और प्रगतिशील शायरा थीं। एक ऐसी शायरा जिन्होंने महिलाओं के वजूद और पहचान के सवाल को अपनी शायरी का विषय बनाया। उन्होंने हिन्दुस्तानपाकिस्तान जैसे पिछड़े, सामन्ती और घोर पितृसत्तात्मक विचारों वाले समाज को अपनी स्त्रीमुक्ति की शायरी से हमेशा चुनौती दी। इतना ही नहीं, वे स्त्रीविमर्श को और स्त्री मुक्ति के प्रमुख मुद्दों को केन्द्र में लाने वाली कुछ प्रमुख पाकिस्तानी महिलाओं में रहीं, एक ऐसी पाकिस्तानी नागरिक जिन्हें हिन्दुस्तान से भी बेहद लगाव था।
ब्रिटिश भारत में उनके पिता की नियुक्ति जब सिन्ध प्रान्त में हो गयी तो फहमीदा का पालनपोषण सिन्ध की राजधानी हैदराबाद में हुआ। वहीं रहते हुए वे प्रगतिशील विचारों के सम्पर्क में आयीं। राष्ट्रपति अयूब खान ने जब छात्र संगठनों को कुचलने का फैसला किया तब इस फैसले के खिलाफ उठे छात्र आन्दोलन में उन्होंने बढ़चढ़ कर भूमिका निभायी।
आगे की पढ़ाई के लिए वे इंग्लैण्ड गयीं और फिर कई वर्षों तक बीबीसी के लिए काम किया। वहाँ उन्होंने विवाह किया जो सफल नहीं रहा। वे पाकिस्तान लौट आयीं और प्रगतिशील लेखक संघ के लिए काम करने लगीं। उन्होंने अपने दूसरे पति के साथ मिलकर आवाजनामक पत्रिका निकालनी शुरू की जिसने जियाउलहक की तानाशाही सरकार के खिलाफ खुलकर लिखा। जब इस निरंकुश सरकार ने उनपर शिकंजा कसना चाहा तो उन्होंने भारत में राजनीतिक शरण ली और सात सालों तक यहाँ रहीं। उनके बच्चों ने यहीं रह कर पढ़ाई की। वे स्वयं जामिया मिलिया इस्लामिया से जुड़ कर काम करती रहीं।
फहमीदा ने नारीवाद की सुन्दर व्याख्या की है। उनके अनुसार, “नारीवाद की अनेक व्याख्याएँ हैं। मेरे लिए इसका मतलब यह है कि महिलाएँ बिलकुल मर्दों की तरह ही इनसान हैं जिनमें अपार सम्भावनाएँ हैं। उन्हें भी दलितों, अश्वेत अमरीकियों की तरह ही सामाजिक बराबरी हासिल करनी है। जहाँ तक महिलाओं का सवाल है, यह अधिक जटिल है, मेरा मतलब है कि हमें सड़कों पर बिना अपमानित हुए चलने का अधिकार है, तैरने का अधिकार है और पुरुषों की तरह प्रेम कविता लिखने का अधिकार है, बिना अनैतिक कहलाये। यह भेदभाव बेहद स्पष्ट, सूक्ष्म, क्रूर और हमेशा अमानवीय होता है।
उन्होंने धर्म, राजनीति, समाज, संस्कृति, भाषा, के हर उस रूप का विरोध किया जिसमें महिला के लिए बराबरी और सम्मान की बात नहीं हो। यहाँ तक कि उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों द्वारा लेखिकाओं को कमतर देखने के नजरिये का भी विरोध किया।
उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं पर टिप्पणी करने, भावनाओं तथा स्त्रीस्वतंत्रता के विचारों को सामाजिक सन्दर्भों में खुलकर बयान करने में अपनी उर्दू शायरी का खूबसूरती से इस्तेमाल किया। अपनी शायरी से उन्होंने हजारों हजार पीड़ित और मूक महिलाओं को आवाज दी। वे सिर्फ पाकिस्तान की नहीं थीं। वे हिदुस्तानपाकिस्तान की साझा संस्कृति का अभिन्न हिस्सा थीं। तभी तो विगत कुछ वर्षों में भारत में बढ़ती फासीवादी और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ उन्होंने नज्म लिखी, “तुम भी हमारे जैसे निकले–––”
21 नवम्बर को लाहौर में उनका निधन हो गया। लेकिन फहमीदा जैसी आवाज मर कर भी चुप नहीं होती। अपनी शायरी, अपनी नज्मों और अपने गद्य के द्वारा वे दोनों मुल्कों की अवाम के दिलों में जिन्दा हैं और हमेशा जिन्दा रहेंगी। उनके शब्द चीखचीख कर फासीवादी और निरंकुश सरकारों को चुनौती देते रहेंगे और हिन्दुस्तानपाकिस्तान की गरीब आवाम को लड़ने का हौसला देते रहेंगे। वे दबीकुचली सतायी हुई महिलाओं की आवाज बनी रहेंगी और उनमें बन्धनों को तोड़ कर आगे बढ़ने का जज्बा पैदा करती रहेंगी।

फहमीदा आपा तुम्हें आखिरी सलाम!
–– आशु वर्मा
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

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