Wednesday, October 6, 2021

घरेलू महिलाओं की हैसियत



35 वर्षीय पूनम घर का सारा काम जैसे झाड़ू लगाना, खाना बनाना, बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना, सुबह पाँच बजे उठकर कड़ाके की ठण्ड में जानवरों के लिए चारा लाने जैसा काम तो करती ही थी, पति व देवर के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खेतों में भी काम करती थी। फिर भी घर में उसकी कोई हैसियत नहीं थी। सास और पति उसकी उपेक्षा करते थे। अगर किसी बात का वह विरोध करती तो उसके साथ मारपीट करते थे। पूनम अनपढ़ थी। उसे अपने अधिकारों के बारे में लेशमात्र का ज्ञान न था। उसे बचपन से ही पति और ससुराल वालों की सेवा करना और उनके हर जुल्म को बर्दाश्त करते रहना सिखाया गया था। जो वह पालन कर रही थी। 
इसी बीच उसको कुष्ठ रोग हो गया था जिसके चलते उसके घर वालों ने उसके साथ भेदभाव करना शुरू कर दिया। उसका रसोई में जाना सख्त मना था। उसका छुआ परिवार के लोग ही नहीं खाते थे। साथ ही गाँव के लोग भी उससे भेदभाव करते थे। उसका पड़ोसियों के घर आना–जाना बन्द हो गया और एक दिन उसे घर से निकाल दिया गया। वह कितना भी रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, उनके पैरों पर गिरती रही, कि मैं घर से दूर झोपड़ी में रह लूँगी, भीख माँग कर खा लूँगी मगर मुझे मत निकालो लेकिन हैवानियत की सारी हदें पार करते हुए उसके पति ने उसे जंगल में स्थित एक मंदिर के पास छोड़ दिया। 
यह काम उसके पति के मानसिक वहशीपन और चरम स्वार्थ को दर्शाता है। पूनम भूख प्यास से मर गयी या कोई जानवर खा गया, पता नहीं चला, लेकिन यह घटना महिला अस्तित्व पर गहरा सवाल छोड़ती है। 
ऐसी कहानी बस पूनम की ही नहीं ज्यादातर घरेलू और आर्थिक रूप से निर्भर महिलाओं की है। वे पूरी जिन्दगी अपने घर वालों की सेवा करती हैं। लेकिन जब वे  बीमार या कमजोर हो जाती हैं तो उन्हें एक इनसान भी नहीं समझा जाता क्योंकि आज भी पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अ/िाकार न के बराबर है। सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं को गुजारे के लिए भी पिता, पति या पुत्र पर आश्रित रहना पड़ता है। इस तरह उनके पास अपना कुछ भी नहीं होता। 
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है कि पैतृक सम्पत्ति में महिला व पुरुष का बराबर का हक होगा लेकिन यह कानून जमीनी स्तर पर लागू होता दूर तक दिखाई नहीं देता। 
सामाजिक दबाव के चलते महिलाएँ पैतृक सम्पत्ति पर अपना दावा छोड़ देती हैं। उसे इस आधार पर सही ठहराया जाता है कि उनके पिता विवाह में ढेर सारा धन और दहेज देते हैं। इसलिए पूरी सम्पत्ति बस बेटों की रह जाती है। लेकिन कुछ लड़कियाँ अपना हक माँगती भी हैं तो उनकी माँग को अवैध बता दिया जाता है।
कमजोर वर्ग से आने के चलते महिलाओं का लगातार शोषण होता है। आर्थिक  स्थिति ठीक नहीं होने के चलते उन्हें हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। समाज की गलत परम्पराओं की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। 
इसके साथ ही यह तथ्य चैंकाने वाला है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या में गिरावट आ रही है। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले “सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनामी” की रिपोर्ट के अनुसार 2017 के शुरुआती चार महीनों में कामकाजी लोगों में नौ लाख से ज्यादा पुरुष जुड़ें जबकि इस दौरान कामकाजी महिलाओं की संख्या में 24 लाख की कमी आयी। 
कमजोर आर्थिक हैसियत के चलते महिलाएँ हमेशा ही समाज के निचले पायदान पर धकेल दी जाती हैं। उनके अ/िाकार छीन लिये जाते हैं। देवी, ममतामयी माँ, नारी शक्ति आदि उथले सम्मान के बावजूद सच यह है कि उन्हें कभी भी घर से निकाला जा सकता है, जिससे वे दर–दर की ठोकर खाने को मजबूर हो जायें। इसलिए महिलाओं की पहली लड़ाई है अपने आर्थिक आधार को मजबूत बनाना। इससे उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें अपनी समस्याओं से लड़ने में ताकत मिलती है और पति तथा परिवार के आगे वे कभी असहाय नहीं रह जातीं। आत्मनिर्भर होकर ही वे सामाजिक गतिवि/िायों में भी भाग ले सकती हैं।

–– ज्योति

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