–– कोमल
हमेशा एक बात सुनने को मिलती है कि महिलाएँ बच्चों की वजह से अपने कैरियर में सफल नहीं होती हैं। जबकि माँ बनना महिलाओं को प्रकृति द्वारा दिया गया अनमोल तोहफा है जिसका संसार के सृजन में बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन आज यही वरदान महिलाओं की आजादी और पुरुषों से कदम से कदम मिला कर चलने में बेड़ियाँ बनती जा रही है। लेकिन माँ बनने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हमारे बच्चे हमारे काम की रुकावट हैं। तो फिर रूकावट कहाँ है? जाहिरा तौर पर इसकी जड़े हमारे समाज और इसे संचालित करने वाली व्यवस्था में ही निहित हैं।
बीबीसी की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली और इसके आस–पास के इलाकों में काम करने वाली 1000 महिलाओं के सर्वे में पाया गया कि केवल 18–34 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ ही बच्चा पैदा करने के बाद भी काम करना जारी रखती हैं। इसका कारण स्पष्ट तौर पर महिलाओं की उपेक्षित स्थिति और उनकी जिम्मेदारियाँ हैं। शादी के बाद घर और बच्चों की सारी जिम्मेदारी लड़कियों को ही दे दी जाती है। उन्हें बताया जाता है कि घर और बच्चों को सम्भालना ही तुम्हारा मुख्य काम है। ये सब करने के लिए हमारा समाज और पितृसत्तात्मक विचार उसे मजबूर करता है कि वह नौकरी और बच्चे की जिम्मेदारी में से सिर्फ बच्चे की जिम्मेदारी चुने। अगर कोई महिला ऐसा न करे तो हमारा समाज उसे असभ्य कहने लगता है। इसके पीछे पुरुषवादी सोच काम करती है। यह सोच पढ़ी–लिखी महिलाओं को भी प्रभावित करती है, जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। हमारा समाज हमेशा ही महिलाओं को घर के अन्दर कैद करने के लिए कुछ न कुछ तिकड़म भिड़ाता रहता है।
कम्पनियों को महिलाओं द्वारा बच्चा पैदा करने से कोई मुनाफा नहीं है बल्कि वे उनकी छुट्टी और सैलरी को भी घाटे के रूप में देखते हैं। कई बार मासिक चक्र के चलते छुट्टी लेने पर महिलाओं को काम से निकाल दिया जाता है। हद तो तब हो गयी जब महाराष्ट्र के बीड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कम्पनियों ने महिलाओं के गर्भाशय को निकलवा दिया जिससे महिलाओं से कोल्हू के बैल की तरह काम कराया जा सके और मुनाफा निचोड़ा जा सके।
आईटी सैक्टर में काम करने वाली महिलाओं के श्रम का योगदान देश की जीडीपी में है। लेकिन इसके बावजूद श्रम शाक्ति में महिलाओं की संख्या (शहरी और ग्रामीण) में तेजी से गिरावट आयी है। एक दशक पहले नौकरी करने वाली महिलाओं का हिस्सा 43 प्रतिशत से घटकर अब मात्र 27 प्रतिशत रह गया है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे डिजिटल इंडिया और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के दावों के बीच सिर्फ 27 प्रतिशत महिलाओं के पास रोजगार है, जबकि यह आँकड़ा चीन में सबसे ज्यादा यानी 64 प्रतिशत है।
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ बस एक नारा बनकर रह गया है। यह जरूर है कि महिलाओं को कई अधिकार संविधान में दिये गये हंै। लेकिन व्यवहार में शादी से पहले उसके फैसले पिता और भाई लेते हंै और शादी के बाद पति। हमेशा लड़कियों को कहा जाता है कि शादी की बाद वह नौकरी करेगी या घर सम्भालेगी, यह फैसला ससुराल वालों का होगा। और अकसर शादी के बाद उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है क्योंकि उसे अच्छी माँ बनना है।
नौकरीपेशा महिलाओं के पति कभी बच्चों की देखरेख करने, उनके कपड़े धोने, कपड़े खरीदने जैसे कई कामों में उनकी कोई मदद नहीं करते। बच्चों की सारी जिम्मेदारी माँ को ही सम्भालनी पड़ती है।
रोज–रोज के घरेलू कामों में महिलाओं की ऊर्जा को खपा दिया जाता है। उन्हें समाजोपयोगी काम से वंचित रखना महिलाओं का ही नहीं पूरे देश का नुकसान है। सच तो यह है कि अगर कोई समाज चाहे तो इस समस्या को बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है। अगर घरेलू कामों का समाजीकरण कर दिया जाये, यानी खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों के बड़े–बड़े पालना घर बना दिये जायें तो लाखों–लाख महिलाएँ नीरस घरेलू कामों से स्वतंत्र होकर नौकरी कर सकेंगी, उनके बच्चे भी पल जायेंगे और देश के निर्माण में वे अपना भी योगदान दे सकेंगी। इसके साथ ही जो महिलाएँ कामकाजी हैं उनके लिए प्रेग्नेंसी लीव देने के साथ–साथ बच्चों के रख रखाव और घर से ऑफिस की दूरी कम की जा सकती है जिससे महिलाओं को ऑफिस में काम करने और बच्चों को सम्भालने में आसानी होगी।
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