Wednesday, October 6, 2021

महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का अभाव असहनीय



महिलाएँ सामाजिक गैर बराबरी के चलते हमेशा से ही उत्पीड़न झेलती रही हैं। कहने को तो संविधान ने महिला–पुरुष दोनों को ‘एक आदमी एक वोट’ के तहत समान माना है और एक राजनीतिक हैसियत प्रदान की है परन्तु सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच बहुत गैर बराबरी है। अक्सर हम कई तरह की गैर बराबरी की बात करते हैं, पर शायद ही कभी हमने शौचालय की समान उपलब्धता के बारे में सोचा हो। अगर हम गहराई से इस विषय की पड़ताल करें तो पायेंगे की इस क्षेत्र में यह व्यवस्था कितनी असफल रही है और महिलाओं के लिए शौचालय की उपलब्धता की समस्या कितनी भयावह और विकराल रूप में हमारे सामने खड़ी है। 
हम देखते हैं कि आजकल महिलाओं के विशेषाधिकार की बात तो जोर शोर से की जा रही है, लेकिन अभी तो उनका समान अधिकारों के लिए ही संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। सार्वजनिक स्थानों में साफ सुथरे शौचालय बुनियादी हक है, लेकिन स्त्रियों की इतनी अहम जरूरत को भी समाज और सरकार ने हमेशा नकारा है। वैसे तो सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों का ना होना पुरुषों के लिए भी समस्या है लेकिन उस तरह से नहीं जैसे एक स्त्री के लिए है क्योंकि वे पेशाब करने के लिए शौचालयों के मोहताज नहीं। देश के इतिहास में पहली बार 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों की इस अव्यक्त समस्या पर नोटिस लिया और स्कूलों में लड़के तथा लड़कियों के लिए अलग–अलग शौचालयों की व्यवस्था को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से जोड़ा। 
एक शोध के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शौचालय में दुगुना समय लगता हैं। कम से कम एक चैथाई महिलाएँ किसी एक समय में मासिक धर्म में होती हैं। इसके अलावा गर्भपात के दौरान खून बहना, या गर्भाशय की रसौलियों की वजह से ज्यादा खून बहना, इन स्थितियों में बार–बार कपड़ा या पैड बदलना जरूरी होता है। इसके बावजूद महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का बेहद अभाव है। कस्बों, छोटे शहरों के बाजारों में तो हम इनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। छोटे बस स्टेशनों और रेलवे स्टेशनों के शौचालय में तो भयानक गन्दगी के कारण घुसना भी सम्भव नहीं होता। 
बुनियादी स्तर पर इन सुविधाओं का अभाव बेहद बेचैनी और घबराहट पैदा करता है। शौचालय के अभाव में यात्रा के समय अधिकांश महिलाएँ या तो कम खाती–पीती हैं या कुछ भी नही खातीं। जो उपलब्ध शौचालय हैं उनमें अधिकांश में या तो दरवाजे नहीं होते या फिर कुण्डी नहीं होती। शौचालय की भयानक गन्दगी की वजह से यात्रा कर रही महिलाओं को अक्सर मूत्रालय का संक्रमण (यूरिन इन्फेक्शन) होता रहता है। सब महिलाएँ अक्सर ही ऐसी स्थिति से गुजरती हैं। कई बार तो इन्हीं वजहों से यात्राएँ भी टालनी पड़ती हैं। अगर गन्दगी से बचने के लिए किसी अन्य खुली और सुरक्षित जगह तलाशनी हो तो चार जोड़ी आँखें उत्सुकता में पीछा करने लगती हैं। 
सार्वजनिक शौचालय का अभाव या उनका गन्दगी से पटा रहना स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। शौच या पेशाब रोक कर ज्यादा देर रहने से पाचन और पेशाब सम्बन्धी बीमारियाँ हो जाती हैं। पानी कम पीने के कारण महिलाओं के शरीर में गम्भीर बीमारियाँ पैदा होने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है। किडनी फेल, पेशाब की नली में रुकावट या फिर किसी तरह की यूरिनरी इंफेक्शन आदि का स्तर महिलाओं में इसी वजह से कई गुना बढ़ जाता है। अमीर से अमीर और यहाँ तक कि ऊँचे राजनीतिक पदों पर आसीन महिलाओं को भी अपने जीवन में किसी न किसी समय इस तरह की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। 
सरकार ‘हर घर शौचालय’ की बात करती है। पर सोचने की बात यह है कि गरीब कहाँ से 20–25 हजार का टॉयलेट बनवा पाएगा? आबादी को ध्यान में रखें तो हर कुछ किलोमीटर पर शौचालय बनाना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। परन्तु जो काम सरकार का है उसे वह निजी कम्पनियों को दे रही है, जहाँ शौचालय के इस्तेमाल के लिए पैसे अदा करने पड़ते हैं। जो व्यवस्था नि:शुल्क होनी चाहिए वहाँ हम पैसे दे रहे हैं। दिल्ली की मेट्रो ट्रेन को ही लें, इतना किराया देने पर भी टॉयलेट जाने के लिए हमें पैसा देना पड़ता है। 
लोकहित वकील और प्रोफेसर जॉनयेफ इस विषय पर कहते हैं कि जब विशालकाय सार्वजनिक इमारतें बनी थीं, तब महिलाओं के लिए रेस्टरूम बड़ा सवाल नहीं था क्योंकि तब बड़ी मात्रा में महिलाएँ ऑफिस या सार्वजनिक स्थानों पर नहीं थीं। पर आज की स्थिति में यदि महिलाओं को ऐसी हालत का सामना करना पड़ रहा है तो निश्चय ही यह उनके समान सुरक्षा अधिकार का उलंघन है। 
वास्तव में यह पूँजीवादी व्यवस्था ही विकलांग है जो कोई भी सकारात्मक रास्ता सुझाने में नाकाम रही है। अधिकाँश सरकारी संस्थाओं में महिला विरोधी विचारों वाले असंवेदनशील लोग ही विराजमान हैं। पर्याप्त और साफ शौचालयों का सार्वजनिक स्थानों पर अभाव स्पष्ट रूप से दर्शाता है की सरकारें महिलाओं की जरूरतों के प्रति किस हद तक असंवेदनशील और गैर जिम्मेदार हैं। 

–– जूही द्विवेदी 

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