कोरोना काल में शुरू हुई आर्थिक–सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं, यूँ इन परेशानियों ने तो अधिकांश लोगों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है परन्तु मजदूर–किसान, शहरी गरीबों और गरीब महिला समुदाय को बहुत गहरे तक तोड़ दिया है। जहाँ अधिकांश गरीबों का रोजगार छिन गया है वहीं गरीब महिलाओं की रोजी–रोटी के साथ सुख–चैन और स्वास्थ्य दोनों ही खत्म हो गये हैं। लम्बे–लम्बे समय तक चले लॉकडाउन के दौरान लाखों औरतों–मर्दों ने भारतीय इतिहास की सबसे लम्बी पलायन यात्राएँ की।
लॉकडाउन खत्म होते ही वे एक बार फिर अपना माल–असबाब उठाये पहले से बुरी शर्तों पर अपने जीवन को ‘सँवारने’ में लग गये। औरतें कम होती आमदनी में अपने परिवार का पेट भरने और तन ढकने के लिए जद्दोजहद करती रहती हैं। अपने परिवार का पेट पालने के लिए और कुछ ‘अतिरिक्त’ कमा लेने के लिए वे हद से ज्यादा कम पैसे पर काम करने को तैयार हैं। पिछले दिनों ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं जहाँ औरतें 40–50 रूपये में दिहाड़ी या घरेलू काम करने के लिए तैयार हो गयीं या दो जून रोटी के लिए अपनी बेटियों को किसी अनजान शहर में भेज दिया। कोरोना बाद के काल में नौकरियों में औरतों की घटती हिस्सेदारी ने उनके भविष्य को और अन्धकारमय बना दिया है।
महँगाई ने सबकी कमर तोड़ रखी है। ‘विकास’ जितना भी हुआ हो मगर बिना गैस, तेल और दालों के चूल्हा–चैका तो औरतों को ही संभालना होता है। वास्तव में अपनी मेहनत के अलावा वे हर चीज में ‘किफायत’ को मजबूर हैं चाहे वह स्वास्थ्य हो या भोजन।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा मजाक साबित हो चुका है। न तो बेटियाँ बच रही हैं न ही पढ़ पा रही हैं। कोरोना काल में माँ–बाप की नौकरियाँ छिनने के बाद सरकारी स्कूल की शोभा बढ़ाती लडकियाँ घरेलू कामों में फँस गयीं, परिजनों के साथ अपने गाँव वापस चली गयीं या उनके कामों में सहायक बन गयीं। कितनी लडकियाँ स्कूल में लौटीं इसका कोई आँकड़ा नहीं है।
पिछले कुछ महीनों में कितने ‘निर्भया काण्ड’ हो गये। उनमें कार्रवाई तो दूर, अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता गया। नतीजा, अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं। बल्कि यूँ कहें कि अपराधी और राजनीतिज्ञ के बीच की धुंधली लकीर भी अब मिट चुकी है।
लेकिन जिस तरह स्याह अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर हमेशा उजाला होता है, उसी तरह बीते महीनों में तमाम मुसीबतों और परेशानियों के बावजूद लड़कियों ने कुछ क्षेत्रों में अपना झण्डा गाड़ ही दिया, जैसे, हमारी खिलाड़ी लड़कियाँ। वो भी सामान्य घरों कीं, मणिपुर, झारखण्ड छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा के पिछड़े इलाकों की। आधी–अधूरी खुराक और सामाजिक भेदभाव झेलती इन खिलाड़ी लडकियों ने गाँवों के मैदानों पर अपना कौशल निखारते, लम्बा रास्ता पार करते हुए टोक्यो ओलम्पिक (जापान) तक का गौरवपूर्ण सफर पार किया।
किसान आन्दोलन में महिला किसानों की भरपूर हिस्सेदारी ने महिला आन्दोलन को भी मजबूत बनाया और उसके शहरी मध्यवर्गीय चरित्र को बदल दिया। कितनी सुखद बात है कि खेती करने वाली औरतों ने स्वयं को महज औरत न समझ कर किसान समझा, नये कृषि कानूनों से खेती–किसानी को होने वाले नुकसान को समझा और पूरी तरह आन्दोलन की हमसफर बनीं। उनके आगे बढ़ने में जितना हाथ खेती की खराब होती परिस्थितियों का था उतना ही हाथ उन किसान नेत्रियों का भी था जो दशकों में उनके बीच काम कर रही थीं। नतीजा यह है कि किसान औरतें अपने पूरे वजूद, हैसियत और समझदारी के साथ आन्दोलन का हिस्सा बनीं हैं। पिछले एक साल में उनकी हिस्सेदारी ने घर, परिवार, समुदाय और गाँव में संबन्धों और कामों की परिभाषा बदल दी है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 8 मार्च 2021 को टीकरी बॉर्डर पर महिला दिवस के अवसर पर जितनी बड़ी संख्या में महिलाएँ इकट्ठा हुईं उतनी महिला दिवस के इतिहास में किसी देश में कभी भी शामिल नहीं हुईं। यह अपने आप में अभूतपूर्व है और इस बात का सबूत है कि औरतों ने किसान आन्दोलन को अपना बना लिया है और किसान आन्दोलन ने औरतों को।
ऐसा नहीं है कि आन्दोलन में भागीदारी के बाद उन्हें पूर्ण बराबरी मिल गयी हो, लेकिन पूर्व के सम्बन्धों का रूप और उनकी हैसियत निश्चित ही बदली है। वे स्वविवेक से आन्दोलन में जाती हैं और जब किसी शहीद किसान के मातम में जाती हैं तो उस आवेग, दु:ख और गुस्से के साथ शामिल होती हैं जैसे उनका कोई साथी संघर्ष की राह में बिछुड़ गया हो।
तमाम निराश कर देने वाली, असभ्यता और क्रूरता की सारी हदें पार कर देने वाली घटनाओं के बावजूद आज लड़कियाँ और महिलाएँ दो कदम आगे बढीं हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, जो आजादी पायी है उसे खोने के लिए तैयार नहीं और जिन्होंने आजादी नहीं पायी है वे किसी भी कीमत पर उसे पाने के लिए बेकरार हैं, आजादी के सपने को छोड़ने के लिए तैयार नहीं, और यही सबसे सुन्दर और उम्मीद भरी बात है।
खुद को जानना खुशहाली की अंतिम गारण्टी नहीं है, लेकिन यह खुशी का हिमायती है और यह लड़ने का जज्बा पैदा करता है। –सीमोन दि बोउवार
-आशु वर्मा
समीचीन और सारगर्भित!
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