Wednesday, October 6, 2021

दुनिया जहान में महिलाओं का बढ़ता संघर्ष



(1)
बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में पिछले कई हफ्तों से लगातार प्रदर्शन जारी है। 10 हजार से भी अधिक महिलाएँ सड़क पर रैली निकालकर विरोध प्रदर्शन कर रही हंै, हाथों में फूल और झंडे लिए “इस्तीफा दो” के नारे लगा रही हैं, बेलारूस में महिलाओं की स्वतंत्रता का गीत “कुपालिंका” गाती हुई जुलूस निकाल रही हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ती सैकड़ों–हजारों महिलाओं का ये हुजूम बेहद खूबसूरत है।
बेलारूस में 9 अगस्त, 2020 को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव आयोजित होने थें। पिछले 26 सालों से बेलारूस में लगातार एलेक्सजेंडर लुकाशेंको की तानाशाही बरकरार है। इस बार कड़ी टक्कर देने के लिए लुकाशेंको के खिलाफ विपक्षी महिला नेता स्वेतलाना तिखोनावस्काया खड़ी थीं। 9 अगस्त को सम्पन्न हुए चुनावों में लगातार सातवीं बार लुकाशेंको ने 80 प्रतिशत वोटों के साथ जीत हासिल की। बस इसी बात से बेलारूस की जनता का गुस्सा उभरा। उनका मानना है कि लुकाशेंको ने चुनाव में धांधले–बाजी करके ये जीत हासिल की है, तभी से बेलारूस में लुकाशेंको के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन जारी है, लोग सड़क पर हैं, महिलाएँ मुख्य तौर पर इस आन्दोलन की अगुवाई कर रही हैं। हर रविवार को तो भारी मात्रा में महिलाएँ सरकारी सुरक्षा–बलों द्वारा किये जाने वाले अभद्र व्यवहार, उत्पीड़न व मार तक की परवाह किये बिना वहाँ आती हैं, उनकी एक ही माँग है कि लुकाशेंको राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दें। एक प्रदर्शनकारी महिला कहती हैं, “ये जीने और मरने का सवाल है, हमें अपने देश को बचाने और उसे स्वतंत्र रखने की जरूरत है, हमें अपना देश बहुत प्यारा है।”
प्रदर्शन करने वाले व विपक्षी नेताओं के विरुद्ध लुकाशेंको ने कड़ी कार्रवाई की, उन्हें जेल भिजवा दिया इसीलिये स्वेतलाना तिखोनावस्काया को लिथुआनिया भागना पड़ा। बेलारूस की टॉप बास्केटबॉल चैंपियन येलेना लुईचेनका जिन्होंने अपने देश की तरफ से ओलंपिक्स में भी भाग लिया था, इस आन्दोलन का हिस्सा थीं। प्रदर्शन करने के आरोप में पुलिस ने 15 दिन के लिए उन्हें डिटेंशन सेंटर में डाल दिया और उनकी एक अन्य साथी को पुलिस का नकाब फाड़ने के जुर्म में 2–5 साल की जेल की सजा सुना दी। लुईचेनका कहती हैं, “ये ऐसा समय है जब आप कैद में इसलिए नहीं हैं क्योंकि आपने कोई जुर्म किया है बल्कि इसलिए हैं क्योंकि आप अपनी आजादी की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। लेकिन महिलाओं का हौसला बुलन्द है और मैं ये देखकर बहुत अधिक उत्साहित हूँ।” उन्होंने यह भी कहा, “जेल में कैद औरतों को यातनाएँ देने और उनका बलात्कार करने वाले किसी भी बेलरूसी अधिकारी पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी, उसके बावजूद भी किसी महिला ने यह नहीं कहा कि उन्हें यहाँ (जेल) आने का किसी भी तरह का कोई पछतावा है, बल्कि यह कहा कि हम अपनी जंग जारी रखेंगे और आवाज उठाते रहेंगे।”
सभी महिलाओं के इस क्रान्तिकारी जज्बे को सलाम!
(2)
सऊदी अरब में, महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली 31 साल की सामाजिक कार्यकर्ता लुजैन अल–हथलौल को महिलाओं के लिए ड्राइविंग का अधिकार माँगने के जुर्म में 28 दिसम्बर 2020 को सऊदी के स्पेशल कोर्ट, जहाँ आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई होती हैं, में पाँच साल, आठ महीने की जेल की सजा सुना दी गयी। महिलाओं के अधिकारों के लिए विदेशी पत्रकारों, राजनीतिज्ञों और मानवाधिकार संगठनों से संपर्क रखने के कारण लुजैन पर राज्य की राजनीतिक व्यवस्था को बदलने और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुँचाने के आरोप लगाए गए।
हालाँकि मई 2018 में ही, उन्हें और उनके कुछ साथियों को महिलाओं को गाड़ी चलाने के अधिकार दिए जाने की माँग के चलते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। उनकी गिरफ्तारी के ठीक एक महीने बाद जून 2018 में, उन्हीं के संघर्षों के चलते वहाँ की सल्तनत द्वारा महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हो गया। लेकिन महिलाओं का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। एक खबर के मुताबिक, सऊदी में बहुत कम जगह ऐसी हैं जहाँ महिलाओं का ड्राइविंग लाइसेंस बनाया जाता है और साथ ही ड्राइविंग निर्देशों के लिए महिलाओं से पुरुषों की तुलना में दोगुना शुल्क लिया जाता है।
सऊदी अरब में महिलाओं को अपनी छोटी से छोटी आजादी पाने के लिए भी बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। सऊदी अरब दुनिया में अकेला ऐसा देश था जहाँ महिलाओं को अकेले गाड़ी चलाने की आजादी नहीं थी। उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिए जाते थे, अगर उन्हें गाड़ी चलानी है तो अपने किसी पुरुष अभिभावक (पिता, भाई, पति इत्यादि) से अनुमति लेकर उन्हें साथ रखना पड़ता था। यदि कोई महिला अकेली गाड़ी चलाती पायी गयी तो पुलिस उसको गिरफ्तार कर लेती थी और जुर्माना लगाती थी। 2014 में लुजैन को भी ड्राइविंग करने के जुर्म में 73 दिन तक के लिए हिरासत में रखा गया था। लुजैन और उनके साथियों ने इसके विरुद्ध एक अभियान चलाया। महिलाओं के आवाज उठाने के बाद इस्लामिक विद्वानों की परिषद ने एक फतवा तक जारी कर दिया व महिलाओं के गाड़ी चलाने को गलत बताया, ये तक कहा कि इससे महिलाओं की पुरुषों से नजदीकी बढ़ेगी और वे विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होंगी। 
अन्तरराष्ट्रीय दबाव के चलते, कोर्ट ने अभी लुजैन की सजा के कार्यकाल को 2018 से मानते हुए उन्हें 2 साल 10 महीने की रियायत दे दी है। लुजैन के घरवालों का कहना है कि मार्च 2021 तक उनकी रिहाई हो जाएगी। पर उसके बाद भी लुजैन को अगले 3 सालों तक किसी भी विरोध–प्रदर्शन या अभियान में हिस्सा लेने और 5 साल तक दूसरे देशों की यात्रा पर मनाही है। 
लुजैन ने बताया कि जिस दौरान वे जेल में थीं, उन्हें और उनके साथियों को बहुत बुरी स्थिति में रखा जाता था। जेल में उन्हें इलेक्ट्रिक शॉक व शारीरिक यातनाएँ दी जाती थीं। उनके साथ यौन हिंसा तक हुई और जब उन्होंने इसके खिलाफ कोर्ट में शिकायत दर्ज की तो जज ने उसे मानने से इनकार कर दिया, जबकि सरकार ने खुद अपनी जाँच–पड़ताल में इन सब बातों की पुष्टि कर दी थी। लुजैन के घरवालों ने बताया कि जेल में परिवार वालों से मिलने के प्रतिबन्ध व अन्य बुरी परिस्थितियों के विरोध में लुजैन 2 हफ्तों की भूख–हड़ताल पर भी रहीं। लूजैन की बहन लीना हथलौल ने कहा, “मेरी बहन आतंकवादी नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है। जिन सुधारों की मोहम्मद बिन सलमान और सऊदी सल्तनत वकालत करते हैं, वह उसकी लड़ाई लड़ रही है, और फिर उसी के लिए सजा सुनाया जाना हद दर्जे का दोगलापन है।”
(3)
पाकिस्तान की लाहौर हाईकोर्ट ने सोमवार, 4 जनवरी 2021 को बलात्कार पीड़िता की वर्जिनिटी टेस्ट की प्रक्रिया को खत्म कर देने का आदेश दिया। पाकिस्तान की जनता और मानवाधिकार संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है। पिछले काफी समय से बहुत से मानव अधिकार संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता इसके विरोध में आवाज उठा रहे थे, पिछले साल मार्च में उन्होंने इसके विरुद्ध याचिका भी डाली, उनकी माँग थी कि रेप के मामलों में वर्जिनिटी टेस्ट जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, को खत्म किया जाना चाहिए। सबकी मेहनत आखिरकार रंग लायी और उनकी जीत हुई। अभी यह नियम पाकिस्तान के केवल पंजाब प्रान्त में ही लागू होगा, लेकिन बाकी जगहों के लिए एक मिसाल बनेगा, हालाँकि ऐसी ही एक याचिका सिंध हाइकोर्ट में भी दायर की गयी है। 
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ों को और मजबूत करता यह वर्जिनिटी टेस्ट अथवा टू फिंगर टेस्ट महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा है जिसमें किसी चिकित्सक, यह भी जरूरी नहीं कि वह कोई महिला ही हो, के द्वारा पीड़ित महिला के जननांगों में एक या दो उंगली डालकर इस बात की पुष्टि करवाई जाती है कि वहाँ हायमन मौजूद है अथवा नहीं। मुख्य रूप से यह टेस्ट ये जानने के लिए किया जाता है कि महिला के पहले से कोई शारीरिक सम्बन्ध थे अथवा नहीं। इसके अलावा यदि महिला के पहले से शारीरिक सम्बन्ध रहे हों तो उसके बयान को कम तवज्जो दी जाती है। इस अवैज्ञानिक टेस्ट का प्रभाव अक्सर न्यायिक प्रक्रिया में पीड़िता के खिलाफ व आरोपियों के पक्ष में होता है। 
यूनाइटेड नेशन्स की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के कम से कम 20 देशों में अब तक यह वर्जिनिटी टेस्ट किया जाता है, भले ही उस जगह यह अवैध ही क्यों न हो। महिलाओं के साथ हमारे समाज में हमेशा से ही दुर्व्यवहार होता रहा है, परन्तु बलात्कार जैसी घिनौनी घटना से पीड़ित होने के बावजूद मेडिकल प्रोटोकॉल के नाम पर इस तरह की कारवाई बेहद शर्मनाक है। इससे गुजरने वाली महिलाओं का कहना है कि ये फिर से बलात्कार होने जितना दर्दनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस तरह का टेस्ट एक अनैतिक कृत्य है, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह मानवाधिकारों का उलंघन है। 
लाहौर हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस आयशा मलिक ने इस पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा है कि, “यह एक बेहद अपमानजनक प्रक्रिया है जिसमें यौन हिंसा व आरोपी पर ध्यान देने के बजाय पीड़िता को ही गलत साबित किया जाता है।” हाईकोर्ट के इस फैसले पर पाकिस्तान की एक एक्टिविस्ट लिखती हैं कि, “मैं उन सभी महिलाओं की शुक्रगुजार हूँ, जिन्होंने दशकों तक ये लड़ाई लड़ी और आगे भी लड़ती रहेंगी। लेकिन हम बाकी महिलाएँ ये न भूलें कि यह तो समस्या का बस छोटा सा हिस्सा था।”
(4)
अर्जेन्टीना में बुधवार, 30 दिसम्बर 2020 को 12 घण्टे तक चले सत्र के बाद, 38 मतों के साथ गर्भपात को कानूनी वैधता देने वाला विधेयक पारित कर दिया गया। पिछले कई दशकों से वहाँ की महिलाएँ इसके लिए आन्दोलन कर रही थीं। इस बिल के अनुसार, किसी भी महिला को अब 14 सप्ताह तक के गर्भ को गिराने की मंजूरी है, और साथ ही दुष्कर्म और स्वास्थ्य को खतरा होने की स्थिति में 14 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराया जा सकता है। इस विधेयक का पास होना, लातिन अमरीका में होने वाले बड़े बदलावों में से एक है। 2018 में भी सदन में इस बिल को पास करवाने की कोशिश की गयी थी, पर मतों के कम होने के चलते यह बिल पास नहीं हो पाया था। वहाँ के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नान्डीज ने भी इस बिल का समर्थन किया है। लातिन अमरीका के कुछ अन्य देश जैसे– क्यूबा, उरुग्वे और गयाना में भी इसे कानूनी वैधता प्राप्त है। 
अर्जेन्टीना में अब तक महिलाओं को गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं थी। जो महिलाएँ गर्भपात करवाती थीं, उन्हें दण्डित किया जाता था व सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। सरकार का कहना है कि करीब 4–4 करोड़ की आबादी वाले अर्जेन्टीना में एक साल में तकरीबन 3–7 लाख से 5–2 लाख तक अवैध गर्भपात होते हैं। इस बिल का पास होना, पिछले कई सालों से महिलाओं को एबॉर्शन का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहे महिला आन्दोलनों की एक बड़ी जीत है। यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि वहाँ के कैथोलिक चर्च के पोप इस बिल के विरोध में थे, लेकिन इन सब के बावजूद भी वहाँ की महिलाओं ने हार नहीं मानी और संगठित संघर्ष से जीत हासिल की।
अर्जेन्टीना की एक लेखक और एक्टिविस्ट क्लोडिया पिनाइरो ने बिल पास होने के एक दिन पहले कहा कि, “सबके लिए बेहद मुश्किल रहे इस साल के अन्त में हम सबको इस बेहद महत्वपूर्ण और न भूल पाने वाले क्षण का इंतजार है। मैं केवल यही आशा करती हूँ कि सीनेट यह महसूस करें कि महिलाओं के लिए अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं बचा है। महिलाओं का यह आन्दोलन अब हमें हमारे शरीर व हमारे स्वास्थ्य के बारे में किसी और से अनुमति लेने और गुप्त रूप से गर्भपात करवाने को बाध्य करने की इजाजत नहीं देगा। 
“हमें अब भी उनकी ये बेतुकी दलीलें झेलनी पड़ती है कि हमें देश की आबादी बढ़ाने के लिए बच्चे करने ही होंगे, जैसे हम कोई इनसान नहीं बल्कि प्रजनन की कोई मशीन हैं या महज एक गर्भाशय हैं। लेकिन कल से यह सब बदल जाएगा। मुझे इस बारे में जरा भी सन्देह नहीं है।”
(5)
भारत मे 19 जनवरी 2021 को, मुम्बई हाइकोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज पुष्पा गनेड़ीवाला के अनुसार, एक 39 साल के व्यक्ति द्वारा बिना वस्त्र उतारे व भीतर हाथ डाले, बाहर से जबरन 12 साल की बच्ची के स्तन दबोचना पोस्को एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफन्सेज एक्ट) के अन्तर्गत यौन उत्पीड़न में नहीं आता। उनके निर्णयानुसार, उस व्यक्ति को इस अपराध से बरी कर दिया गया। न्याय व्यवस्था खुद जब स्त्री–विरोधी निर्णय देने लगे, तब महिलाएँ अपने साथ होने वाले अपराधों के लिए किसके सामने जाकर गुहार लगाएँ?
पीड़िता के मुताबिक, आरोपी सतीश बच्ची को खाने का सामान देने के बहाने अपने घर ले गया था। वहाँ उसने जबरदस्ती उसके ब्रेस्ट छूने और उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश की। हाईकोर्ट ने इस मामले को यह कहते हुए कि आरोपी और पीड़िता के बीच यौन मंशा के साथ किसी तरह का कोई स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ था, पोस्को एक्ट के अन्तर्गत रखने से इनकार कर दिया और आईपीसी सेक्शन 354 के तहत केवल शीलभंग के मामले में एक साल की सजा सुना दी। हालाँकि लोगों द्वारा इस बात की कड़ी निन्दा हुई है और इस फैसले को स्वीकार न करते हुए इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है।
महाराष्ट्र सरकार के पूर्व स्टैंडिंग काउंसिल निशांत कत्नेसवरकर इस फैसले पर कहते हैं, “बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो तर्क दिया है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। पोक्सो कानून के प्रावधान कहीं भी निर्वस्त्र करने की बात नहीं करते हैं। लेकिन हाई कोर्ट ने ये तर्क दे दिया है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।” 
ट्विटर पर एक महिला लिखती हैं, “मुम्बई कोर्ट का आज जो फरमान आया है उससे तो यही साबित हो रहा है कि आज भी भारत में पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग हैं और महिलाओं की बराबरी और आजादी सिर्फ कागजों तक ही रह गई है। भारतीय न्याय व्यवस्था पर शर्म आती है।”

–रुचि मित्तल


No comments:

Post a Comment