आज अगर महिलाएँ पढ़–लिख कर अपने बलबूते पर आगे आ रही हैं तो वहाँ भी स्त्री–पुरुष असमानता मौजूद है। आँकड़ों के ढेर पर बैठ कर इस बात की कल्पना करना आसान है कि देश की आर्थिक प्रगति कैसे हो रही है। बहुत सारी बातों की अनदेखी करके अक्सर भारत के आधुनिक चेहरे को दिखाया जाता रहा है। ऐसा चेहरा, जिसमें प्रगति की चमक है और विकास की रेखाओं से आभामण्डल शोभित है। उद्योग–व्यापार और अन्य क्षेत्रों में आँकड़े कह रहे हैं कि हमारा देश भविष्य में दुनिया में सिरमौर बन कर उभरेगा। लेकिन इस तस्वीर में महिलाओं की जगह कहाँ है?
भारतीय समाज में पितृसत्ता के अनेक रूप हैं जिन्हें विभिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है। पितृसत्ता एक व्यवस्था के रूप में किस तरह से काम करती है, इसे समझने के लिए इसकी विचारधारा को अहम माना गया है। विचारधारा के तौर पर यह महिलाओं में ऐसी सहमति पैदा करता है, जिसके तहत महिलाएँ पितृसत्ता को बनाये रखने में मदद करती हैं, क्योंकि समाजीकरण के जरिये वे खुद पुरुष वर्चस्व को आत्मसात करके उसके प्रति अपनी सहमति देती हैं। उनकी इस सहमति को कई तरीकों से हासिल किया जाता है। मसलन, उत्पादन संसाधनों तक उनकी पहुँच का न होना और परिवार के मुखिया पर उनकी आर्थिक निर्भरता। इस आधार पर यह समझना जरूरी हो जाता है कि पितृसत्ता सिर्फ एक वैचारिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि इसका भौतिक आधार भी है।
पितृसत्ता में महिलाओं को शक्ति और वर्चस्व के साधनों से वंचित करने पर उनकी सहमति आसानी से हासिल कर ली जाती है। फिर जब महिलाएँ पितृसत्ता के इशारों पर जिन्दगी जीने लगती हैं तो उन्हें वर्गीय सुविधाएँ मिलने लगती हैं। उन्हें मान–सम्मान के तमगों से भी नवाजा जाता है। दूसरी तरफ जो महिलाएँ पितृसत्ता के कायदे–कानूनों और तौर–तरीकों को अपना सहयोग या सहमति नहीं देती हैं, उन्हें बुरा करार दे दिया जाता है और आमतौर पर सम्पत्ति और सुविधाओं से बेदखल कर दिया जाता है।
मुझे अक्सर यह लगता है कि सामाजिक रूप से अब भी हम काफी पिछड़े हैं। स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर शिक्षा और नौकरी करने की छूट? इस आजाद देश में अपनी इच्छा से पढ़ने, नौकरी करने, न करने, विवाह करने या न करने की स्वतंत्रता जो हमारा संविधान हमें सालों पहले दे चुका है, वहाँ यह अनुमति का प्रश्न आता कहाँ से है? इस देश में स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता का आलम यह है कि लड़कियाँ खुद इस यह बताते हुए गर्व महसूस करती हैं कि मेरे घर वालों या ससुराल वालों ने मुझे आगे पढ़ने, नौकरी करने, साड़ी के बजाय सूट या जीन्स पहनने आदि को स्वीकार कर लिया है। वास्तव में यह पितृसत्ता के प्रति उनका बिना सोचे–समझे समर्पण और समर्थन है।
अपने जीवन के फैसले लेने और उसे किस तरह जीना है, यह तय करने का एक स्त्री को उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को है। विवाह, परिवार संस्था में घर–परिवार और बच्चों या घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी जितनी स्त्री की है, उतनी ही पुरुष की भी हो। विडम्बना यह है कि स्त्री अगर आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, तो भी वह भारतीय समाज के शोषण चक्र से मुक्त नहीं है।
नये जमाने के अनुसार अब महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव की सम्भावना नजर आ रही है। देश के सेवा क्षेत्र में महिलाएँ अपनी हिस्सेदारी ज्यादा से ज्यादा निभाने का प्रयत्न कर रही हैं। अक्सर यह देखने में आता है कि घर में अगर लड़का और लड़की दोनों हैं, तो लड़के को नौकरी के लिए दूसरे शहर में भेजने में भी कोई समस्या नहीं रहती और लड़की को बहुत हुआ तो उसी शहर में छोटी–मोटी नौकरी करने के लिए भेज दिया जाता है। वह भी काफी मान–मनौव्वल के बाद।
बहरहाल, सभी ओर छाये धुन्ध के बीच उम्मीद की किरणें भी कभी–कभार दिख जाती हैं। मुम्बई में एक टैक्सी सेवा देने वाली कम्पनी ने अपने यहाँ केवल महिला ड्राइवरों को ही रखा है। इसके अलावा, एक संस्था ने घरेलू सहायिकाओं को अपने यहाँ नौकरी पर रखा है और वह संगठित तौर पर यह काम करने वाली पहली कम्पनी बन गयी है। कई कम्पनियों ने महिलाओं को सुविधाजनक समय के मुताबिक काम करने की अनुमति देना आरम्भ कर दिया है। लेकिन विचार से स्तर पर बराबरी आधारित बदलाव जब तक नहीं होगा, केवल आर्थिक स्वतंत्रता पितृसत्ता के ढाँचे को बदलने के लिहाज से कोई खास नतीजे नहीं देने वाली।
लेकिन पितृसत्ता के ढाँचे में बदलाव अपने आप नहीं होगा। इसके लिए चेतनासम्पन्न संगठन की जरूरत होगी और पितृसत्ता पर निरन्तर प्रहार की जरूरत होगी।
(जनसत्ता से साभार)
–– गरिमा सिंह
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