Saturday, January 22, 2022

आत्मनिर्भर भारत में, उत्तर प्रदेश की आशक्त महिलाओं की कुछ झलकियाँ



अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं और महिला हैं तो हो सकता है की जिन्दगी की व्यस्तताओं के कारण आपको यहाँ की राजनीति और सरकार की सही जानकारी न मिल पाती हो। गाँवों–कस्बों–और शहरों में अटे पड़े सरकारी विज्ञापन तो सरकारी महिला सशक्तिकारण की बड़ी  लुभावनी तस्वीर पेश करते हैं। पर अगर वास्तविक आँकड़ों और सच्चाई पर गौर करें तो हम एक दूसरी ही छवि पायेंगे। बल्कि हम महिलाएँ तो रोज उसे जी ही रही हैं। हम पायेंगे कि अखबार हत्या, आत्महत्या और बलात्कार की खबरों से भरे पड़े हैं, आप कहेंगे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश में तो, यह महज चन्द घटनाएँ हैं।
चलिए, बात को और तथ्यपरक तरीके से देखने और समझने के लिए कुछ आँकड़ों पर एक नजर डालते है :–
1) उत्तर प्रदेश में औरतों के साथ होने वाला अपराध (पूरे देश के अनुपात में), 66–7 प्रतिशत है। (2019)
2) पूरे देश में दलितों के ऊपर अपराध में 7–3 प्रतिशत मामले बढ़े हैं।
दलितों के ऊपर होने वाले कुल अपराध का 25 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में है 
उत्तर प्रदेश में दलित बच्चियों के साथ हाथरस , खीरी और बलरामपुर की घटनाएँ पूरे हालात के चन्द उदाहरण हैं।
3) आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण की कई कसौटियाँ हो सकती है, पर पूँजी पर आधारित समाज–व्यवस्था में रोजगार पहली कसौटी है।
महामारी से पहले भी, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पूरे दक्षिण एशिया में काफी कम है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017–18 के अनुसार केवल 24 प्रतिशत महिलाएँ ही रोजगार में हैं। 
उत्तर प्रदेश में महिलाओं की रोजगार में भागीदारी 9–4 प्रतिशत है, हमारे पास हालिया संख्याएँ नहीं है, लेकिन हम उम्मीद करते है की तालाबन्दी के दौरान भीषण गिरावट आयी है।
उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या 58 प्रतिशत बढ़ी है। जून 30, 2018 में पढ़े–लिखे, रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 21–39 लाख थी जो अगले दो सालो में बढ़कर 34 लाख हो गयी।
देश का 90 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र में है, जिसमें बड़ी संख्या में औरतें हैं, जो मुख्यत: खेती और घरेलू काम में लगी हैं। प्रवासी पुरुषों की बड़ी संख्या वापस घर में आने से महिलाओं का घरेलू काम भी बढ़ गया और खेती में काम के अवसर भी घट गये हैं।
महिला स्वास्थ्य पर अगर नजर डालें तो लॉकडाउन के दौरान, ज्यादातर औरतें तमाम कारणों से जरूरी स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं ले सकीं, इसके कारण वे अब अन्य स्वास्थ्य समस्याओं या नयी बीमारीयों की चपेट में आ रही हैं। 
महिलाओं के जीवन का अदृश्य क्षेत्र है ––उनका मानसिक स्वास्थ्य। हाल ही में नौजवान लड़कियों पर किये गये एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि उनमें अवसाद, चिन्ता और तनाव का स्तर बहुत बढ़ गया है। दुखद बात यह है कि मानसिक स्वास्थ्य को कोई गम्भीरता से लेता ही नहीं।
एक तरफ मानसिक स्वास्थ्य की यह तस्वीर है तो दूसरी तरफ अधिकांश लडकियाँ कुपोषण और खून की कमी का शिकार हैं। कुपोषण और खून की कमी का प्रतिशत जो पहले 49–9 प्रतिशत था अब बढ़ कर 52–4 प्रतिशत हो गया।
6 महीने से 6 साल के लगभग चार लाख कुपोषित बच्चे उत्तर प्रदेश में हैं। हम इस स्थिति को महँगाई और रोजगार के सापेक्ष रख कर देख सकते हैं। दालें जो प्रोटीन का सबसे सुलभ स्रोत हैं, उनकी कीमत 96 रूपये से 110 रूपये प्रति किलो है। क्या इस बढ़ी हुई कीमत का असर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता होगा? मुट्ठी भर लोगों को गैस, दाल, आटा और तेल की बढ़ी कीमतें फर्क नहीं डालती होंगी पर बड़ी आबादी को ये गहराई से प्रभावित करती है।
अगर ये चन्द आँकड़े तस्वीर स्पष्ट नहीं कर रहे, तो अपने आसपास कम्पटीशन देने वाले नौजवानों की आँखों और दिल में झाँक कर देखिए, बेचैनी भरी अनिश्चितता, हर हफ्ते जान ले रही है। आप किसी घरेलू कामवाली, जोमैटो डिलीवरी ब्वाय, ठेले वाले, मिस्त्री, पार्लर चलाने वाली गली मोहल्ले की औरत से बात करके भी स्थिति को समझ सकते हैं।
अब सवाल है दवा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा और सम्मान गायब कहाँ है? सरकार रोज वायदे कर रही है–– आत्मनिर्भर भारत और महिला सशक्तिकरण की। थोड़ा ध्यान से देखिए और सोचिए, जुमलेबाजी और लोक–लुभावन बातें या चन्द लोगों को चन्द टुकड़े देने से, हमारी समस्या हल नहीं होगी। हमें मन्दिर–मस्जिद, देशी और विदेशी, अपने और पराये, दोस्त और दुश्मन में उलझाने वाली पार्टी और सरकार नहीं चाहिए। हमें हमारे लिए यानि जनता के लिए नीतियाँ बनाने वाली, हम महिलाओं को सुरक्षा, बराबरी, आर्थिक निर्भरता और सम्मान देने वाली राजनीति और सरकार चाहिए।
–– पद्मा 


पाठा की बिटिया
गहरा साँवला रंग
पसीने से तर सुतवाँ शरीर
लकड़ी के गट्ठर के बोझ से
अकड़ी गर्दन
कहाँ रहती हो तुम
कोल गदहिया, बारामाफी, टिकरिया
कहाँ बेचोगी लकड़ी
सतना, बाँदा, इलाहाबाद
क्या खरीदोगी
सेंदुर, टिकुली, फीता
या आटा, तेल, नमक
घुप्प अँधेरे में
घर लौटती तुम
कितनी निरीह हो
इन गिद्धों भेड़ियों के बीच
तुम्हारे दु%खों को देखकर
खो गया है मेरी भाषा का ताप
गड्ड–मड्ड हो गये हैं बिंब
पीछे हट रहे हैं शब्द
इस अधूरी कविता के लिए
मुझे माफ करना
पाठा की बिटिया।
– केशव तिवारी
(पाठा: बुन्देलखण्ड के बाँदा जिले का पठारी भाग)

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