Wednesday, October 2, 2024

बईमान प्रार्थनाएँ


 अषाढ़ के महीने में

ये पक्के रंग वाली मेहनतकश औरतें

मय परिवार उजाड़ आयीं हैं

अपना डेरा–डंडा

 

बूढ़–पुरनियाँ, बच्चा–बुतरू सब लेकर

घर झारकर उठ आयीं हैं

बहुत दूर

 

मंदिर के पीछे

और मंदिर से दूर

 

तालाब के किनारे

और तालाब से दूर

 

निखहरे लेटी हुई हैं इनकी बुढियाएँ

आसमान ताकते हुए

जिनकी आँखों के लिए इस उम्र में भी

दिन में देखा गया सपना ही है

दो मुट्ठी भात

 

सांप बिच्छू के दिन में

घास पर नंगे ही सोए हुए हैं

उनकी गोद के बच्चे

 

जिनकी सांसें उनकी पसलियों के बीच

अटक–अटक कर चल रही है

यह देखने के लिए

नहीं चाहिए किसी डॉक्टर की नजर

 

खड़ी दोपहर में

बाल–बच्चों को छोड़

घुटने भर कीचड़ में कछोटा मारकर

उतर जाती हैं

 

बाढ़ उतर जाने के बाद

कमर तोड़कर रोपती हैं धान

 

खुली भूख लिए

आधा पेट खाती हैं

गीत गाती हैं

 

और घोंघे और जोंक के दिए घावों को

गिने बिना ही

सो जाती हैं खुले आसमान के नीचे

बदले में

 

उनके आँचलों में पलट दिया जाता है

सूंड़ी, सुरसुरियों और मूस की लेडियों से भरा हुआ अनाज

गाय–भैंसों ने फेर लिए हैं जिनसे मुँह

 

भादो तक खुले आसमान के नीचे

अपने प्रवास के बाद

लौट जाती हैं अपने देस

 

उनके हाथों में छोटी–छोटी पोटलियाँ हैं

जिनमें एक भी पोटली

कृतज्ञता की नहीं

 

फसल लहलहा जाती है

जोत मालिक

आसमान की तरफ उठाता है हाथ

और उस ईश्वर को देता है धन्यवाद

जिसके पसीने की एक बूंद तक नहीं टपकी है

उसके खेत में

 

अपनी प्रार्थना में अर्पित कर देता है

रोपनिहारिनों के हिस्से की सब कृतज्ञताएँ

 

और मैं सोचती हूँ कि

इन पेट–कटवा बईमानों का

कौन सा बईमान ईश्वर है!

जो स्वीकार करता है बईमान प्रार्थनाएँ

और हड़प जाता है मेहनतकशों का हिस्सा

बिना हिचके और बिन सवाल किए!!

–– कविता कादम्बरी

x

No comments:

Post a Comment