–– अपूर्वा
जैसा कि हम जानते हैं कि भारत एक गणराज्य है लेकिन वह विभिन्न जाति, उपजाति, धर्म में भी बँटा हुआ है। ऐसे भेदभावपूर्ण बँटवारे में जीवन खूबसूरत नहीं हो सकता। जहाँ तक हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का प्रश्न है वह भी बहुत अच्छी नहीं है। उन्हें देवी बनाकर पूजा जाता है तो हर तीन मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार भी होता है। ऐसे समाज में स्त्री का किसी के प्रेम में पड़ जाना भला साधारण घटना कैसे मानी जा सकती है?
हमारा समाज और परिवार जितना अलोकतांत्रिक है उसमें प्रेम में पड़े युवा अपने प्रेम सम्बन्ध की सूचना अपने माता–पिता को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। ऐसे में प्रेम चोरी–छिपे ही आगे बढ़ता है। घर से छिपते–छिपाते जब युवा जोड़े बाहर मिलते हैं तो भी समाज की तीखी नजरें उन्हें घूरने से बाज नहीं आती, जैसे यह कोई अपराध हो। आम जनता के साथ–साथ बजरंग दल, एण्टी रोमियो स्क्वायड जैसे सरकारी–गैरसरकारी गिरोह भी उन्हें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पुलिस इन गिरोहों को पूरा सहयोग करती है।
छुप–छुप कर मिलते हुए जब यह प्यार परवान चढ़ता है और प्रेमी शादी करने का फैसला करते हैं, तब हालात और भी मुश्किल हो जाते हैं। घर वालों को बताना और उनकी मंजूरी हासिल करने की जद्दोजहद में ही कई प्रेम कहानियों का अन्त हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि इक्कीसवीं सदी के उन्नत भारत में प्रेम और प्रेम विवाह को आज भी स्थान नहीं मिल पाया है। इस लेख को लिखने से पहले तक मेरा मानना था कि आजकल अधिकतर लोग अपनी पसन्द से अपना जीवनसाथी चुन रहे हैं और हमारा समाज बदलाव की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है। लेकिन थोड़ी ही जाँच–पड़ताल करने पर मेरा यह भ्रम दूर हो गया, जब मैंने ‘द लोक फाउंडेशन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी सर्वे’ की एक रिपोर्ट पढ़ी जिसमें बताया गया है कि आज भी औसतन 93 प्रतिशत युवा अपने माता–पिता के द्वारा तय की गयी शादी करते हैं। यह तथ्य चैंकाने वाला है। हमारे पढ़े–लिखे युवा जो देश की तरक्की में अपना योगदान दे रहे हैं, वे अपने लिए जीवनसाथी ढ़ूँढ़ पाने में असमर्थ हैं! क्या वास्तव में ऐसा है? बिल्कुल भी नहीं। प्यार करने में हमारे युवा पीछे नहीं हैं, पर बात जब प्यार को शादी ––एक सामाजिक सम्बन्ध का नाम देने की आती है तो हमारे समाज का ताना–बाना और इसकी पिछड़ी सोच बीच में आ जाती है।
सबसे पहली समस्या तो यही है कि हमारे समाज में लड़के और लड़की के बीच का प्रेम स्वीकार्य नहीं है। लड़कों को तो फिर भी थोड़ी–बहुत आजादी मिल जाती है, पर लड़कियों के प्रेम–सम्बन्ध की खबर मिलते ही घर–परिवार, पड़ोसी सभी मिलकर उसे चरित्रहीन घोषित कर देते हैं, और उसकी तथाकथित पवित्रता के खो जाने के डर से उसे समझा–बुझा कर, डरा–धमका कर रिश्ता खत्म कर लेने की हिदायत दे देते हैं। कई बार तो उसे घर में ही कैद कर दिया जाता है और जल्दी से जल्दी किसी के भी गले बाँधकर पूरे कुनबे की ‘इज्जत’ की रक्षा की जाती है।
वहीं दूसरी तरफ लड़के के परिवार वाले भी ऐसी लड़की को अपने घर नहीं लाना चाहते जिसने प्यार करने की हिम्मत की हो। उनका मानना होता है कि ऐसी लड़कियाँ ‘तेज’ होती हैं और घर–परिवार सम्भालने के लायक नहीं होतीं। ऐसी लड़कियों की शुद्धता की भी तो कोई गारण्टी नहीं होती! मानो घर के लिए सदस्य नहीं सामान चाहिए, जो इनके हिसाब से काम करे। वहीं प्रेम विवाह में दहेज मिलने की सम्भावना भी कम हो जाती है। इसीलिए ऐसे विवाह से लड़के वालों को तो नुकसान ही नुकसान नजर आता है।
किसी तरह ये सब सुलझ भी जाये तो अगली समस्या आती है, जाति–धर्म की। अगर लड़का–लड़की अलग–अलग जाति के हैं तब यह बात और भी गम्भीर हो जाती है। ज्यादातर मामलों में परिवार वाले ऐसे सम्बन्धों को स्वीकार नहीं करते हैं। अन्तरजातीय विवाह आज भी समाज में स्वीकार्य नहीं है। ‘इंडियन ह्यूमन डिवेलपमेंट सर्वे’ के अनुसार अन्तरजातीय विवाह का प्रतिशत निम्न वर्ग में सबसे बेहतर है, वहीं उच्च वर्ग में यह कुछ हद तक स्वीकार किया जाता है। पर मध्यम वर्ग जो ज्यादातर दिखावे की जिन्दगी जीता है, वह इसे अपनी शान के खिलाफ समझता है। जातियों और उपजातियों के बँटवारे की जकड़ इसी वर्ग में सबसे मजबूत होती है। इसके लिए लोग मरने–मारने से भी पीछे नहीं हटते। नेता–अभिनेता आदि भी इस सोच से नहीं बच पाते। वर्ष 2019 में भाजपा के बरेली के एक क्षेत्र के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी ने जब एक दलित युवक से शादी कर ली तो विधायक ने उसे जान से मारने की धमकी दी, जिसपर बेटी ने पुलिस से मदद की गुहार लगाते हुए अपना वीडियो सोशल मीडिया पर डाला था। उसकी जान तो बच गयी पर ऐसे ही न जाने कितने प्रेमी युगलों को परिवार वालों की झूठी शान की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
यह समाज जहाँ अन्तरजातीय विवाह करने पर लोगों की जान ले ली जाती है, वहाँ दूसरे धर्म में विवाह करने बारे में लोग सोच ही नहीं पाते। ऐसे रिश्तों में ज्यादातर प्रेमी आपसी सहमति से सम्बन्ध–विच्छेद कर लेते हैं। यहाँ शिक्षा, पैसा, रुतबा, कुछ भी काम नहीं आता। यहाँ तक कि अधिकतर युवा भी दूसरे धर्म में शादी को सही नहीं मानते। बँटवारे और नफरत की आग में जलता यह समाज ऐसे विवाह को सिरे से खारिज कर देता है।
वर्ष 2014 में हापुड़ जिले के रहने वाले दलित जाट सोनू और मुस्लिम धनिष्टा के प्यार की खबर जब घर वालों की लगी, जो कि सालों से अच्छे पड़ोसी थे, तब लड़की के भाई ने उन दोनों की हत्या कर के अपने धर्म और परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा की। इसी तरह 2015 में विजय शंकर यादव ने जब सूफिया मांसुरी से भाग कर शादी कर ली तो लड़की के भाई ने योजना बनाकर ईद के दिन 9 महीने की अपनी गर्भवती बहन और उसके पति की कुर्बानी देकर पूरे समाज की ‘आन’ बचायी।
आखिर जान लेने की इजाजत इन्हें कौन देता है? सिर्फ इसलिए कि उसने अपनी पसन्द से शादी की? कैसे एक भाई, एक पिता का दिल इतना पत्थर हो जाता है कि अपनी ही बहन–बेटी का खून कर देते हैं? वो कौन सी भावना है जो इतनी मजबूत है कि सालों के प्यार भरे रिश्ते को खून से रंग देती है?
सच तो यह है कि हमारा सामाजिक ताना–बाना जो बँटवारे की नींव पर खड़ा है, जहाँ हर धर्म एक दूसरे से होड़ करने में लगा है, जहाँ दूसरे धर्म के लोगों को हिकारत की नजर से देखा जाता है, वह लोगों को ऐसे कुकृत्य करने के लिए प्रेरित करता है। धर्म रक्षा के लिए खून करने पर पूरे सम्प्रदाय और समाज को ‘बिगड़ने’ से बचाने की जो वाहवाही मिलती है, वह लोगों के मन में इस विचार को पुख्ता करती है कि जो उन्होंने किया वह सही है। किसी की जान लेने को यह समाज गलत नहीं मानता, पर प्यार करना यहाँ गलत है। वहीं देश की राजनैतिक पार्टियाँ ऐसी खबरों को साम्प्रदायिक रंग देकर समाज में नफरत की आग को हवा देती हैं और उस पर अपनी सियासी रोटियाँ सेंकती हैं।
विचार करने वाली बात यह है कि आखिर इस समाज को प्यार से इतनी नफरत क्यों है? प्यार एक खूबसूरत एहसास है और यह लोगों को एक नयी उर्जा और हिम्मत देता है। यह गलत चीजों का विरोध करना और लड़ना सिखाता है। प्यार में पड़े लोग अक्सर जाति–धर्म के बन्धनों को भी तोड़ देते हैं। यह इनसान को हिन्दू, मुस्लिम, दलित, ब्राह्मण से उपर उठकर इनसान बनाता है। बँटवारे की आग बुझाकर एकता कायम करता है और एक बेहतर इनसान और समाज की रचना करता है। उन सभी लोगों को जो एक बेहतर कल का सपना देखते है, प्यार जरूर करते हैं और उन्हें करना चाहिए। प्रेम का महत्व समझने वाले नौजवानों के लिए निदा अंसारी ने ‘प्यार में पड़े लड़के’ कविता लिखी है, जो इस तरह है––
“प्यार में पड़े लड़के
फब्तियाँ नहीं कसते
रास्ते में जाती लड़कियों पर,
वे घूरकर नहीं देखते
बस या ट्रेन में चढ़ती
लड़कियों के सीने को
या शॉर्ट्स पहने बैडमिण्टन खेलती
लड़कियों की जाँघों को।
प्यार में पड़े लड़के गला नहीं घोंटते
छोटी बहनों के सपनों का।
वे अपनी बेपरवाही छोड़ बन जाते हैं
एक जिम्मेदार इनसान।
जिम्मेदारी अपनी प्रेमिका के
ऑफिस जाने से घर आने तक की सुरक्षा की,
जिम्मेदारी अपने पिता की
जिम्मेदारियों के प्रति जिम्मेदार बनने की।
इन लड़कों के अपनी माँ से बात करने के लहजे में
जरा और मिठास घुल जाती है
थोड़ी ज्यादा हो जाती है उनकी समझ,
बहन के लिए गिफ्ट लाने के मामले में।
प्यार में पड़े लड़के नहीं झगड़ते अब
बिना बात सड़कों पर,
किसी एक लड़की से प्रेम करते हुए
लड़के जान ही नहीं पाते कि
वे अब पूरी दुनिया से प्रेम करने लगे हैं।”
जब एक औरत कहती है “क्या?”
इसलिये नहीं कि उसने सुना नहीं, वो आपको मौका दे रही है कि आपने जो कहा उसे सुधार लें–
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