नोएडा की एक मल्टीनेशनल कम्पनी में पिछले 10–12 साल से काम करने वाली नीति 6 महीने पहले माँ बनी। अब कोरोना काल में उसके सामने संकट है कि छोटे से बच्चे को घर में छोड़कर कैसे दोबारा अपना ऑफिस ज्वाइन करे।
नीति जब बीएससी कर रही थी तब उसके पिता को जानलेवा बीमारी के चलते अस्पताल में लम्बे समय तक भर्ती रहना पड़ा। इसके चलते नीति को जैसे–तैसे अपना बीएससी खत्म करके तुरन्त ही घर के हालात को सुधारने के लिए यूपी के एक छोटे से गाँव से नौकरी करने नोएडा आना पड़ा।
पहले तो उसकी इच्छा थी कि वह एमएससी करे, फिर एमएससी नहीं कर पायी तो उसे लगा कि एमबीए कर ले। लेकिन अपनी नौकरी और घर की जिम्मेदारियों के चलते वह अपनी आगे की कोई भी पढ़ाई नहीं कर पायी।
इन 10 सालों में उसने जितना भी पैसा कमाया उसका एक छोटा सा हिस्सा अपने महीने के खर्चे के लिए रखकर वह सारा पैसा घर दे दिया करती थी। उसे लगता था कि पापा नहीं हैं तो उसके दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी उसी की है।
नीति एमबीए नहीं कर पायी, लेकिन छोटे भाई को करवा दिया और अब वह भी एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी करता है।
एक बार नीति को अपनी कम्पनी से सिंगापुर या कनाडा में जाकर काम करने का ऑफर मिला था लेकिन अपने घर की जिम्मेदारियों के चलते उसने उसे भी मन मार कर ठुकरा दिया था।
इस बीच तीनों भाई बहनों की शादी भी हो गयी।
पहले नीति से बड़े भाई की शादी हुई फिर नीति की और उसके बाद छोटे भाई की।
नीति ने अपने भाइयों की शादी में भी पैसा दिया, लेकिन अपनी शादी पर उसने अपने स्वाभिमानी स्वभाव के चलते बैंक से एक, डेढ़ लाख रुपए लोन लेकर, बिना घर से एक रूपये की मदद लिए खुद साधारण तरीके से अपनी शादी की दावत की। उसने अपनी माँ से भी कह दिया कि मुझे किसी भी तरीके का कोई दहेज या गहने नहीं चाहिए।
कुछ महीनों पहले नीति के घर की सम्पत्ति का बँटवारा हुआ। उनकी 46 बीघा जमीन थी। जिसमें से 10 बीघा माँ के नाम और बाकी 36 बीघा दो भाइयों के नाम हो गये।
बहन के बारे में ना घर वालों ने सोचा ना बहन ही इस बारे में हिम्मत कर पायी, कि वह अपना हिस्सा माँग पाये। जबकि उसे पता है कि यह उसका भी अधिकार है। लेकिन भाइयों से रिश्ते ना खराब हो जायें या फिर नाते रिश्तेदार कहीं उसे ताने ना देने लगें, यह सोचकर वह चुप रह गयी।
जमीन में हिस्सेदारी मिलते ही एक भाई ने अपनी दूध की डेरी खोली और एक भाई ने अपने हिस्से के खेत में एक्स्ट्रा इनकम के लिए मुर्गियों का फॉर्म खोल दिया। नीति अगर अपने घर का एक नालायक बेटा होती, तो भी उसके हिस्से में बिना माँगे ही सम्पत्ति आ जाती। 10 –12 साल नौकरी करने के बावजूद नीति का बैंक अकाउंट खाली है। और छोटे भाई 18–18 बीघा जमीन के मालिक हैं।
सम्पत्ति के मामले में महिलाओं की सामाजिक स्थिति
भारतीय समाज में सदियों से घर में लड़की पैदा होते ही उनको पराये घर की मान लिया जाता है। लड़की के मातृ–पितृ पक्ष वाले सोचते हैं कि लड़की का चल–अचल सम्पत्ति पर अधिकार तो उसकी शादी के बाद ससुराल के घर पर होगा और ससुराल वाले सोचते हैं कि लड़की पराये घर से आई है। शादी के बाद भी लड़की का अपने पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद ही सम्पत्ति पर हक मिल पाता है या फिर किसी वजह से तलाक होने से मात्र गुजारा भत्ता दे दिया जाता है। अन्यथा महिलाओं का ना तो ससुराल में और ना ही अपने पैतृक घर में सम्पत्ति पर किसी भी तरीके का अधिकार होता है। अगर कोई लड़की पैतृक सम्पत्ति पर अपना अधिकार माँगती है तो उसे हमारे पुरुषवादी समाज में यह मान लिया जाता है कि लड़की अपना अधिकार न माँग कर भाइयों का हिस्सा माँग रही है। माँ–बाप भी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित होने के चलते बेटियों को उनका हक नहीं देते हैं और यह सोच लेते हैं कि बुढ़ापे में बेटा ही उनके काम आएगा। इसलिए वे चुपचाप बेटे के पक्ष में चले जाते हैं और लड़कियों को वापस मायके न आने की हिदायत तक दे दी जाती है। यहाँ तक कि खुद महिलाएँ भी अपने भाइयों से या माँ–बाप से सम्बन्ध खराब न हो जाए या समाज उन्हें लालची ना समझने लगे और उनको समाज में लोगों के सामने बेइज्जत ना होना पड़े, यह सोचकर अपना अधिकार नहीं माँगती हैं। बल्कि बहुत सी महिलाएँ सम्पत्ति में अधिकार होने को लेकर जागरूक न होने के चलते व बचपन से उनकी जिस तरीके से पराये घर जाने के लिए पालन–पोषण किया जाता है, उसके चलते खुद ही यह मान लेती हैं कि इसमें हमारा कोई अधिकार नहीं है। हमारी शादी हो गयी है, अब ससुराल का घर ही हमारा घर है।
जब पैतृक सम्पत्ति में बँटवारे के समय बहुत से पिताओं के द्वारा लड़कों के नाम वसीयत लिखी जाती है तो उसमें भी यह कह दिया जाता है कि हमने लड़की की शादी में और उसके दहेज में जो देना था दे दिया है, अब हम उसे कुछ भी नहीं देना चाहते। जबकि हम सभी जानते हैं कि दहेज लेना या देना एक बुरी प्रथा है उसको खत्म करके हमें पुरजोर तरीके से महिलाओं को उनका सही अधिकार देना चाहिए। जिस दिन लड़कियों को उनका जायज हक दिया जाने लगेगा उस दिन स्वत: ही दहेज प्रथा खत्म हो जाएगी।
ससुराल में भी पति–पत्नी के आपसी झगड़े में पति द्वारा पत्नी को घर से निकाल दिया जाता है, तब भी महिलाओं को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते मायके वालों के सामने ही भीख और दया पर गुजारा करना पड़ता है। मायके वाले किसी तरह महिला को इज्जत से गुजारा भत्ता दें यही बहुत बड़ी बात है। बल्कि ज्यादातर परिवार में शादी के बाद लड़की का मायके में रहना घर वालों को बोझ ही लगता है।
महिलाओं के पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार सम्बन्धी कानून
हमारे देश में महिलाओं को लैंगिक बराबरी देने के लिए विभिन्न कानून बनाये गये हैं जिनमें से एक है पैतृक सम्पत्ति पर कानूनी अधिकार। डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान में तो हमारे देश के सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिया है, लेकिन उसके बावजूद महिलाओं को सम्पत्ति पर बराबरी का अधिकार देने के लिए 1951 में हिन्दू कोड बिल पारित करने का संसद में प्रयास किया गया था, तब विपक्ष के द्वारा घोर विरोध किए जाने के चलते लागू नहीं हो पाया था। इसके चलते तत्कालीन कानून मंत्री डॉक्टर अंबेडकर ने दुखी होकर अपना इस्तीफा दे दिया था। उसके बावजूद सन 2005 में महिलाओं को उसी बिल में संशोधन करके सम्पत्ति में बराबरी का अधिकार दिया गया था। इसके बाद बहुत सी महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए कोर्ट केस कर दिये थे, लेकिन पिछले 15 साल से कानून में पारदर्शिता न होने के चलते बहुत सी महिलाओं को परेशानी उठानी पड़ रही थी। बाद में सुर्पीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने 2020 में स्पष्ट रूप से फैसला सुना दिया था कि महिलाएँ विवाहित हों या अविवाहित उन्हें उसकी पैतृक सम्पत्ति में पुरुषों के बराबर का अधिकार दिया जाएगा और यह लड़की का जन्मसिद्ध अधिकार है। 2020 का यह फैसला 1951 में पेश किये गये डॉक्टर अंबेडकर के हिन्दू कोड बिल की ही जीत है।
आज 21वीं सदी की इस अत्याधुनिक समय में महिलाओं के पास भारत में मात्र 12–9 प्रतिशत खेती की जमीन पर मालिकाना है, जबकि खेती के काम में महिलाओं का लगभग 75 प्रतिशत का योगदान रहता है। हाड़–तोड़ मेहनत करने के बावजूद महिलाएँ सिर्फ खेतिहर मजदूर बनकर रह गयी हैं।
सम्पत्ति के मामले में ग्रामीण इलाके में महिलाओं के पास खुद से खरीदी गयी या फिर किसी भी तरीके से मिली सम्पत्ति का मालिकाना 31–4 प्रतिशत है जबकि यही आँकड़ा शहरों में मात्र 22–9 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में सम्पत्ति के मामले में लैंगिक समानता ज्यादा होने का एक मुख्य कारण पुरुषों का शहर में आकर मजदूरी करना भी है।
सम्पत्ति पर अधिकार होने के महिलाओं को फायदे
आज की घोर पूँजीवादी (पैसे से चलने वाली) दुनिया में हम सभी जानते हैं कि हमारी दिनचर्या के सभी काम हमारे आर्थिक स्थिति के अनुसार ही सुचारु ढंग से चलते हैं। समाज में किस की क्या हैसियत है यह उसकी जमीन जायदाद और सम्पत्ति पर ही निर्भर करती है। आर्थिक स्थिति मजबूत होने से हम अपनी जिन्दगी के ज्यादातर जरूरी फैसले खुद ले पाते हैं अन्यथा दूसरों के फैसलों में सिर झुका कर हामी भरनी पड़ती है।
समाज में अगर हम जातिगत रूप से भी देखते हैं तो हमारे सामने समाज में उसी का दबदबा होता है जो आर्थिक रूप से संपन्न जातियाँ हैं। घर परिवार में बड़े फैसले भी ज्यादातर पुरुष ही लेते हैं क्योंकि उनके पास एक मजबूत आर्थिक आधार होता है।
हमारे पुरुष प्रधानसमाज की मानसिकता यह है कि महिलाओं को पुरुषों के नीचे दबकर रहना चाहिए। महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले इस समाज को डर है कि महिलाओं को अगर सम्पत्ति पर अधिकार मिल गया तो वे बराबरी के अधिकार के लिए लड़ने लगेंगीं और पुरुषसत्ता को नकार देंगीं जिससे सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक गुलामी की बेड़ियाँ टूट जाएँगी और सामन्तवादी पारिवारिक ढ़ाँचा टूट सकता है।
अगर अपना जायज अधिकार माँगने के चलते परिवार वालों से किसी महिला का सम्बन्ध्ा खराब हो भी जाता है तो हमें ऐसे सम्बन्ध क्यों बनाये रखने चाहिए जो हमारा हक मारना चाहते हैं?
सम्पत्ति और जमीन जायदाद को लेकर हमारे समाज में सगे भाइयों में भी लड़ाई होती हैं, लेकिन लड़ाई के डर से पुरुष तो अपना हक नहीं छोड़ते। फिर हम महिलाओं को अपना हक क्यों छोड़ना चाहिए?
इस दुनिया की आधी आबादी होने के चलते हमें कमला भसीन (नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता) की यह लाइनें याद रखनी चाहिए–
ना कम ना ज्यादा,
हमें चाहिए आधा–आधा।
-स्वाति सरिता
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