Tuesday, March 23, 2021

भारतीय किसान आन्दोलन को मजबूत बनाती महिलाओं से बातचीत



भारत में भूमि ही किसानों की माँ है, और यहाँ की माताएँ, बहनें और बेटियाँ इस आन्दोलन का एक मजबूत आधार बनी हुई हैं। 
50 साल की बलजीत कौर पंजाब (भारत) में ताउम्र खेती करती रही हैं। उनके लिए फसलों को उगाना, अपनी जमीन पर उनकी खेती करना सिर्फ एक पेशा नहीं है बल्कि उससे कहीं ऊपर एक वरदान की तरह है– यह उनके खून में है। 
यदि कोई सामान्य दिन होता, तो बलजीत कौर अपने खेतों में एक लम्बा समय बिता रही होतीं, ध्यान से बीजों को बोती और फसलों की कटाई कर रही होतीं। यह काम आसान नहीं है, लेकिन वह इसके लिए पूरी तरह समर्पित हैं। इसके बावजूद वह आज अपने खेतों में नहीं बल्कि भारत की राजधानी नयी दिल्ली की सीमा टिकरी बॉर्डर पर हैं, जहाँ वह और सैंकडों किलोमीटर दूर से आए अन्य महिला व पुरुष किसान सितम्बर में पास हुए नये कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर बैठे हैं। 
बलजीत कहती हैं, “हम अपनी जमीनों के लिए इन काले कानूनों के खिलाफ लड़ रहे हैं जो मोदी ने लागू किये हैं।” उन्हें डर है कि इन नये कृषि कानूनों के कारण उन जमीनों का मालिकाना जो पीढ़ियों से उनके परिवारों के पास रहा है, उनसे छिन जाएगा और उसे पाने के लिए वे दृढ़ निश्चयी हैं। 
किसान इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि ये तीन कानून जो कृषि क्षेत्र को बर्बाद करने के लिए बनाए गए हैं, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य), सरकार द्वारा तय किया गया वह न्यूनतम मूल्य जिस पर किसान अपनी फसल बेच सकता है, की गारण्टी नहीं देते। बिना इस सुरक्षा मूल्य के किसानों को इस बात की आशंका है कि उन्हें प्राइवेट कम्पनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करनी पड़ेगी जहाँ ये कम्पनियाँ तय करेंगी कि किसान क्या उगाएगा और किस दाम पर बेचेगा। ये नियम कम्पनियों के, खेती की जमीनों को खरीदने व खाद्य सामग्री के संचय पर लगे प्रतिबन्ध को भी खत्म करते हैं। 
जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह दावा कर रहे हैं कि ये कानून कृषि क्षेत्र को आधुनिक बना देंगे और किसान इस बात पर जोर दे रहे हैं कि एमएसपी की गारण्टी दिए बिना कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और बड़े स्तर पर निजीकरण के लिए कृषि बाजारों को खोल देना पहले से शोषित वर्गों के और अधिक शोषण को आसान बना देगा।
पिछले कुछ हफ्तों में, इन नये कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन ने जोर पकड़ लिया है। सैंकड़ों–हजारों प्रदर्शनकारियों ने कृषि क्षेत्र में अग्रणी तीन राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर–प्रदेश से देश की राजधानी दिल्ली की मुख्य सीमाओं– सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर धरना प्रदर्शन करने के लिए रैली निकाली। 
सरकारी आकाओं की प्रदर्शनकारियों को शहर में न घुसने दे पाने की लाख कोशिशों के बावजूद भी किसानों के उत्साह में किसी तरह की कोई कमी नहीं दिखी। उनकी साधारण सी माँग है– काले कानूनों को वापस लो। 
“महिलाएँ पुरुषों से अधिक मेहनत करती हैं”
भारत मे प्रदर्शन कर रहे किसानों की सार्वजनिक छवि पर जहाँ पुरुषों का पलड़ा भारी है, वहीं महिलाएँ भी कुछ कम नहीं है। बल्कि महिला किसान तो इन नये कानूनों से सबसे अधिक प्रभावित होंगी। 
महिला किसान अधिकार मंच (एमएकेएएएम), एक भारतीय मंच जो महिला किसानों के अधिकारों के लिए आवाज उठाता है के अनुसार– सम्पूर्ण कृषि कार्यों का लगभग 75 प्रतिशत कार्य महिलाओं द्वारा किया जाता है, इसके बावजूद भी वें केवल 12 प्रतिशत जमीनों की मालिक हैं। 
एमएकेएएएम की कविता कुरुगंती कहती हैं कि महिला किसान जमीनों पर अपने मालिकाने हक की कमी के चलते धीरे–धीरे गायब होती जा रही हैं। कृषि क्षेत्र में व्यापक योगदान होने के बावजूद भी जमीनों पर हक न होने के कारण उनको किसान नहीं माना जाता और उनका इस कदर हाशिये पर आ जाने का अर्थ ये निकलता है कि वे इन नये कानूनों के तहत बड़ी–बड़ी कम्पनियों द्वारा किये जाने वाले शोषण से सबसे अधिक प्रभावित होंगी। 
खेती में मूल्य निर्धारण के मामले में सरकारी संरक्षण की कमी लिंग–भेद को और अधिक बढ़ावा देगी क्योंकि कृषि क्षेत्र में बढ़ती हुई प्रतियोगिता के आधार पर यह माना जाता है कि महिलाओं के बहुत सी सीमाओं जैसे– यातायात के साधनों की पहुँच से दूरी, घर की जिम्मेदारियाँ इत्यादि में बंधे होने के चलते उनके साथ पुरुषों की तुलना में व्यापार करना कहीं अधिक आसान होता है।
कुलविन्दर कौर और परमिन्दर कौर (‘कौर’ सभी सिक्ख महिलाओं को दिया जाने वाला एक उपनाम है) दो महिला किसान हैं जो 645 किलोमीटर (400 मील) की यात्रा करके जालंधर (पंजाब) से टिकरी पहुँची। उन्होंने अपने ट्रकों को खड़ा करके उसके पीछे वाले हिस्से में कैम्प लगा लिए और अन्य महिला प्रदर्शनकारियों के साथ धरने प्रदर्शन पर बैठ गयीं जब उन्होंने अलजजीरा को यह सब बताया। 
कुलविन्दर पूछती हैं, “जब कोई निश्चित मूल्य अथवा सरकारी मण्डी ही नहीं होगी तो कैसे हम अपने बच्चों को रोटी खिलाएंगे और कैसे ही अपनी फसलों को बेचेंगे?”
परमिन्दर भी आगे कहती हैं, “कोई काम आसान नहीं होता, आपको खाने के लिए काम करना ही पड़ेगा। लेकिन यदि काम करने के बाद भी हमें खाना न मिले, तो यह सचमुच बहुत गलत है।”
वे इस बात से चिन्तित हैं कि इन कानूनों के लागू हो जाने का अर्थ होगा– बड़ी–बड़ी प्राइवेट कम्पनियों के लिए काम करना जो उन्हें उनकी हाड़तोड़ मेहनत का बहुत कम मूल्य देंगी। दोनों महिलाएँ तर्क देती हैं कि निश्चित तौर पर ये बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ किसानों से बहुत कम दाम पर उनकी फसलों को खरीदेंगी और लगभग चार गुना अधिक दाम पर उन्हें शहरों में बेच देंगी। 
60 साल की मलकीत कौर जो पिछले 30 सालों से खेती कर रही हैं तर्क देती हैं कि पंजाब में उनके गाँव मे बहुत सारी महिलाएँ खेती करती हैं और पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक मेहनत करती हैं। 
आन्दोलन के सन्दर्भ में भी देखें तो जो महिलाएँ घर–परिवार व खेतों की देख–रेख के लिए घरों में रुकी हुई हैं, वे भी आन्दोलन में उतना ही बहुमूल्य योगदान दे रही हैं जितना कि दिल्ली की सीमाओं पर बेहद ठण्डी व विषम परिस्थितियों में पुरुषों के समकक्ष खड़ी महिलाएँ दे रही हैं। 
मलकीत खास तौर पर आन्दोलन में भागीदारी देने के लिए सिंघू बॉर्डर आयी हैं क्योंकि वह इस बात से बेहद परेशान हैं कि एमएसपी की गारण्टी न होने से उनकी आमदनी पर असर पड़ेगा। 
“यदि वे हमारी फसलों के दाम कम करते हैं तो हम कहाँ जाएँगे?”
अपनी इन आशंकाओं के बावजूद भी मलकीत यह उम्मीद करती हैं कि कानून वापस ले लिए जाएँगे और अपने इस दृढ़ विश्वास पर उनको पूरा यकीन है, वह कहती हैं, “मुझे पूरी उम्मीद है कि भगवान हमारी सुनेगा, हम इसीलिए यहाँ आये हैं।” हालाँकि मलकीत अगले दिन यहाँ से जा रही हैं, वह कहती हैं कि अब उनके परिवार से कोई और उनकी जगह लेगा। प्रदर्शनकारियों के लिए यह रास्ता अभी बहुत लम्बा है। 
“यह जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं यदि हमारे बच्चे मुसीबत में हैं”
भारत मे अधिकतर वृद्ध महिला किसानों के लिए जमीनों के मालिकाना हक का मुद्दा वित्तीय मुद्दे से कहीं अलग है। उनके लिए जमीन पूजनीय होती है व इसका मालिकाना सदियों से चली आ रही उनकी परम्परा और संस्कृति में निहित एक वंशानुगत चलने वाला मामला है। 
बलजीत पूछती है, “हमारी आने वाली पीढ़ियाँ क्या कहेंगी कि हमने अपनी आवाज नहीं उठायी? यही कारण है कि हम सड़कों पर बैठे हैं ताकि अपने आने वाले बच्चों (पौत्रों) के लिए अपनी जमीनों को बचा सकें।”
ये आगे की सोच वाली मानसिकता टिकरी और सिंघू दोनों बॉर्डर पर बैठी वृद्ध महिलाओं के बीच एक आम सोच है। 
58 साल की जसपाल कौर टिकरी बॉर्डर पर दो अन्य महिला प्रदर्शनकारियों के साथ एक मैदान में बैठी हैं। वह कहती हैं, “भगत सिंह जैसे शहीदों की याद को जिन्दा रखने के लिए” उन्होंने और उनके एक साथी ने एक जैसा बसन्ती दुपट्टा (पीला स्कार्फ) ओढ़ रखा है। 
जसपाल अपने पति के साथ पंजाब से टिकरी तक आयीं क्योंकि उनका मानना है कि ये कानून आने वाली पीढ़ियों के लिए हानिकारक हैं, वह इन्हें अपने बाप–दादाओं की कड़ी मेहनत की कमाई छीनने का जरिया बताती हैं। वह कहती हैं, “यह जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं यदि हमारे बच्चे मुसीबत में हैं।”
उनके कहे शब्दों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है यदि हम इस बात पर नजर डालें कि खराब परिस्थितियों व खेती के कारण लिए गए कर्ज के चलते 2019 में 10000 से भी अधिक भारतीयों किसानों ने आत्महत्या करी। 
जसपाल बिना लड़खड़ाए बुलन्द आवाज में कहती हैं, “हम पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ते रहेंगे। हमें अपने सामने आयी हर मुसीबत को झेलना है।”
वे कहती हैं कि सभी किसान एकजुट हैं और जब एक दूसरे का साथ देने वाली संस्कृति बनती है तो सर्दी के इन महीनों में जान पड़ जाती है। 
सामूहिक रसोई और निस्वार्थ सेवा
विरोध–स्थलों पर एक सामुदायिक सक्रियता बनी हुई है क्योंकि वहाँ महिलाएँ और पुरुष क्रान्तिकारी गीत गाते हैं, नाचते हैं व नुक्कड़ नाटक करते हैं। 
33 साल की जस्सी सांघा, एक फिल्म निर्माता जो दिल्ली में चल रहे विरोध–प्रदर्शनों का लिखित दस्तावेज तैयार कर रही हैं खुद को “किसानों की स्वाभिमानी बेटी” बताती हैं। एक गीत में वह लिखती हैं कि महिलाएँ यह उद्घोष कर रही हैं: “ये महिलाएँ यहाँ राज्य से लड़ने आयी हैं, इसलिए तुम्हें इन महिलाओं की हिम्मतपरस्ती को सलाम करना होगा और इन्हें इनके अधिकार देने होंगे।”
सिक्खों की निस्वार्थ सेवा करने की प्रथा के आधार पर बहुत से विरोध–स्थलों पर लंगर (निशुल्क सामुदायिक रसोई) की व्यवस्था की गयी है। जस्सी बताती हैं, “हफ्तों से प्रदर्शनकारी इतना अधिक राशन ला रहे हैं कि वहाँ के स्थानीय लोग भी हमारे लंगर से ही खाना खाते हैं।”
पंजाब की एक अभिनेत्री व सामाजिक कार्यकर्ता सोनिया मान भी किसानों के साथ विरोध–प्रदर्शन में आयीं। वह कहती हैं, “मैं एक किसान की बेटी हूँ। मेरे पिता एक यूनियन लीडर थे और उन्होंने किसानों की खातिर अपनी जिन्दगी कुर्बान कर दी, यही कारण है कि मैं यहाँ हूँ।”
30 साल की सोनिया को साफ तौर पर पर यह स्पष्ट है कि ये कानून भूमिहीन महिला किसानों के साथ–साथ छोटे किसानों के लिए भी कितने अधिक हानिकारक साबित होंगे: “सभी बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ हमारी जमीनों को हथियाना चाहती हैं और वहाँ अपने–अपने कॉरपोरेट हाउसेज खोलना चाहती हैं। इस प्रकार, वे पंजाब को खत्म करना चाहती हैं।”
जब से पंजाब में आन्दोलन शुरू हुआ है, प्रदर्शनकारियों का यही सन्देश है कि यह इस प्रकार का मुद्दा नहीं जो केवल पंजाब तक सीमित हो बल्कि ऐसा है जो सभी किसानों को प्रभावित करता है और इसके नतीजें भी देशव्यापी होंगे। इन प्रदर्शनकारियों के लिए, यह एक ऐसी लड़ाई है जो धर्म और राज्य से बढ़कर है। 
सोनिया कहती हैं, “हरियाणा, राजस्थान व अन्य राज्यों के किसान इस आन्दोलन में शामिल हैं। वे साथ आते हैं और साथ ही फैसलें लेते हैं। वे सभी का सम्मान करते हैं। वहाँ हमेशा हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी रहते हैं और हर कोई यहाँ आता है।”
आँसू गैस के गोले व पानी की बौछारें
भारत में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बयान व भाषण, विरोध करने वाले किसानों को ‘देशद्रोही’ होने का तमगा दे रहे हैं और कुछ तो उनको आतंकवादी तक कहने में नहीं झिझक रहे। 
सोनिया कहती हैं, “वे हमारे आन्दोलन को केवल नुकसान पहुँचाना चाहते हैं।” वह यह पक्के तौर पर मानती हैं कि सरकार और मीडिया इस आन्दोलन के उद्देश्य को धार्मिक और राष्ट्र–विरोधी करार देकर इसका दुष्प्रचार करने का प्रयास कर रही है। 
वैसे तो प्रदर्शनकारी इस बात से बेहद क्रोधित और अपनी बात पर अड़िग हैं, पर साथ ही सतर्क और धैर्यशील भी हैं और इस बात के लिए तो वे खास तौर से चैकन्ने रहते हैं कि अपनी ओर से उन्हें किस व्यक्ति को बात रखने की अनुमति देनी चाहिए। वे कहते हैं कि खालिस्तान (एक सिक्ख अलगाववादी आन्दोलन) का जरा भी कोई जिक्र उनके उद्देश्य को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर देगा और मीडिया व सरकार को आन्दोलन का दुष्प्रचार करने का अवसर भी प्रदान करेगा।
निकिता जैन, एक पत्रकार जो जमीनी स्तर पर आन्दोलन से सम्बन्धित खबरों को कवर कर रही हैं, कहती हैं, “कुछेक लोगों के मत इस आन्दोलन को राष्ट्र–विरोधी नहीं बनाते और न ही किसानों को गलत साबित कर सकते हैं।” वह इन आरोपों की विडम्बना की ओर इशारा करती हुई कहती हैं, “जो अपने देश के हित के लिए सबसे अधिक कार्य करता है, आप उस अन्नदाता को देशद्रोही कैसे कह सकते हैं?”
जैन इस बात पर जोर देती हैं कि आन्दोलन कितना शान्तिपूर्ण है और यह कितनी अन्यायपूर्ण बात है कि किसानों द्वारा इतनी नरमी दिखायी जाने के बावजूद भी उनके साथ इतना बुरा बर्ताव किया जा रहा है। वह कहती हैं, “मन को उल्लास से भरता वहाँ का माहौल/संगीत बेहद खूबसूरत है।”
इन सब के बाद भी, शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर जिनमें बुजुर्ग प्रदर्शनकारी भी शामिल थे आँसू गैस के गोले व पानी की बौछारें छोड़ी गयीं। जस्सी कहती हैं, “भारत देश जो पूरी दुनिया मे सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है वहाँ इन शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों के दौरान जो कुछ भी हो रहा है वह पूर्ण रूप से मानव अधिकारों का उल्लंघन है।”
26 नवम्बर को निकिता जैन ने जो देखा वह बताती हैं, जब प्रदर्शनकारियों ने शान्तिपूर्वक दिल्ली में प्रवेश करने की कोशिश की तब पुलिस द्वारा उनके साथ अत्यन्त बर्बरतापूर्ण बर्ताव किया गया। वह ये तर्क देती हैं, “जनता को अपने हक के लिए विरोध करने का अधिकार है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार उनका दमन करने लगे।”
“हमारे घुटने उनकी गर्दनों पर टिके हुए हैं” (यानि उनको किसी भी हालत में इन कानूनों को वापस लेना ही होगा)
पुलिस के अनुसार, प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों की खराब परिस्थितियों के चलते दिल का दौरा, हाइपोथर्मिया व सड़क दुर्घटना के कारण कम से कम 25 मौतें हो चुकी हैं।
अधिकतर लोग जमीनों पर या फिर ट्रकों के पीछे वाले हिस्से में सोते हैं और शौचालयों के इस्तेमाल के लिए वहाँ के स्थानीय लोगों की मदद पर निर्भर हैं या फिर खुले में ही जाने को मजबूर है जहाँ किसी तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। लेकिन इन सबके बाद भी महिला किसान अपने संकल्प से विचलित नहीं हुई हैं अथवा डरी नहीं हैं। 
कानूनों की वापसी पर कोई आपसी समझौता न होने के बाद किसानों के यूनियन लीडर व सरकारी अधिकारियों के बीच होने वाली छठे दौर की वार्ता  को पिछले हफ्ते रद्द कर दिया गया। वे कहते हैं कि इसके बावजूद भी किसानों की माँगें लगातार दिल्ली की सीमाओं पर कोहराम मचाए हुए हैं और उनके इरादे मजबूत हैं। 
बलजीत और जसपाल की अलजजीरा से हुई बातचीत के एक दिन पहले वहाँ बारिश हुई थी, लेकिन किसी भी महिला ने ठण्ड या असुविधा होने की शिकायत नहीं की।
सरकार व किसानों की बातचीत के बीच चल रहे अवरोधों के बावजूद भी महिला किसानों ने वहीं डेरा डाल लिया है और जब तक उनकी माँगें पूरी नहीं होती तब तक वहीं इंतजार करने के लिए खुद को तैयार कर लिया है। 

परमिन्दर और कुलविन्दर दोनों ही बहुत बहादुर महिलाएँ हैं। परमिन्दर जिनकी आवाज दृढ़ व चेहरा निर्भीक है कहती हैं, “जब से यह आन्दोलन शुरू हुआ है हम तभी से यहाँ है और यहीं रहेंगे। हमें यहाँ कोई समस्या नहीं है, हमें अपने घरों की याद भी नहीं आ रही है।”
जैसा कि कुलविन्दर बताती हैं कि महिलाओं को अपने–अपने घरों से प्रोत्साहन मिल रहा है। वे हमें फोन करते हैं और कहते हैं, “डटे रहो, हार मत मानना।”
जब उनसे यह पूछा गया कि उनकी की जा रही कोशिशें सफल होंगी भी या नहीं, तो परमिन्दर और कुलविन्दर दोनों ही इस से सहमत थी और चुनौती भरे शब्दों में उन्होंने कहा, “वे इन कानूनों को वापस क्यों नहीं लेंगे जब हमारे घुटने उनकी गर्दनों पर टिके हुए हैं यानि उनको किसी भी हालत में इन कानूनों को वापस लेना ही होगा।”
जस्सी बोलती हैं कि किस प्रकार भारत में भूमि ही किसानों की माँ है, और यहाँ की माताएँ, बहनें और बेटियाँ इस आन्दोलन का एक मजबूत आधार बनी हुई हैं। 
किसानों का यह आन्दोलन अभी जारी रहने वाला है। जैसा कि बलजीत कहती हैं, “हमनें अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज उठायी है और अपने अधिकारों को पाकर ही रहेंगे।”
सन्नी शेरगिल
(साभार अलजजीरा, अनुवाद– रुचि मित्तल)

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