इस समय दिल्ली भारतीय किसानों की लम्बे समय से चली आ रही उथल–पुथल और दबी हुई तड़प की अभूतपूर्व हलचल का गवाह बन रही है। एनडीए सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अगस्त 2020 में शुरू हुआ विरोध, इस 25 नवम्बर के बाद से अपनी ताकत और बहादुरी का भरपूर प्रदर्शन करने के लिए तत्पर पंजाब और हरियाणा के किसानों ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। 2–3 लाख किसानों की मौजूदगी के कारण ही यह आन्दोलन अनोखा नहीं है, जिसमें कड़कती ठंड में किसान बैठे हैं, बल्कि इस आन्दोलन ने पीढ़ियों से चले आ रहे धर्म, जाति, पेशे और लैंगिक भेदभाव को भी किसी हद तक मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जैसा कि अक्सर इस किस्म के मामलों में होता है, यह विरोध भी पहले पहल पुरुष किसानों ने अपनी जमीन और पैदावार को कॉरपोरेट के हाथों में जाने से बचाने के लिए शुरू किया, जैसे–जैसे सप्ताह और महीने बीतते गए, घर पर बैठी महिलाओं ने महसूस किया कि विरोध स्थलों पर जाकर, हजारों की संख्या में उपस्थिति दिखा कर आन्दोलन की एकजुटता को बढ़ाने का समय आ गया है। उनकी यह उपस्थिति कई कारणों से उल्लेखनीय है।
पहला तो यह कि यह मुख्यधारा के उस मिथक को चूर–चूर करता है कि भारतीय ग्रामीण स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को स्वीकारने में असमर्थ हैं, और उनका अस्तित्व उनके आसपास के पुरुषों के आदेश से जुड़ा हुआ है। कई महिलाएँ या तो व्यक्तिगत किसानों के रूप में या विशेष किसान संघ के सदस्य के रूप में दिल्ली के सिंघु बॉर्डर या टिकरी बॉर्डर पर जा पहुँची हैं, वे अपनी सामूहिक और सामाजिक राजनीतिक चेतना का जबरदस्त प्रदर्शन कर रही हैं। उन्हें यकीन है कि एक सिंगल फोन कॉल मात्र पर ही उनकी घरों में ही रुकी हुई बहनें उन सबके लिए पर्याप्त भोजन और कपड़े मुहैय्या कर देंगी।
दूसरे, यह उस पूर्वाग्रह से ग्रसित धारणा को खारिज करता है कि महिलाएँ चाहे वह किसान हों या गृहिणी इन नये तथाकथित कृषि सुधारों की पेचीदगियों या प्रभावों से अनजान हैं, क्योंकि वे अनपढ़ हो सकती हैं या सरकार के इरादों से अनभिज्ञ हो सकती हैं। विरोध स्थल पर महिलाओं के साथ एक सार्थक बातचीत से आसानी से पता चलता है कि वे जानती हैं कि वे क्या और क्यों लड़ रहे हैं, जैसे अरुणा जो हरियाणा के सोनीपत की एक छात्रा है और हरमीत कौर जो एक गृहिणी हैं, नये आवश्यक वस्तु अधिनियम से पूरी तरह वाकिफ हैं, साथ ही किसानों द्वारा एमएसपी हटाने के लिए या अनुबन्ध खेती की ओर ले जाने वाले प्रावधानों से भी। वे जानती हैं कि ये कानून उनकी कृषि भूमि को हमेशा के लिए हथियाने के लिए बनाए गए हैं, जो उनकी भावी पीढ़ियों को उनके अधिकारों से वंचित कर देंगे, और उन्हें अडानी और अंबानी का मोहताज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
आन्दोलन में औरतों की विशेष भूमिका को अति उल्लेखनीय बनाने वाला तीसरा कारण यह है कि वह लिंग आधारित मापदण्डों और पितृसत्ता की उस कांच की छत को तोड़ता है जो उनके सम्पूर्ण जीवन को निर्धारित करता है। पारम्परिक धारणा के अनुसार उनका नियत स्थान घर की चहारदीवारी के भीतर है जहाँ सिर्फ चूल्हा–चैका करना ही उनका काम है, ये धारणा तब तोड़ी जाती हैं जब ये औरतें हाथों में विरोध के झण्डे लिए हुए – एकता और धैर्य के गीत गाते हुए आगे बढ़ती हैं। वे शाहीन बाग की उन बहादुर महिलाओं से प्रेरणा लेती हैं, जिन्होंने दिल्ली की पिछली सर्दियों के दौरान भारत सरकार के नागरिकता संशोधन अधिनियम के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर (नागरिक रजिस्टर सीएए, एनआरसी) के खिलाफ विरोध का चेहरा बन गर्इं थीं। वहाँ बयासी साल की बिलकिस दादी एक चेहरा थीं, यहाँ भी मोहिन्दर कौर और जांगिड़ कौर जैसी नानियाँ हैं, जो नारीवाद के नये पैमाने स्थापित कर रही हैं।
आखिर में, अपने हमराह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये महिलाएँ जो रास्ते तय कर रही हैं वह संवाद और लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगा। भारत के सिकुड़ते और सड़ते हुए राजनीतिक परिदृश्य में ये महिलाएँ ताजा हवा की बयार लेकर आयी हैं, इस सच की अनदेखी करना सम्भव नहीं। उन्होंने अपने प्रतिरोध में निहायत जरूरी चीजों जैसे सहानुभूति, इनसानियत तथा विश्वास का सम्मिश्रण किया है!
तभी तो आँखों में अद्भुत चमक लिए हुए तेज तर्रार नानियाँ बताती हैं कि या तो वो सरकार को बिल वापिस लेने के लिए बाध्य कर, विजय प्राप्त करेंगी या फिर अपनी आखिरी सांस तक लड़ेंगी।
यह जानना सुखद है कि ये महिलाएँ किसी भी किस्म के दुर्भावना पूर्ण प्रचार को खत्म करने में सक्षम हैं तथा आन्दोलन को गति देने और बनाए रखने के लिए ये राजनीतिक अभिनेता के रूप में खुद को शुमार करती हैं।
–लक्ष्मी सुजाता
(काउण्टर करण्ट से साभार, अनुवाद– ऊषा नौडियाल)
विचारोत्तेजक लेख
ReplyDelete