हमारा देश एक अभूतपूर्व बदलाव के दौर से गुजर रहा है। पूरे देश में उथल–पुथल मची हुई है। पिछला साल कोविड और कष्टपूर्ण लॉकडाउन में बीता जिससे कोई भी समुदाय अछूता नहीं रहा। लॉकडाउन के साथ ही शुरू हुए मजदूरों के महापलायन की पीड़ादायी छवियाँ अभी हम भूले नहीं हैं। लॉकडाउन के चलते मजदूरों ने अपने काम की जगह से अपने घरों तक हजारों मील का सफर पैदल ही पूरा किया। उस यात्रा में सभी को कष्ट हुआ पर सबसे ज्यादा कष्ट सहा अपनी उजड़ी गृहस्थी को सर पर ढोती, बच्चों को गोद में सम्भालती महिलाओं ने। गर्भवती महिलाओं ने भी सैकड़ों मील की यात्रा पैदल पूरी की। कई महिलाओं ने रास्ते में ही शिशु को जन्म दिया और फिर दूसरे दिन अज्ञात भविष्य की ओर चल पड़ीं।
लॉकडाउन के कारण पूरी दुनिया घरों में कैद हो गयी। यह कैद औरतों पर बहुत भारी पड़ी। इस बीच भारत ही नहीं सारी दुनिया में औरतों पर घरेलू हिंसा और अत्याचार में भयानक वृद्धि हुई। पहले से ही कैद औरत और अधिक गुलामी में बँध गयी। उसका बचा–खुचा निजी ‘स्पेस’ भी जाता रहा। दूसरी ओर ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण औरतों पर काम का बोझ दोगुना हो गया। लॉकडाउन के कारण जिन हजारों महिलाओं को अपने काम से हाथ धोना पड़ा उनके कष्टों का तो कोई हिसाब ही नहीं है।
बीते वर्ष बलात्कारियों को राजनीतिक संरक्षण देने की संस्कृति और स्पष्ट और निर्लज्ज रूप से स्थापित हो गयी। उन्नाव से लेकर हाथरस की घटनाओं में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है।
इस बीच अलग–अलग स्तरों और रूपों में लड़कियों और औरतों पर पितृसत्तात्मक शोषण और अत्याचार बदस्तूर जारी रहा, लेकिन तमाम अवसरों पर वह प्रतिकार करती भी दिखीं, कहीं अकेले–अकेले तो कहीं संगठित होकर। लेकिन हाल–फिलहाल जिन महिलाओं ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा है, वे हैं किसान औरतें जो किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर किसान आन्दोलन के हर मोर्चे पर अपनी मौजूदगी से न सिर्फ आन्दोलन को ताकत दे रही हैं, बल्कि अपने किसान होने के उस दावे को भी प्रस्तुत कर रही हैं जो उन्हें समाज ने नहीं दिया। जिस तरह से महिलाएँ खेती की रीढ़ हैं उसी तरह से वे किसान आन्दोलन की भी रीढ़ हैं। उनकी भारी मौजूदगी ने आन्दोलन को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश के घर–घर में पहुँचा दिया है। और अब इसका दायरा राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र तक तक बढ़ गया है और बढ़ता ही जा रहा है।
किसान आन्दोलन में महिला किसानों की भागीदारी से आन्दोलन का स्वरूप ही बदल गया है। वह अधिक मानवीय, रचनात्मक, अनुशासित और गम्भीर हो गया है। उनकी अभूतपूर्व भागीदारी ने इस आन्दोलन को पहले के आन्दोलन से बिलकुल भिन्न रूप दिया है, उसकी जड़ें मजबूत की है और उसे लम्बे समय तक चलाने की ताकत दी है। इसमें शामिल लड़कियों और महिलाओं ने महीनों तक चले धरनों को संयोजित और अनुशासित बना दिया है। इस आन्दोलन में शामिल सभी को एक परिवार बना दिया है। उनकी सक्रिय मौजूदगी से उसमें शामिल नौजवान भी गम्भीर, अनुशासित और अधिक मानवीय हो गये हैं, यहाँ तक कि लोगों की भाषा बदल गयी है। इसने आन्दोलन की एक नयी संस्कृति, ‘सबको, बच्चे, बूढ़े, किशोर, नौजवान, सबको साथ लेकर’ चलने की संस्कृति को जन्म दिया है। यह सारे प्रभाव इतने ताकतवर हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया तक का ध्यान उन पर गया है।
दिल्ली के सिंघू, टीकरी बॉर्डर पर जो महिलाएँ महीनों से बैठी हैं वास्तव में वे सितम्बर 2020 से तीन कृषि कानून के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रही हैं। वे किसान मोर्चा के झंडे तले संगठित थीं और इससे पहले भी रेल रोको कार्यक्रम और धरने के माध्यम से अपना विरोध जता रही थीं। पंजाब से जो महिलाएँ अपना घर–परिवार लेकर दिल्ली धरने पर आ पहुँची हैं उन्होंने बीते वर्ष बर्बाद होती खेती के कारण बहुत कुछ खोया है। अपने परिवार को कर्ज के जाल में फँसते देखा है और बहुतों ने अपने की आत्महत्या की पीड़ा भी सही है। इसीलिए वे सिर्फ किसी के बुलाने पर नहीं आयी हैं बल्कि खुद सोच–समझकर, होशो–हवास में अपना विरोध दर्ज करने और अपना हिसाब माँगने आई हैं। वे जानती हैं कि फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने, खेती को ठेके पर देने और दाल, चावल,आलू जैसी अनिवार्य कृषि उपज को ‘अनिवार्य वास्तु कानून, की सुरक्षा से बाहर कर देने जैसी खतरनाक बातों वाला कृषि कानून यदि लागू हो गया तो वे भी बर्बाद होंगी, उनका परिवार बर्बाद होगा। वे समझ रही हैं कि पिछले 20–25 सालों में खेती का बाजारीकरण हुआ है, बीज, बिजली, डीजल, खाद पहुँच के बाहर हो गए हैं, फसलों का सही दाम तो शायद ही मिला हो। इसीलिए धरना स्थल पर जाने वाले पत्रकारों के सवालों का वे पूरे आत्मविश्वास और तथ्यों के साथ जवाब दे रही हैं। वास्तव में उनकी लड़ाई एक ऐतिहासिक सामाजिक और आर्थिक लड़ाई है जो सभी औरतों को साहस के साथ जीने और अपने हकों के लिए दावा करने का रास्ता दिखा रही है।
इतिहास बताता है कि कोई भी संघर्ष खाली नही जाता। संघर्ष हार कर भी हारता नहीं, वह हमेशा एक और नये संघर्ष की जमीन तैयार कर देता है। इन किसान औरतों का किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना महिला आन्दोलन के लिए एक निर्णायक मोड़ है। इससे उनमें शामिल महिलाएँ ही मजबूत नहीं हुई हैं बल्कि दूर खड़ी औरतों और लड़कियों को भी इससे ताकत मिली है, लड़ने का तरीका मिला है, बदलाव और भावी जीत में विश्वास पैदा हुआ है।
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