दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ दो परस्पर विरोधी घटनाएँ एक ही काल–समय में घटित होती हों। जिस समय चंद्रयान–3 की टीम, जिसमें भारी संख्या में महिला वैज्ञानिक और तकनीशियन भूमिका निभा रही हैं, हमारा गौरव बढ़ा रही थीं, ठीक उसी समय देश के तमाम अँधेरे कोनों में कोई बच्ची, कोई महिला अपने ऊपर हुए दुराचार पर सिसकियाँ ले रही थी या प्रतिशोध की आग में जल रही थी। ये सिसकियाँ कहीं से भी आ सकती हैं–––मणिपुर के दंगा पीड़ित शिवरों से, पहलवानी के अखाड़ों से, आनन–फानन में जला दी गयी उन्नाव या हाथरस की महिलाओं की चिताओं से, ईंट–भट्ठों के एकांत कोनों से, खेत–खलिहानों, फैक्ट्रियों, घरों, स्कूलों या कॉलेजों या फिर भीड़–भरे चैराहों से––– पिछले कुछ महीनों में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की जो वहशियाना घटनाएँ घट रही हैं उनका अगर हम विश्लेषण करें तो समग्रता में हम पायेंगे कि हमारी राजनीति और व्यवस्था पूरी तरह महिला विरोधी है और उसकी छाप जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है। कुछ घटनाओं में यह महिला विरोधी रवैया अधिक तीक्ष्णता से दिखायी देती है––
मणिपुर–– अंग्रेजों ने जिस तरह ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपना
कर हम पर दो सौ सालों तक राज किया और हमारे अकूत संसाधन लूट कर इंग्लैण्ड ले गये,
ठीक
उसी तरह की साजिश मणिपुर में भी रची गयी, जहाँ कूकी और मैतेई समुदाय के बीच
दुश्मनी की दीवार खड़ी की गयी और इस दुश्मनी की शिकार हुर्इं वहाँ की महिलाएँ।
समस्त घटनाक्रम और उनके कारणों को यहाँ दोहराने की जरूरत नहीं। लेकिन वहाँ के समाज,
केन्द्र
तथा राज्य सरकार की महिलाओं के प्रति नीति साबित कर देती है कि उनके लिए महिलाओं
का मोल कौड़ी भर भी नहीं है। राजनीति और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, उसे
पोषित करने के लिए वे महिलाओं का किसी भी हद तक इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए
बलात्कारियों को संरक्षण देना, बलात्कार या महिलाओं को नंगा घुमाए
जाने से आँख मूँद लेना, इनके खिलाफ कार्रवाई करने के समय ‘नीरो की तरह बांसुरी’ बजाते हुए
मुँह फेर लेना या फिर इनके खिलाफ बयान देते समय मुँह में दही जमा लेना। कुल मिलाकर
महिलाओं के विरुद्ध अपराध के प्रति सरकार की ‘आपराधिक चुप्पी’ से उस पितृसत्तात्मक
सोच को मजबूती मिलती है जिसके अनुसार महिलाएँ पुरुषों की निजी सम्पत्ति होती हैं
और अपने दुश्मन से बदला लेने के लिए उसके साथ कुछ भी किया जा सकता है, चाहे
वह बलात्कार ही क्यों न हो। मणिपुर की घटना में ऐसी कारगुजारियों को सरकार और
व्यवस्था की ओर से खुलेआम संरक्षण मिला।
महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न के आरोपी मंत्री ब्रजभूषण को संरक्षण
देने की महिला विरोधी नीति–– हरियाणा की विनेश फोगाट, साक्षी मालिक
जैसी ओलंपियन और अन्तरराष्ट्रीय महिला पहलवानों को जिस तरह सड़कों पर आकर अपने ऊपर
और अन्य महिला पहलवानों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के खिलाफ बोलना पड़ा वह
अभूतपूर्व था। उससे भी खतरनाक था भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और सत्ताधारी
ब्रजभूषण का उन लड़कियों को धमकी देना, चरित्र हनन करना और व्यवस्था का उसे
बचाने के लिए एड़ी–चोटी कर जोर लगा देना। कोई और देश होता तो उलटे–सीधे महिला
विरोधी बयान देने या हरकतें करने पर राजनेताओं, बाबाओं, साधुओं,
अभिनेताओं
को जेल का रास्ता दिखाता। (यहाँ यह बताना जरूरी है कि पिछले दिनों हुए विश्व महिला
फुटबाल का फाइनल जीत कर विश्व चैम्पियन बनने पर स्पेन की कप्तान जेनिफर हर्माेसा
को स्पेनिश फुटबाल फेडेरेशन के चीफ लुई रुबिआलेस ने जब बिना उनकी सहमति के चूम
लिया तो सरकार ने उन्हें 10 दिनों के भीतर पद से हटा दिया।) हाथरस,
उन्नाव,
और
अन्य तमाम घटनाओं में सीमाएँ›लांघ कर अपराधी को जिस तरह बचाया गया, वह
अपने आप ही ‘बेटी बचाओ’ का खोखलापन उजागर करता है। अपरा/िायों को बचाने में लगी
सरकार, उनके प्रवक्ता, सरकारी तन्त्र, मीडिया, पुलिस–प्रशासन,
सब
जता देते हैं कि ‘लड़कियों, हमसे सुरक्षा और मदद की उम्मीद न
करना!’ वास्तव में इस व्यवस्था के मूल में ही नारी–विरोध है। हम इनसे बेहतर की
उम्मीद नहीं कर सकते।
नये श्रम कानून और महिलाएँ–– नये श्रम कानून के प्रभाव दिखने लगे हैं।
पारम्परिक कल–कारखानों से लेकर गाजियाबाद, फरीदाबाद, मानेसर, गुड़गाँव
की तर्ज पर देश भर में उभरते आधुनिक छोटे व बड़े औद्योगिक इलाके, कॉल
सेंटर, मर्चेनटाईल और बिजनेस सेंटर, निजी स्कूल–कॉलेज, सब
जगह मालिक नये श्रम कानूनों को तत्काल लागू करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि कम से
कम वेतन (यहाँ न्यूनतम वेतन जैसी कोई बात नहीं रह गयी है) में न्यूनतम 12
घण्टे काम करवाया जा सके और अकूत मुनाफा कमा कर अपनी और अपने संरक्षक, राजनीतिक
दलों की तिजोरी भरी जा सके। श्रमिक सुरक्षा और श्रमिक कल्याण के कानून इतिहास बन
चुके हैं। कहीं–कहीं के हालात देख कर ऐसा लगता है कि हम टाईम मशीन द्वारा औद्योगिक
क्रान्ति के शुरुआती युग में पहुँच गयें हैं, तो कभी ये
श्रमिक रोमन गुलाम लगते हैं जिन्हें उनके मालिक केवल इतना खिला–पिला देते थे कि वे
अगले दिन काम करने लायक बने रहें। नये श्रम कानूनों के आधार पर चलने वाली इन
संस्थाओं में लाखों महिला श्रमिक काम करती हैं। जाहिर है कि वे खुशहाल, सुसंस्कृत
और आजाद जिन्दगी के बारे में तो सोच भी नहीं सकतीं। ये नये श्रम कानून आँखों पर
पड़ी धूल साफ कर स्पष्ट कर देते हैं कि मौजूदा व्यवस्था महिलाओं की आर्थिक–सामाजिक
आजादी के सारे रास्ते बन्द करने में ही यकीन करती है, न कि उसे खोलने
में। प्रसिद्ध कहानीकार यशपाल की ‘पर्दा’ कहानी की तरह दुनिया को दिखाने के लिए यह
व्यवस्था कुछ स्थापित महिलाओं को महिला स्वतन्त्रता की ‘पोस्टर गर्ल’ की तरह
इस्तेमाल करती है, बाकी लड़कियाँ और महिलाएँ ‘पर्दे’ के पीछे रसातल की जिन्दगी जीने को
अभिशप्त हैं।
समान नागरिक संहिता–– पिछले दिनों जोरशोर से देश में विभिन्न
समुदायों के अपने भिन्न–भिन्न रस्म–रिवाज को खत्म कर सभी के लिए समान नागरिक
संहिता (यूसीसी) लागू करने का शगूफा छोड़ा गया। यह कहा गया कि मुस्लिम महिलाएँ ‘तीन
तलाक’ से पीड़ित हैं। (विस्तार से चर्चा एक लेख में है) समान नागरिक संहिता इस पीड़ा
से उन्हें मुक्त करेगा। क्या यह संहिता मनुस्मृति में उल्लेखित महिला विरोधी
मान्यताओं को भी समाप्त करेगी ? जो सरकार हर छोटे–बड़े मौके आने पर खुद
को महिला समर्थक नहीं साबित कर पा रही है, उससे यकायक महिला समर्थक बन जाने की
उम्मीद भला हम कैसे करें?
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के साथ उत्पीड़न पहले नहीं होता था। लेकिन इन
अपराधों और अपराधियों को जिस तरह सरकारी संरक्षण मिल रहा है वैसा पहले बिरले ही
हुआ। हर बार अपराधी को बचाने की जो बेशर्म कवायद हो रही है वह इतिहास में पहले
नहीं देखी गयी। ऐसी तमाम घटनाएँ हैं जो बार–बार साबित कर रही हैं कि सरकार,
राजनीति,
उद्योग,
व्यापार,
प्रशासन–तन्त्र
सब मिलाकर जो यह व्यवस्था बनी है वह किसी भी तरह महिला समर्थक नहीं है। इसे बदला
ही जाना चाहिए।
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