घर से जब निकली तो देखा कि भट्टे पर काम करने वाली एक महिला सामने खड़ी है। गोद में एक बच्चा किलक रहा है। लॉकडाउन के दौरान वह हमारे मुहल्ले में काफी दूर से पैदल चलकर राशन माँगने आयी। उससे बातचीत करके पता चला कि उसका नाम झुनिया है और वह पेट से है। यह देखकर बड़ा दुख हुआ कि जिस औरत को आराम की जरूरत है, उसे राशन के लिए दर–दर भटकना पड़ रहा है। कैसी विपदा की घड़ी है? जब वह एक नयी जिन्दगी के सृजन का काम कर रही है, तो उसे माँगने की जरूरत क्यों आन पड़ी? उसने कहा कि आज तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया बहन। खुद मेहनत से कमाकर घर चलाती हूँ। लोगों से माँगते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है। लेकिन क्या करूँ? पहले अन्दर से अच्छा नहीं लग रहा था और हिम्मत भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब लगा कि अब गुजारा नहीं हो सकेगा तो मैं घर से निकल आयी।
उसने कुछ याद करते हुए फिर कहना शुरू किया कि जानती हैं दीदी, सबसे पहले इस कालोनी में मैं क्यों आयी हूँ क्योंकि यह कालोनी मुझे अपनी सी लगती है। यहाँ मैंने कई सालों तक मजदूरी की है। पचासों घरों को बनाने में र्इंट–गारा पकड़ाया। जिस घर में आप रह रही हैं। इसमें भी मैं मजदूरी कर चुकी हूँ। यहाँ पर ही मेरे दोनों बड़े बच्चे धूल में खेलते थे और मैं काम करती थी। जब छोटे बच्चे को भूख लगती तो अपना दूध पिलाती और जब रोने लगता तो पीठ पर बाँधकर काम करने लगती। दीदी, मेरी एक बेटी भी है। बड़े वाले बेटे से दो साल बड़ी। उस समय जब मैं काम करती, वह अपने छोटे भाई की रखवाली करती और उसे खिलाती। उसका बचपन अपने भाई को खिलाने में ही गुजर गया। खुद खेलने की उम्र में अपने भाई को खिलाती रही। वह स्कूल का मुँह तक नहीं देख पायी। अगर वह स्कूल जाती और छोटे को नहीं सम्हालती तो मैं काम कैसे कर पाती?
उसे टोककर मैंने पूछा, चलो ठीक है, लेकिन बुरे वक्त के लिए पैसे भी तो बचाये होंगे, उसे खर्च क्यों नहीं करती?
उसने जबाब दिया कि दीदी, हम जगह–जगह जाकर बिल्डिंग बनाते हैं। हमें इसी शहर में काम करते हुए दस साल हो गये। हमने कई मकान बनाये, लेकिन अपना एक कमरा तक नहीं बना पाये। हम एक हसरत मन में लेकर आये थे कि खूब मेहनत से काम करके अपना एक कमरा बना लें। सिर छिपाने के लिए एक छत हो। लेकिन दीदी आपसे क्या छुपाना। हम सच कह रहे हैं कि इन दस सालों में दस हजार भी नहीं बचा पाये। परिवार में कोई न कोई बीमार हो ही जाता है। घर पर बूढ़े सास–ससुर को कुछ न कुछ रुपये भेजने पड़ते हैं। उनकी दवा और खाने का खर्चा ज्यादा तो हम नहीं कर पाते, बस जिन्दा रह सके इतना हो पाता है। उन्होंने भी अपनी पूरी जिन्दगी मजदूरी करते निकाल दी और अपने लिए एक कमरा भी नहीं बना पाये। कुछ बचा नहीं पाये। यही हमारी जिन्दगी है। दीदी, आपसे क्या छुपाना।
उसने आगे कहा कि दीदी लॉकडाउन के कारण काम भी बन्द है। थोड़े पैसे थे, वे भी खर्च हो गये। जब बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो माँगने चली आयी।
इसके बाद मैंने उसकी कुछ मदद की। लेकिन मेरे मन में यह सवाल बार–बार आता रहा कि उस औरत ने मेरठ के कई नामी स्कूल–कालेजों कालोनियों की बिल्डिंग बनाने में काम किया। बच्चों को कमर पर बाँधकर या उन्हें धूल–धूप में छोड़कर अपनी जवानी के अनमोल क्षण खपा दिये। दूर–दूर से बच्चे आकर इन कालेजों में पढ़ते हैं। इन्जीनियर, डॉक्टर, नर्स, वकील आदि का सपना बुनते हैं, लेकिन यह औरत और इसके बच्चे मजदूर ही रहेंगे। बच्चे अनपढ़ ही रह जायेंगे। बड़ी–बड़ी इमारतों में रहने वाले लोग इन मजदूरों को असभ्य कहते हैं क्योंकि ये झुग्गियों में रहते हैं। क्या कभी वह दिन आयेगा जब इनके बच्चे भी पढ़ पायेंगे? इन्हें इनका हक कब मिलेगा?
-सुनीता शर्मा
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