हमारे समाज में बहुत से लोग अकसर कहते हैं कि, ‘राजनीति एक खराब चीज है और हम राजनीति से दूर रहते हैं’, लेकिन यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण सोच है। राजनीति किसी भी समाज का एक अविभाज्य अंग होता है। हम राजनीति करें या न करें, इसका हमारे जीवन और हमारे भविष्य पर पूरा असर पड़ता है। हमारे समाज में एक कहावत है, “माँ भी बच्चे को तभी दूध पिलाती है, जब बच्चा रोता है”। इसी कहावत की तर्ज पर हम कह सकते हैं कि महिलाएँ जब तक अपने लिए खुद अपनी आवाज मुखर नहीं करेंगी, तब तक उन्हें भी इस समाज में अपने लिए कुछ नहीं मिलेगा। हमारे देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका किस तरीके से काम करती हैं और किसके पक्ष में काम करती हंै, यह सब राजनीति से तय होता है, जाहिर है कि जो भी राजनीति करेगा, नीतियाँ भी उसी के पक्ष में बनेंगी। वे लोग अपने ही पक्ष में सुविधाएँ निर्मित करेंगे। इसलिए महिलाओं को भी अपनी समस्याओं की गहराई को समझते हुए राजनीति में बढ़–चढ़कर हिस्सेदारी करनी चाहिए, हालाँकि उसके लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा तभी हम लोग अपना हक–हकूक पा सकते हैं।
हम लोग अकसर देखते हैं कि हर इनसान के पास चाहे वह किसी भी उम्र, लिंग, क्षेत्र, भाषा का हो, एक दूसरे से गप्पे मारने के लिए रुचि के अनुसार ढेर सारे किस्से–कहानियाँ और राजनीतिक–सामाजिक मुद्दे होते हैं। सभी लोग गपशप करते हुए अपने बाकी के काम भी निपटा रहे होते हैं। जिन्हें फिल्में देखना, गाने सुनना, कविता लिखना, कहानी पढ़ना, लिखना, जिम जाना, पूजा पाठ इत्यादि जो भी पसन्द होता है, वे उसी तरीके की बातें करते हैं। अक्सर देखने को मिलता है कि महिलाओं के बातचीत के मुद्दे, पुरुषों की बातचीत के मुद्दों से कुछ अलग होते हैं। जिसकी जिन्दगी जीने का जितना बड़ा दायरा होता है उसकी बातों में भी वह झलक रहा होता है। आम घरों में देखने को मिलता है कि घर के पुरुष सुबह उठकर चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ते हैं फिर अपनी पसन्द की खबर के बारे में घर से लेकर दफ्तर तक राजनीतिक मुद्दों पर बातें करते हुए मिल जाते हैं। यहाँ तक कि वे रास्ते में भी अनजान लोगों से किसी ना किसी तरह की राजनीतिक बातें और बहसबाजी करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं।
पुरुष किसी भी वर्ग, जाति या धर्म के हों, उनका कथन सही हो या गलत फिर भी वह राजनीतिक बातचीत में भागीदारी लेते हैं और किसी न किसी विचारधारा पर अपनी राय देने से पीछे नहीं हटते हैं। पुरुषों की बातचीत के मुद्दे में अधिकतर देश दुनिया, शेयर बाजार, चुनावी हार–जीत, अर्थव्यवस्था की सरगर्मी, क्रिकेट–फुटबॉल के टूर्नामेंट, महिलाओं पर लैंगिक भेदभाव पूर्ण टिप्पणियाँ, सिनेमा, अश्लील किस्से, धार्मिक चर्चाएँ और जमीन–जायदाद खरीदने–बेचने के विषय ज्यादा होते हंै। कुल मिलाकर देखा जाये तो पुरुषों की बातचीत के मुद्दे अमूमन घर और बच्चों के कामों से बाहर के होते हैं और उनकी बातचीत के मुद्दों में देश–दुनिया के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दे शामिल होते हैं।
दूसरी तरफ, अगर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों पर नजर डाली जाये तो हमें देखने को मिलेगा कि जिस महिला की जिन्दगी जीने का दायरा जितना छोटा होता है, उसकी बातचीत का भी दायरा बहुत ही सीमित होता है। आमतौर पर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों में साफ–सफाई, फैशन, कपड़े, मेकअप, खरीदारी, बच्चों से सम्बन्धित बातचीत, आस–पड़ोस के लोगों के बारे में चर्चा, टेलीविजन या सीरियल के किस्से, घरेलू झगड़े या तारीफ, व्रत–त्यौहार की तैयारी ही होते हैं जबकि राजनीतिक और खेल सम्बन्धी बातें बहुत ही कम होती हैं। यहाँ तक कि महिलाएँ उसी राजनीतिक पार्टी या विचारधारा का समर्थन कर रही होती हंै, जिसका समर्थन उस घर के पुरुष कर रहे होते हैं। हमारे समाज में छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इतनी अधिक संख्या में हो रहे हैं कि महिलाएँ ऐसे किस्सों को भी अपनी बातचीत में शामिल रखती हैं और उनसे बहुत ज्यादा असुरक्षित भी महसूस करती हैं, लेकिन फिर भी वे इन अपराधों की जड़ तक नहीं सोच पाती हैं। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अधिकांश महिलाओं की जिन्दगी में देश–दुनिया से जुड़े बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दे शामिल ही नहीं होते हैं।
हालाँकि आज महिलाएँ सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन अगर आँकड़ों पर नजर डाली जाये तो आज भी बहुत ही कम महिलाएँ हैं जो राजनीति में, खेल में या सरकारी या निजी क्षेत्र के किसी बड़े पदों में हिस्सेदारी कर रही हैं। यही कारण है कि महिलाएँ आज भी बहुत से क्षेत्रों में पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं और उन्हें अपनी बराबरी के लिए दिन–रात और हर कदम पर अपनी आजादी और सुरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
महिलाओं की राजनीतिक मुद्दों में कम रुचि रखने के मुख्य कारण हैं–– कम शिक्षित होना, घरेलू काम में उलझे रहना, घरेलू मानसिकता का बन जाना, परम्परावादी जीवन शैली अपनाना, मीडिया द्वारा महिलाओं को माल के रूप में पेश करना, सुन्दरता, शालीनता, आज्ञाकारी, ममता आदि गुणों को महिमामण्डित करना। जो महिलाएँ मुखर होकर अपनी समस्याओं को समाज के आगे रखती हैं और जो अपनी जिन्दगी अपनी मनमर्जी से जीती हैं, उन महिलाओं को विभिन्न तरीके से नीचा दिखाना और उनका चरित्र हनन शुरू कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें कुलटा, वेश्या, घरतोडू जैसे नकारात्मक विशेषण दे दिये जाते हैं।
दूसरी तरफ जो औरतें चुपचाप सर झुकाकर पुरुषों के हर सही–गलत फैसले का समर्थन करती हैं, उनको आदर्श स्त्री के रूप में समाज में स्थापित कर दिया जाता है। इसी के चलते महिलाओं ने खुद को उसी देवी स्वरूप आदर्श स्त्री के रूप में ढालने के लिए पुरुषों के आगे समर्पित कर दिया। हमारे पुरुष प्रधान समाज ने महिलाओं को हमेशा ही घरेलू कामों के सीमित घेरे के अन्दर ही उलझा करके रखा। उन्हें किसी भी बड़े सामाजिक या आर्थिक मसलों पर आगे बढ़ने ही नहीं दिया। पुरुषों ने हमेशा ही जमीन जायदाद, सम्पत्ति और यहाँ तक की महिलाओं के जीवन और उनके शरीर के ऊपर भी अपना ही पूरा अधिकार रखा। सदियों से महिलाओं के ऊपर पुरुषों ने विभिन्न नीति–नियम, कानून बनाकर तमाम तरीके की बंदिशें लगायीं और उनकी बेड़ियों को और मजबूत किया।
हमें यह गौर करना चाहिए कि जितने भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान, हदीस, मनुस्मृति या अन्य धार्मिक ग्रंथ लिखे गये हैं उन सभी के लेखक पुरुष रहे हैं और उन पुरुषों ने अपनी सहूलियत के लिए स्त्रियों के बारे में बहुत सारे नीति–नियम उन किताबों में लिखे। इनके मुताबिक महिलाओं को हमेशा ही एक खास दायरे में बँ/ो होने को ही उनकी अच्छाई बताया गया है। महिलाओं का राजनीति या शासन करना तो दूर की बात, उन्हें पढ़ने–लिखने से भी दूर रखने के पूरे प्रयास किये गये थे, ताकि वह चुपचाप पुरुषों द्वारा उनके ऊपर किए जा रहे शासन को गुलामों की तरह सहन करती रहे। इन सब चीजों ने धीरे–धीरे महिलाओं को और ज्यादा गर्त में डालने का काम किया। इसे ही महिलाओं द्वारा अपनी नियति मान लिया गया और उन्होंने खुद को राजनीति और सामाजिक दायरे से दूर कर लिया।
आज 17 वीं लोकसभा में अब तक की सबसे ज्यादा 78 महिला सांसद हैं जो पूरे सांसदों की 14 प्रतिशत हैं। लेकिन यह संख्या महिलाओं की आबादी में हिस्सेदारी के हिसाब से बहुत कम है। बाकी क्षेत्रों में हालत और भी खराब है। राजनीति में शामिल महिलाएँ बाकी महिलाओं की सुरक्षा या बराबरी को लेकर कुछ खास भूमिका नहीं निभा रही हैं, बल्कि वह भी अचेतन रूप से इसी पुरुषवादी सत्ता का पोषण कर रही हैं।
दुनिया भर में महिलाओं ने अपने अधिकारों को पाने के लिए आन्दोलन किये। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की पढ़ाई–लिखाई के लिए इस पुरुष प्रधान समाज से एक बड़ा सामाजिक जोखिम लिया था तब जाकर आज हम पढ़ और लिख पा रही हैं। यहाँ तक कि महिलाओं का अपने शरीर को लेकर भी कोई अधिकार नहीं था। आज जो गर्भनिरोधक दवाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, उसके लिए भी महिलाओं ने यूरोप में एक बड़ा आन्दोलन किया था तब जाकर के उन्हें यह अधिकार मिला कि वह अपनी जरूरत और इच्छा के मुताबिक बच्चे पैदा कर सकें।
19वीं सदी में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे समाज सुधार आन्दोलन में 1890 के दौरान महाराष्ट्र की आनन्दीबेन और काशीबाई छाता और जूते पहन कर के जब निकली थी, तो उन पर लोगों द्वारा पत्थर फेंके गये थे यह कहकर कि, “यह पुरुषों के प्रतीक चिन्ह हैं।” ताराबाई शिन्दे ने जब ‘स्त्री पुरुष तुलना’ किताब लिखी थी और यह कहा था कि स्त्रियों और पुरुषों में कोई ज्यादा भेद नहीं है और वह एक समान हैं, तो उस पर भी समाज में बहुत तीखी बहस शुरू हुई थी।
महिलाओं ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय भी स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर हजारों लाखों की संख्या में अपनी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित की थी। लेकिन उसमें भी महिलाओं ने पितृसत्ता से आजादी के लिए और अपने लिए बराबरी को लेकर कोई भी बड़ा देशव्यापी सक्रिय आन्दोलन नहीं चलाया था। उसके बावजूद भी महिलाओं ने बराबरी, स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए जब भी आवाज उठाई है और घरों से बाहर निकल कर के अपने हक माँगे हैं तो उन्हें उसमें कुछ हद तक जीत भी हासिल हुई और कई बार विरोध का सामना भी करना पड़ा।
महिलाओं को 1956 में हिन्दू कोड बिल लागू करवाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा था, जिसका बहुत से पुरुषों ने विरोध भी किया था, लेकिन उसके बावजूद भी अन्त में महिलाओं की ही जीत हुई।
मुस्लिम महिलाओं ने भी जिन्हें हमेशा ही परदे में रहने और पराए मर्दों से दूर रहने की विभिन्न मौलवियों द्वारा फतवे दिये जाते थे। वह भी आज देश भर में हजारों जगह अपने हक के लिए बाहर निकल आती हैं और भारतीय संविधान और राजनीति को समझने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। महिलाओं को जो अधिकार किसी भी धार्मिक किताब ने नहीं दिये, वे अधिकार उन्हें संविधान ने दिये हैं, यह बात आज बहुत सी महिलाओं को समझ में आ चुकी है। महिलाएँ आज बहुत से आन्दोलनों की अगुवाई कर रही हैं, चाहे वह स्कूल–कॉलेज, गली, मोहल्ले हो या संसद में। आन्दोलन चाहे स्वतंत्रता संग्राम का रहा हो या आज की वर्तमान परिस्थिति में नागरिकता संशोधन बिल को लेकर उन्हें पुरुषों ने अपने खुद के स्वार्थ के लिए भले समर्थन दिया हो, लेकिन फिर भी महिलाएँ हर जगह की तरह राजनीति में भी आगे आ रही हैं। महिलाओं की संख्या अभी भी आधी आबादी के हिसाब से बहुत ही कम है, फिर भी वह तरह–तरह के सामाजिक मुक्ति आन्दोलनों में भाग लेकर खुद की मुक्ति का भी रास्ता तलाश कर रही हैं।
–– स्वाति सरिता
सुन्दर प्रस्तुति
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