Friday, February 7, 2020

‘नारी मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध से पहले के करीब डेढ़ सौ साल के मजदूर आन्दोलन ने समग्रता में श्रम की लूट और उससे अमीरों की तिजोरी भरने के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने पक्ष में सिद्धान्त भी विकसित किया। लेकिन फ्रांसीसी क्रान्ति के समय से ही इस शोषण के चलते महिलाओं की दुर्दशा और उसके खिलाफ क्रान्तिकारी आन्दोलन की कोशिशों को नकारने के लिए पूँजीपति वर्ग ने जिसका सहारा लिया वह था “विज्ञान”। उन्हें पिछले अनुभवों से पता चल चुका था अगर वैज्ञानिक कहें कि महिलाएँ शारीरिक, मानसिक रूप से कमजोर होती हैं तो उसके खिलाफ बोलने वाले चुप हो जायेंगे। इसकी अगुआई फ्रायड जैसे नामचीन मनोवैज्ञानिक ने की। महिलाओं के बारे में प्रचलित कुसंस्कारों को उन्होंने खुद के इजाद किये मनोविज्ञान के जरिये पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। उनक कहना था कि महिलाएँ मानसिक रूप से कमजोर इसलिए है क्योंकि वे अपने शरीर को पुरुष के शरीर की तुलना में कमतर पाती हैं। इतिहास में हम युजनिक्स, नस्लवाद जैसे गैर–बराबरी के समर्थक सिद्धान्तों को विज्ञान के रूप में प्रस्तुत होते हुए देखते हैं । युजनिक्स के जरिये जर्मन समाज ने ऐसी माँएँ बनाने की कोशिश की जो आगे चलकर हिटलर या नेपोलियन पैदा करेंगी। दुनिया के बहुत–से वैज्ञानिकों ने इसे विज्ञान के रूप से स्वीकार भी किया था।
लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद नारीवाद के पुनरूत्थान ने ऐसे सिद्धान्तों को वैचारिक और वैज्ञानिक, दोनों मोर्चों पर चुनौती दी। सिमोन द बोउवार, केट मिलेट आदि समाज वैज्ञानिकों ने जीवविज्ञान और समाजविज्ञान का सहारा लेते हुए ऐसे विज्ञान के पितृसत्तात्मक रूप को उजागर किया। रूस और चीन जैसे देशों में समाजवादी क्रान्ति के बाद बराबरी पर आधारित समाज बनाने की कोशिश में कारखानों, खेतों के साथ घरेलू काम का भी सार्वजनीकरण करने की कोशिश की। इसके बारे में ‘पाप और विज्ञान’ और ‘इतिहास ने जब करवट बदली’ किताब से ज्यादा जानकारी मिल सकती है। इसमें न सिर्फ कामगार मर्द, बल्कि घरेलू काम में लगी हुई औरतों को भी आजाद करने की कोशिश दिखाई देती है।
घरेलू काम से महिलाओं की आजादी की बात सुनते ही लोगों को सबसे पहले यही डर सताने लगता है कि रसोई, बाग, आँगन, सफाई, खाना कौन करेगा ? इसके बारे में प्रचलित सोच यह है कि अपनी घर, कपड़े, खाना आदि के बारे में कोई दूसरा इतना ख्याल नहीं रख सकता है। पुरुषों की न सिर्फ यह माँग होती है कि उन्हें खाना–कपड़ा हाथ में थमाया जाये बल्कि उसे प्यार से पेश भी किया जाये। यह काम महिलाओं के अलावा कौन कर सकता है ? बहुत से वैज्ञानिकों के साथ व्यक्तिगत चर्चा में हमने उन्हें यह कहते हुए सुना है कि नारी–पुरुष का श्रम विभाजन हर प्रजाति के प्राणी में है, तो इनसानों में होने से क्या दिक्कत है ? यही कारण है कि स्टूडेंट शब्द का कोई स्त्रीलिंग नहीं है। क्योंकि महिलाओं को बीसवीं सदी के शुरू होने तक तथाकथित विकसित देशों में भी किसी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में बहुत–सी महिलाएँ और उनके साथ देने वाले पुरुषों की लम्बी कोशिशों के बाद उन्नीसवीं सदी के आखिरी में कुछ गिनी–चुनी महिलाएँ दाखिल हुर्इं और डिग्रियाँ भी हासिल कीं। उनमें से एक प्रमुख नाम है क्रान्तिकारी जर्मन मजदूर नेता रोजा लक्जमबर्ग।
बहुत से आन्दोलनकारी या सैद्धान्तिक बुद्धिजीवी इस बात पर सवाल उठाते हैं कि अगर मौजूदा व्यवस्था में महिलाओं का उत्पीड़न जारी है तो इसे पूँजीवादी नहीं बल्कि सामन्ती समाज कहना चाहिए। उलटे तरफ से अगर सोचा जाये तो सवाल कुछ यूँ है जो पूँजीवाद दुनिया के बहुत से लोगों को सामन्ती गुलामी से मुक्त करवाने में तत्पर था, महिलाओं की मुक्ति के लिए वह तत्पर क्यों नहीं है ? क्या महिलाओं का घरेलू काम के जरिये शोषित होते रहना उसके मुनाफे कि हवस के लिए जरूरी है ?
इस सवाल पर अठारहवीं सदी में फ्रांस की ओलिम्प द गूज और इंग्लैण्ड की मेरी वोल्स्टेनक्राफ्ट के बाद सबसे गम्भीर दस्तावेज उन्नीसवीं सदी में फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ रही है। उसमें उन्होंने बताया कि कैसे प्राचीन श्रम विभाजन इतिहास में धीरे–धीरे ठोस रूप में तब्दील हुआ और महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति को पैदा किया। समाधान के रूप में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त कर न सिर्फ अमीरी–गरीबी को खत्म करने की बात की, बल्कि लैंगिक भेद से मुक्त समाज बनाने का भी आह्वान किया।
इस कड़ी में दुनिया भर के प्रगतिशील आन्दोलनों ने बीसवी सदी में भी योगदान किया। उदाहरण बतौर गुलाम भारत की एक लेखिका रुकैया शेखावत हुसैन ने ‘सुल्ताना का सपना’ में एक ऐसी समाज की कल्पना की जिसमें परिवार, समाज और राज्य में प्रमुख भूमिका महिलाओं की है। एक सपने के तौर पर ही सही, महिलाओं ने इसे लेकर मुखर होना शुरू किया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब मजदूर आन्दोलन को कमजोर करने के लिए ‘सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनता’ सिद्धान्त को अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों की सराहना मिली तो महिला–मुक्ति के सवाल के बारे में नये तरीके से सोचना और आन्दोलन को दिशा देना जरूरी हो गया। ऐसे मोड़ पर सिमोन द बोउवार कहती हैं “मेरा जुड़ाव नारीवाद की उस धारा के प्रति है जो नारीमुक्ति को वर्ग संघर्ष और सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के साथ जोड़कर देखे और उस दिशा में प्रयास करे।”
कनाडा की मार्गरेट लो बेन्स्टोन साइमन फ्रेजर विश्वविद्यालय में सैद्धान्तिक रसायन की अध्यापिका थीं। मार्गरेट ने कॉलेज से रसायन और दर्शन में डिग्री हासिल की और बाद में सैद्धान्तिक रसायन में पीएचडी की। लेकिन सिर्फ वैज्ञानिक के रूप में अपनी पहचान से नाखुश थीं। उनका कहना था, “हम नारीवादी हैं न सिर्फ महिला उत्पीड़न के अपने खुद के अनुभवों के चलते, बल्कि इसलिए भी हैं कि किसी भी तरह का उत्पीड़न अन्यायपूर्ण है। हमें यह भी यकीन है कि समाज को बदलकर हर तरह के उत्पीड़न से मुक्ति सम्भव है।” इसी बौद्धिक प्रतिबद्धता के चलते उन्होंने 1969 में एक निबन्ध प्रकाशित किया जिसका शीर्षक है “नारीमुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र” (उत्साही पाठक गार्गी प्रकाशन की पुस्तक ‘इतिहास जैसा घटित हुआ’ में इसे पढ़ सकते हैं)। तब से लेकर आज तक पिछले 50 साल में इस निबन्ध ने नारी मुक्ति के सवाल को दुनिया के हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
अक्सर किसी भी कमाऊ पेशे में जाना महिलाओं के लिए दोहरी जिम्मेदारी पैदा करता है। अगर घर का काम सम्भालकर कोई नौकरी कर सके तो घर वाले और काम देने वाले, दोनों खुश रहते हैं। जबकि पुरुषों के लिए कामगार होने का मतलब हर तरह के घरेलू कामों से आजादी है। अगर कामगार के रूप में रोजगारशुदा न हों तो इक्के–दुक्के काम करके (सब्जी, राशन आदि खरीद लाना) वे अहसान भी जताते हैं। जो महिलाएँ काम करने बाहर जा रही हैं उनका शोषण तो दिखता है, लेकिन जो काम करने बाहर नहीं जातीं उनके कामों को कोई नहीं गिनता। नारीवाद के नये प्रवक्ताओं ने इसे एक ठोस सवाल के रूप में पेश किया। अगर वे बाहर काम करने नहीं जातीं, तो वे क्या कोई काम नहीं करती हैं ? या उनकी मेहनत की लूट नहीं हो रही है ? अगर लूट हो रही है तो कौन लूट रहा है ? इस लूट से पूँजीवाद को कितना लाभ है ?
बेन्स्टोन ने ‘महिला’ तबके को परिभाषित करने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के उस सैद्धान्तिक ढाँचे का इस्तेमाल किया जो मजदूर आन्दोलन के चलते उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ था और बीसवीं सदी में और ज्यादा विकसित भी हुआ है। इस निबन्ध में सीधा सवाल उठाया गया “क्या उत्पादन के साधन के साथ सम्बन्ध के जरिये जैसे मजदूर और पूँजीपति को परिभाषित किया जाता है, वैसे ही महिलाओं को परिभाषित करना सम्भव है ?” उनका जवाब था “हाँ, लेकिन उनका काम और शोषण अक्सर मौद्रिक अर्थव्यवस्था के बाहर होने के चलते अदृश्य रह जाता है। इसलिए उत्पादन के साधन के साथ सीधा सम्बन्ध भी परिभाषित करना मुश्किल होता है।” मशहूर अर्थशास्त्री पॉल स्वीजी ने अपनी पहली किताब “थ्योरी ऑफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट” में श्रम बाजार के बारे में बात करते हुए इस तरफ महज एक इशारा किया था कि मजदूरों का उत्पादन (जन्म और पालन–पोषण) बाकी सामानों की तरह नहीं है इसलिए श्रम बाजार की गतिकी को महज माँग–आपूर्ति के ढाँचे में नहीं नापा जा सकता। इस बात को विस्तारित करते हुए बेन्स्टोन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मजदूरों को पैदा करने, उनका पालन–पोषण करने से लेकर उनकी हर तरह की मानसिक और शारीरिक चाहत को पूरा करने में महिलाओं की भूमिका के बारे में विस्तार से चर्चा की। इसके जरिये उन्होंने साबित किया कि कैसे परिवार के अन्दर महिलाओं का काम सिर्फ ‘निजी दायरे’ में होने के चलते सिर्फ उपयोग मूल्य पैदा करता है और उसका बाजार में विनिमय मूल्य होने से बच जाता है। यहाँ से उन्होंने आने वाले समतामूलक समाज के लिए महिलाओं के घरेलू कामों का सार्वजनीकरण की जरूरत को साबित किया। महिलाओं के घरेलू कामों के सार्वजनीकरण की माँग नयी नहीं थी। लेकिन उसे महज समतामूलक समाज की जरूरत के रूप में देखा गया था। बेन्स्टोन का कहना था यह समतामूलक समाज की जरूरत नहीं बल्कि उसे बनाने की एक जरूरी शर्त है।
इस निबन्ध ने नारी मुक्ति आन्दोलन और महिला अध्ययन में एक नयी धारा को जन्म दिया जिसका अकादमिक नाम है ‘सामाजिक पुनरुत्पादन सिद्धान्त’। दुनिया के तमाम आन्दोलनों और विश्वविद्यालयों में नये सिरे से घरेलू महिलाओं के काम को ‘काम’ यानी उत्पादक श्रम में शामिल करने के लिए बहस शुरू हुई। इसका नतीजा यह हुआ की बेन्स्टोन को अपना पसन्दीदा विषय रसायनशास्त्र छोड़ना पड़ा और उन्हीं की पहल पर बने महिला अध्ययन केन्द्र की जिम्मेदारी लेनी पड़ी। अपने सैद्धान्तिक काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्थानीय स्तर पर महिला आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करना जरूरी समझा। वे कनाडा के वैंकुवर वीमेन्स कॉकस और ब्रिटिश कोलम्बिया के वीमेन्स स्किल डेवलपमेंट सेन्टर की संस्थापक सदस्य थीं। मजदूर आन्दोलन और युद्धविरोधी गीत सिखाने वाले संगठन ‘द यूफोनिअसली फेमिनिस्ट एण्ड नॉन–परफॉर्मिंग क्विंटेट’ की सक्रिय सदस्य रहीं। अपनी जुड़वा बहन मरियन लो को भी उन्होंने सैद्धान्तिक रसायन के साथ–साथ नारी मुक्ति आन्दोलन और शोध में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। दोनों ने मिलकर तकनीकी विकास के खतरे के रूप में मजदूरों के गैर–कौशलीकरण और महिला मजदूरों पर पड़ने वाले उसके सबसे बुरे प्रभाव के बारे में शोधपत्र भी लिखा, जिसकी सच्चाई आज हमारे आँखों के सामने है।
सितम्बर, 2019 की टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में तकनीकी विकास के साथ–साथ नौकरी करने वाली महिलाओं की संख्या 2004–05 में 43 फीसदी से घट कर 2017–18 में 23 फीसदी हो गयी है। इस निबन्ध में बताया गया है कि विनिर्माण तथा निर्माण क्षेत्र में मन्दी और कृषि में मशीनीकरण महिला मजदूरों की बेरोजगारी का एक मुख्य कारण है। इसके चलते आँगनवाड़ी और आशा जैसी योजनाओं में काम करना ही ग्रामीण महिलाओं के सामने एकमात्र रास्ता है। लेकिन आँगनवाड़ी और आशा कर्मचारियों की दिहाड़ी बहुत से राज्यों में उन्हीं राज्यों की न्यूनतम दिहाड़ी से भी बहुत कम है, यानी ये रोजगार भी एक तरह के कागजी रोजगार हैं जिससे जिन्दगी की बुनियादी जरूरत पूरी नहीं हो पातीं।
बेन्स्टोन ने अपने लेख में महिलाओं के कामों का सार्वजनीकरण और औद्योगीकरण न होने के चलते उसे पूँजीवाद से भी पहले की स्थिति का काम बताया, जो सही नहीं है। उस दौर के बहुत से नारीवादियों ने उनके इस सूत्रीकरण की आलोचना भी की थी। उनका कहना था कि महिलाओं का घरेलू काम इतिहास में कभी भी उद्योग या सार्वजनिक चरित्र का नहीं रहा, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता है की इनसान कबीलाई समाज से आगे निकला ही नहीं है। आज जरूरत इस बात पर सोचने की है कि पूँजीवादी समाज किस तरह परिवार और उससे सम्बन्धित कामों में महिलाओं को उलझाये रखता है। इसके समानान्तर दो तर्क एक ही साथ काम करते हैं। पहला, आर्थिक तर्क जिसके चलते किसी भी मजदूर को कम से कम मजदूरी देकर या बेगारी में काम करवाकर अथाह मुनाफे का इन्तेजाम किया जाता है (पूँजीवाद)। दूसरा, सांस्कृतिक तर्क, जो आर्थिक तर्क का ही दूसरा रूप है–– महिलाओं का कम घर में और आजीविका कमाने का काम पुरुषों का है या “लड़की नौकरी क्यों करेगी ? लड़के सब मर गये क्या ?” क्योंकि दूसरा तर्क सांस्कृतिक स्तर पर कारगर है इसलिए इसका छलावा जल्दी पकड़ में नहीं आता। एक मशहूर बॉलीवुड अभिनेत्री ने लगभग एक दशक पहले भाजपा की सदस्यता लेते हुए महिलाओं की आजादी के बारे में कहा था “महिलाओं का काम बच्चा पालना, परिवार का ख्याल रखना है। इस काम को करने में उसे जितनी आजादी चाहिए वह मिलनी चाहिए।” यह वही सांस्कृतिक तर्क है जिसको हर परिवार में संस्कार के रूप में लड़के और लड़की दोनों जब बोलना भी नहीं सीखते, तब से सिखायी जाती है। इस तरह आर्थिक और सांस्कृतिक तर्क दोनों ही एक–दूसरे के परिपूरक होते हैं। इसलिए महिलाएँ जब तक महज पितृसत्ता को गाली देकर अपना गुस्सा जाहिर करती रहेंगी तब तक पितृसत्ता को कोई खतरा नहीं है। और आज पूँजीवादी पितृसत्ता चाहती भी यही है कि महिलाएँ जी भरके पुरुष और पितृसत्ता दोनों को गाली दें, बस सम्पत्ति की व्यवस्था में कोई दखलंदाजी न करें। उनके शरीर और मन को नियंत्रित करने की बागडोर अब भी पुरुषों के कब्जे में है इस बात को छुपाने के लिए ही महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है। जो औरत इस सीमा में बँधने को तैयार नहीं है उसे तुरन्त वेश्या या चुड़ैल का दर्जा देने में भी ये समाज देर नहीं लगाता।
एक मजेदार तथ्य है की बेन्स्टोन का यह चर्चित निबन्ध प्रकाशित होने के तुरन्त बाद ही बहुत सारे देशों के क्रान्तिकारी संगठनों और पार्टियों में भी इस मुद्दे पर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी। यूरोप के बहुत–से देशों में क्रान्तिकारी संगठनों में बेन्स्टोनवादी एक नयी धारा ही विकसित हो गयी। लेकिन बेन्स्टोन की समझ और दिशा नारीवादी आन्दोलन को अन्य आन्दोलनों से अलग करने की नहीं बल्कि सामाजिक–राजनीतिक–आर्थिक् बदलवों के लिए जारी तमाम आन्दोलनों का हिस्सा बनने की थी। उनकी बातों का सार कुछ ऐसा है––
नौकरी न करने वाली महिलाएँ भी रोज काम करती हैं, बशर्ते ऐसा काम जो बाजार में नहीं बिकता। यानी वह उपभोग मूल्य तो है लेकिन विनिमय मूल्य में उसे तब्दील नहीं किया जाता। लेकिन यह उपभोग मूल्य अगर पैदा न हो यानी घर में झाड़ू–पोछा, कपडे़–बर्तन, खाना–पीना, बच्चों और बुजुर्गों का देखभाल अगर न हो तो कमाऊ पुरुष भी बाजार में अपनी श्रमशक्ति बेचकर दो पैसा कमाने की स्थिति में नहीं रहेगा। समग्रता में देखा जाये तो पूरी दुनिया के मजदूरों को काम करने लायक बनाये रखने में महिलाओं का श्रम लगा है जिसकी कोई कीमत मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था अदा नहीं करती है। यानी सारा काम मुफ्त में हो रहा है और उसका फायदा दुनिया भर के पूँजीपति लूट रहे हैं अपने काम में लगाये हुए मजदूरों से कम दिहाड़ी के बदले ज्यादा से ज्यादा काम लेकर। आज की पूँजीवादी व्यवस्था न सिर्फ कामगार मजदूरों को लूट कर मुनाफा कमा रही है, बल्कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं को एक भी पैसा भुगतान किये बगैर अथाह मुनाफा कमा रही है। अगर घरेलू काम के लिए तनख्वाह या दिहाड़ी देनी पड़े तो आर्थिक वितरण का इतना भारी मात्रा में बदलाव होगा कि मुनाफा कमाना लगभग असम्भव हो जायेगा। इसी के चलते पूँजिपति वर्ग नारी मुक्ति के सवाल पर चुप्पी साधे रहता हैै। दूसरी ओर, ठीक इसी कारण सेनारी मुक्ति आन्दोलन को हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से खुद को जोड़ना पड़ेगा।

–– अमित इकबाल

No comments:

Post a Comment